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सुख-दुख

विनोद कापड़ी की किताब में क्या है?

संजय कुमार सिंह-

सिस्टम के बिना और सिस्टम के बावजूद… फिल्म निर्माता और पत्रकार विनोद कापड़ी की पुस्तक, “1232 किलोमीटर” लॉक डाउन का आंखों देखा हाल है। गाजियाबाद से सहरसा तक की सात मजदूरों की साइकिल यात्रा का यह वर्णन मुख्य रूप से डबल इंजन वाले उत्तर प्रदेश राज्य की ही कहानी है। और बिना सोचे-समझे बगैर किसी तैयारी के लागू कर दिए गए इस लॉक डाउन से लोगों को कितनी परेशानी हुई, यह कितना जरूरी थी और कितना सफल या असफल रहा इसका विवरण इसमें है। वैसे तो इसपर फिल्म भी बनी है पर मुझे लगता है कि किताब में ज्यादा विवरण होगा।

इसलिए मैंने किताब पढ़ना पसंद किया। वर्णन इतना शानदार है कि पढ़ते हुए लगा जैसे सब सामने घट रहा हो। सिर्फ एक चीज खटकी, गालियां अंग्रेजी में है पर वह मेरे जैसे पाठक की निजी समस्या है। किताब हिन्दी में होती तो गालियां हिन्दी में भी होतीं। चूंकि मैं अनुवाद करके ही अर्थ समझता हूं इसलिए मुझे गालियां बिना पढ़े समझ में आ जा रही थीं। इसलिए अटपटा लग रहा था। हालांकि फिल्म में गालियां देखना दिलचस्प होगा। असल में वह भी तो सिस्टम ही है। और इसी से पता चलता है कि इन प्रवासी मजदूरों ने सिस्टम के बावजूद अपनी यात्रा पूरी कर ली। पुस्तक से सिस्टम के बारे में जो खास बातें मालूम हुईं वह इस प्रकार हैं :

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  1. गाजियाबाद से चली टीम को एक जगह रोक लिया गया कि आगे नहीं जा सकते, क्वारंटाइन किया जाएगा। पर साइकिल सवार इन मजदूरों को जिला मुख्यालय ले जाने के लिए सिस्टम के पास गाड़ी नहीं थी और वहां तैनात पुलिस वालों में से किसी के पास साथ जाने के लिए साइकिल भी नहीं थी। इससे पता चलता है कि सिपाही प्रवासी मजदूरों की पिटाई क्यों कर रहे थे।
  2. दूसरी घटना एक जगह चेकिंग के लिए रोके जाने की है। जहां सबका तापमान लिया गया। इनमें से एक की तबियत खराब थी उसका तापमान 98.9 था। तथाकथित डॉक्टर ने उसे रोकने के लिए कहा। कागजी कार्रवाई हो रही थी तभी उनमें से एक ने कहा कि अभी तो आपने 98.8 वाले को जाने दिया। और फिर साथ वालों की दलील आदि के बाद उसे जाने दिया गया। इससे पता चलता है कि महामारी में सिस्टम कितना मुस्तैद था।
  3. एक जगह वर्णन है कि लोगों को रोककर जिला प्रशासन द्वारा खाना दिया गया और यह यात्रा शुरू करने के 100 घंटे बाद यानी चार दिन में एक बार हुआ। आप समझ सकते हैं कि प्रवासियों को खाना देने का दावा कितना सच था।
  4. विनोद ने अपने किसी मित्र से रहने और खाने की व्यवस्था करने के लिए कहा तो उसने सब कुछ किया ही। चलते समय नौ लोगों के लिए सौ लोगों का खाना दिया। और लेने से मना करने पर कहा गया कि रास्ते में जरूरत मंदों को बांट दिया जाए। इससे पता चलता है कि कुछ लोग प्रचारकों के बिना भी काम करते हैं।
  5. कम से कम तीन बार ट्रक वालों ने पूरी टीम को (लेखक/फिल्म निर्माता साथी के साथ अपनी कार में थे) लिफ्ट दी। पैसे नहीं लिए। सिस्टम की इस चेतावनी के बावजूद कि पकड़ लिए गए तो 10,000 रुपए जुर्माना था। गाड़ी जब्त कर ली जानी थी। यहां मौके पर चौका और आपदा में अवसर दोनों था। फिर भी सेवा भावना सर्वोपरि रही जो पीएम केयर्स से अभी तक नहीं दिखी है। इससे पता चलता है कि सिस्टम चोर ही नहीं बेईमान भी है।
  6. एक जगह टीम वालों को लूटने की भी कोशिश हुई। तीन लुटेरे बेरोजगार मजदूर ही थे और नकली पिस्तौल से धमका कर लूटना चाह रहे थे। इतने मजबूर थे कि पुरानी साइकिल 500 रुपए में बेचकर सात साइकिलों के 3500 तो मिलेंगे – की उम्मीद में लूट रहे थे। सात लोगों को तीन लोग 3500 रुपए के लिए लूटें यह देश की आर्थिक स्थिति का बयान करता। इससे पता चलता है कि जो
    अर्थव्यवस्था पांच ट्रिलियन की होने वाली थी उसका क्या हाल कर दिया गया है।

गाजियाबाद से सहरसा की यह दूरी साइकिल से इन सात मजदूरों ने 27 अप्रैल को शुरू कर सात दिन, सात रात में 3 मई 2020 को पूरी की और लूटने की कोशिश वाला दृश्य फिल्माया नहीं जा सका। क्योंकि देर रात लेखक साथी के साथ सुबह तय जगह पर मिलने की बात कहकर कहीं और चले गए थे। लेकिन सच यह भी है कि प्रवासी मजदूरों के साथ गाड़ी पर फिल्म निर्माता टीम होती तो लूटने की कोशिश नहीं होती। या शायद कार वाले को लूटने की होती। रात में फिल्म निर्माता टीम के अलग होने की एक और घटना का जिक्र है। तब टीम रास्ता भटक गई थी और कई घंटे तथा कई किलोमीटर का श्रम बेकार गया। हालांकि, बाद में ट्रक से लिफ्ट मिलने से उसकी भरपाई हो गई।

लॉकडाउन और प्रवासी मजदूरों के पलायन की त्रासदी को अखबारों ने तो नहीं के बराबर कवर किया इसपर कोई और अच्छा काम भी शायद नहीं हुआ है। 26 मार्च को बैंगलोर से अपने गांव राजस्थान के चितलवाना की यात्रा पैदल शुरू करने वाले 28 साल के प्रवीण कुमार की कहानी द टेलीग्राफ में लगातार छापी थी। उसकी यात्रा 4 अप्रैल को पूरी हुई थी।

रविवार, पांच अप्रैल को टेलीग्राफ ने फिरोज एल विनसेन्ट की खबर छापी थी। इसके अनुसार, जिन्दल ग्लोबल लॉ स्कूल, सोनीपत के असिस्टैंट प्रोफेसर अमन, इमोरी यूनिवर्सिटी में पीएचडी सोशियोलॉजी की स्कॉलर कनिका शर्मा, डाटा मीट ट्रस्ट बैंगलोर के चेयरमैन तेजेश जीएन ने एक अनुसंधान में पाया है कि 24 मार्च से लेकर 31 मार्च के बीच कम से कम 77 मौतें ऐसी हुई थीं जिनका संबंध लॉक डाउन और ऐसे प्रतिबंधों से था। यह सूची अंग्रेजी, हिन्दी और कन्नड की खबरों तथा सूचना के आधार पर बनाई गई थी जो ट्वीटर पर मलयालम और मराठी की खबरों से एकत्र किए गए थे।

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12 लोगों की मौत का कारण स्पष्ट नहीं था। उसे इनमें शामिल नहीं किया गया है। इन 77 मौतों का विवरण इस प्रकार है : 43 लोगों की मौत का कारण पलायन से संबंधित दुर्घटना, मेडिकल इमरजेंसी और रोड ब्लॉक के साथ लाठी चार्ज, भूख से मौत तथा आत्महत्या को बताया गया है। यह आंकड़ा ट्वीटर पोस्ट से लिया गया है जबकि 15 लोगों की मौत सड़क दुर्घटना में हुई जो इसमें शामिल नहीं है। 19 लोगों की मौत का कारण आत्महत्या बताया गया है। ये आत्महत्याएं शराब नहीं मिलने, अलग थलग पड़ जाने/ संक्रमण के डर के कारण हुई हैं। और ट्वीटर में शामिल नहीं हैं।

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