पोट्सडम की धूप में इतिहास की झलक
यूरोपीय शहरों में सैलानी के तौर पर घूमने वाले यूरोपीय या अमरीकी नागरिकों के लिए आकर्षण का केंद्र वहां के दर्शनीय केंद्र होते हैं, जैसे म्यूजियम और पुराने ऐतिहासिक स्थल। लेकिन जहां तक मुझ जैसे भारतीय पर्यटकों का सवाल है तो सच्चाई यह है कि उनके लिए तो वहां की ट्रैफिक व्यवस्था, समाज व्यवस्था, वहां का आम वास्तुशिल्प, वहां का शिष्टाचार, वहां की ट्रेनें और बसें – ये सब अधिक आकर्षण का केंद्र होते हैं। अपनी नौ दिन की यूरोपीय यात्रा के दौरान वहां के तीन देशों के चार शहर मेरे लिए नमूने के तौर पर थे और इन शहरों के माध्यम से मैंने यूरोप का अधिक से अधिक अपने अंदर सोखने की कोशिश की।
हर महीने यूरोप-अमरीका की यात्रा पर जाने वालों को यह परम स्वाभाविक लगता होगा कि वहां सड़कों पर आदमी बिल्कुल दिखाई नहीं देते। लेकिन पहली बार पश्चिम जाने वाले के लिए यह किसी सांस्कृतिक धक्के से कम नहीं होता। सड़कों पर इतने कम लोग कि किसी से कुछ पूछना हो तो आप पूछ ही नहीं सकते। सड़कों पर लोगों की तादाद दिन के तापमान पर काफी हद तक निर्भर करती है। यदि ठंड कम हो तो आपको काफी लोग बाहर मिल जाएंगे वरना ठंड के कारण लोग अंदर रहना ही पसंद करते हैं।
मौसम यूरोप में बातचीत का एक अहम मुद्दा होता है और अक्सर बातचीत शुरू करने का एक बहाना। हमारे यहां भी मौसम पर काफी बात होती है। लेकिन दोनों में एक फर्क है। हमारे यहां लगभग हमेशा यह कहा जाता है कि ओह, इतनी अधिक गर्मी इससे पहले नहीं पड़ी, या फिर पूर्वोत्तर के राज्यों में यह कहा जाता है इतनी अधिक बारिश पहले कभी नहीं हुई। लेकिन हमारे यहां तापमान हमारी उम्मीद के अनुसार ही ऊपर-नीचे होता है। जबकि पश्चिमी मौसम का मिजाज पहचानना काफी मुश्किल होता है। आप कहीं दूसरे शहर में दो-तीन दिनों के लिए जाते हैं स्वेटर, जैकेट आदि लेकर और देखते हैं कि वहां तुषारपात यानी स्नोफाल शुरू हो गया। ऐसे में आपकी स्थिति काफी विकट हो जाती है। मेरी यात्रा का महीना अप्रैल था और दिन के तापमान को 10 – 12 डिग्री के आसपास होना था। लेकिन वापसी के दिन तापमान तेजी के साथ गिरना शुरू हो गया। और वापस आने के बाद मित्रों ने मेल पर बताया कि तापमान काफी नीचे गिर गया और तुषारपात भी हुआ।
धूप को पश्चिम में प्रकृति के तोहफे के तौर पर लिया जाता है। अब समझ में आया कि क्यों पश्चिमी साहित्य में अक्सर ब्राइट सनी डे के बखान के साथ कोई बात शुरू की जाती है। धूप हमारे यहां की तरह वहां साल के बारहों महीने और रोजाना नहीं निकलती। इसलिए धूप निकलने पर उसका आनंद लेने का भी पश्चिम में रिवाज है। बर्लिन के पास पुराने प्रुशिया साम्राज्य की राजधानी पोट्सडम में जब मैं किराए की साइकिल से आसापास के इलाके की सैर करने निकला तो उस दिन सौभाग्य से अच्छी धूप निकली थी। पोट्सडम में देखा कि एक ग्रामीण सी दिखती नदी के किनारे लोग एक रेस्तरां के पास आरामकुर्सियों पर लेटे हुए धूप का आनंद ले रहे हैं। वहीं एक बीयर गार्टन में लोग बीयर की चुस्कियां लेकर समय बिता रहे हैं। जबकि यह कोई सप्ताहांत नहीं था। जर्मनी में बियर गार्टन की बड़ी महिमा है। चेस्टनट के पेड़ के नीचे घंटों तक बीयर की चुस्कियां लेते लोग आपको किसी भी धूप वाले दिन दिखाई दे जाएंगे।
पोट्सडम का नाम इतिहास में इसलिए भी दर्ज है कि वहीं द्वितीय विश्व युद्ध को समाप्त करने वाली संधि पर हस्ताक्षर हुए थे। विश्व के सभी बड़े राजनीतिक नेता वहां जमा हुए थे। स्टालिन भी आया था। पोट्सडम की किसी ग्रामीण-सी सड़क किनारे बने इन खूबसूरत (आम तौर पर दोमंजिला) भवनों में इन दिनों फिल्म स्टार रहते हैं। कहने का मतलब कि जिनके पास बहुत अधिक पैसा है वैसे लोग। जिस मकान में स्टालिन ठहरा था मैंने उसके सामने जाकर फोटो खिंचवाई। उस निर्जन सी सड़क का नाम कार्ल मार्क्स स्ट्रीट रख दिया गया है। पूर्वी जर्मनी के जमाने में यह नाम रखा गया था और दोनों जर्मनी एक होने के बाद भी नाम बदले नहीं गए। बार-बार नाम बदलना कोई अच्छी बात नहीं है। आखिर नाम के माध्यम से भी तो इतिहास का पता चलता है।
पोट्सडम के एक ओर पूर्वी जर्मनी पड़ता है और दूसरी ओर पश्चिमी जर्मनी। लेकिन नदी के पार भी कुछ हिस्सा एक-दूसरे के हिस्से का है। नदी पर जो पुल बने हुए हैं उसका भी आधा-आधा हिस्सा बंटा हुआ था। पुल पर किए गए हरे रंग के फर्क को साफ देखा जा सकता है। आधे पुल पर घटिया किस्म का रंग किया हुआ दिखाई देता है वह कम्यूनिस्ट पूर्वी जर्मनी की तरफ का हिस्सा था और दूसरे हिस्सा का रंग ज्यादा चमकदार है। मेरा मित्र माइक मुझे बताते चलता है कि यह देखो यहां-यहां दीवार थी। दीवार कहां-कहां थी उसके चिह्नों को सुरक्षित रखा गया है।
बर्लिन में दीवार की चर्चा के बिना कोई बात पूरी नहीं होती। एक ही शहर, एक ही जाति, एक ही भाषा बोलने वाले लोगों को सिर्फ राजनीति की वजह से अचानक दो भागों में बांट दिया जाता है। इस त्रासदी को हम भारतीय ठीक से नहीं समझ सकते। क्योंकि यहां भारत और पाकिस्तान के बंटवारे में दोनों तरफ की आबादी में सांस्कृतिक भेद था। कोई कुछ भी कहे लेकिन अविभाजित भारत के दोनों हिस्सों में ऐसे लोग बहुतायत में थे जो चाहते थे कि बंटवारा हो जाए और आबादी भी अदल-बदल हो जाए। जबकि जर्मनी का बंटवारा बिल्लियों को मूर्ख बनाने वाली बंदरबांट जैसी थी। इसलिए जर्मनी (या बर्लिन) के बंटवारे और भारत के बंटवारे में समानता नहीं खोजी जा सकती। जो भी हो, जर्मन लोगों ने इस कटु स्मृति को संजोकर रखा है ताकि आने वाली पीढ़ियां ऐसी त्रासदी को टालने के लिए तैयार रहें।
बंटवारे में मेट्रो ट्रेन (वहां बाह्न कहा जाता है) वहां पूर्वी जर्मनी के हिस्से में आई थी। वह शहर के हिस्से तक जाती और पूर्वी से पश्चिमी बर्लिन जाने वालों को जांच से गुजरना पड़ता। बहुत कम ही लोगों को पूर्वी से पश्चिमी बर्लिन जाने की इजाजत थी। जिस स्टेशन पर यह गाड़ियों की बदली होती थी उसे अब हाउस ऑफ टियर्स कहा जाता है, क्योंकि लोग अपने रिश्तेदारों को यहां आंसुओं के साथ विदा करते थे। अब इसे म्यूजियम बना दिया गया है। एक गाइड आपके पास आता है और कहेगा कि सबकुछ मुफ्त है लेकिन आप इतने यूरो दें और आपको और भी अधिक विस्तार से बताया जाएगा। आखिर बिजनेस कहां नहीं है।
बर्लिनः दीवार को भूल नहीं पाएगी एक पीढ़ी
जर्मनी की राजधानी बर्लिन में उतरकर वैसा कोई कल्चर शॉक नहीं लगा जैसा कहते हैं पश्चिमी लोगों को एशियाई शहरों, खासकर भारत, में आते ही लगता है। खासकर भारत में आते ही यहां की आबादी उन्हें चौंका देती है। उन्हें सपने में भी यह आभास नहीं होता कि एक देश में इतने लोग हो सकते हैं। हर कहीं कतारें और लाइनें। आपाधापी। यूरोप में ऐसा कुछ नहीं होता। जर्मनी में भी नहीं था। इसका हमें पहले से अहसास था। शायद इसीलिए कल्चर शॉक से बच गए। हमारे यहां की तरह आपाधापी नहीं होने के कारण लगता है सबकुछ ठहरा हुआ है। हमारे यहां किसी छुट्टी या हड़ताल के दिन ही इतनी शांति होती है (या उस दिन भी नहीं होती), इसलिए दिमाग में यह बस गया है कि शांति यानी सबकुछ ठहरा हुआ। आपाधापी, धक्कामुक्की, चिल्लपों – यानी सबकुछ तेज गति से चल रहा है। तेज प्रगति।
30 लाख की आबादी वाले बर्लिन में साइकिल वालों की अच्छी खासी तादाद है। साइकिल चलाने के लिए सड़कों के किनारे ही कॉरीडोर बने हुए हैं। ये सड़क से थोड़ा ऊंचे होते हैं, ताकि गाड़ी उस पर न चढ़ पाए, लेकिन इतने भी ऊंचे भी नहीं कि साइकिल से आसानी से सड़क पर नहीं उतरा जा सके। पहली बार पश्चिम जाने वाले किसी भारतीय के लिए हैरत में डाल देने वाली पहली चीज होती है वहां की यातायात व्यवस्था। सबकुछ इतना व्यवस्थित कि आप दो-तीन घंटे में ही किसी को भी पूछे बिना वहां अकेले घूमने-फिरने लायक हो जाते हैं। एक ही टिकट से आप मेट्रो, बस और ट्राम में यात्रा कर सकते हैं। मेट्रो से उतरकर बस में चढ़ जाएं, आगे बस नहीं जाती हो तो ट्राम में चढ़ जाएं। बार-बार टिकट कटवाने का झंझट नहीं। पूरे दिन का टिकट कटा लें तो फिर दोनों तरफ जितनी इच्छा यात्रा करें। इसी पैटर्न पर सिंगापुर की यातायात व्यवस्था है। इसीलिए उसे पूरब का यूरोपीय शहर कहते हैं। शहर में यातायात के लिए दिन भर के टिकट का 7 यूरो लगता है जबकि महीने भर के पास की कीमत लगभग 80 यूरो है।
भारतीय रुपए में बदलें तो यह 6000 रुपए होता है जोकि हमारे लिए बहुत अधिक है। लेकिन यदि कीमतों का अंतर समझना है तो एक यूरो को 20 से गुणा करना चाहिए, क्योंकि 20 रुपए में हम जितनी सामग्री खरीद पाते हैं उतनी सामग्री की कीमत वहां लगभग 1 यूरो है। इसे परचेजिंग पॉवर पैरिटी कहते हैं। यह किसी शहर में महंगाई के स्तर को जानने के लिए आसान तरीका है। इस तरह शहर में ट्राम-बस-मेट्रो का संयुक्त मासिक टिकट करीब 1600 रूपयों का हुआ। हालांकि पति और पत्नी एक ही पास का इस्तेमाल कर सकते हैं लेकिन फिर भी यह हमारे यहां के लिए बहुत ज्यादा है। क्या इसीलिए हमारे यहां शहरी यातायात व्यवस्था इतने खस्ताहाल में है? क्योंकि व्यवस्था पर जितना खर्च होता है उतना सेवा लेने वालों से वापस नहीं मिलता। अंततः घाटे की भरपाई के लिए सरकार पर निर्भर होना पड़ता है। लेकिन सेवा देने वाली एजेंसी के पक्ष में एक चीज जाती है कि हमारे यहां मेट्रो, बस या ट्रेन किसी भी समय खाली नहीं जाती। इसलिए एजेंसी को लागत की पूरी कीमत वापस मिल जाती है। और खड़े होकर, लटक कर यात्रा करने वाले यात्रियों से मिलने वाले पैसे को अतिरिक्त आय समझ लीजिए। वहां कभी भी किसी ट्राम, बस या मेट्रो में मैंने आधी से ज्यादा सीटें भरी हुई नहीं देखी। ट्रेन का टिकट कटवाते समय आपसे पूछा जाएगा कि क्या आप रिजर्वेशन चाहते हैं। यानी ज्यादातर लोगों को रिजर्वेशन की जरूरत नहीं होती।
मुझे लगा कि आप बर्लिन में आंख मूंदकर भी सड़क पर चल सकते हैं। बस सामने ट्रैफिक की हरी और लाल बत्तियों को देखकर चलते रहिए। किसी भारतीय को शुरू शुरू में अजीब लग सकता है कि दूर-दूर तक कोई गाड़ी नहीं होने के बावजूद पैदल लोग बत्ती के हरी होने का इंतजार करते हैं। बत्ती लाल से हरी होने के बाद ही सड़क पार करते हैं।
म्यूजियमों से भरे बर्लिन में एक म्यूजियम ट्रैफिक की बत्तियों का भी है। ट्रैफिक के सिपाही को वहां एम्पलमैन कहा जाता है। इसलिए इस म्यूजियम का नाम एम्पलमैन्स म्यूजियम है। यहां ट्रैफिक की पुरानी डिजाइन की बत्तियों के अलावा यादगार के लिए संग्रहणीय विभिन्न तरह की सामग्रियों – जैसे कलम, ग्रीटिंग कार्ड, बटुआ, तस्वीरें, टोपियां – को ट्रैफिक की बत्तियों की थीम पर बनाया गया है। सैलानियों के संग्रह के लिए अच्छी चीज है।
एक म्यूजियम का नाम है स्पाई म्यूजियम है। हिटलर और बाद में पूर्वी जर्मनी के कम्यूनिस्ट शासन में चले अत्याचार में खुफिया पुलिस की खास भूमिका रही थी। दरअसल तानाशाही और खुफिया पुलिस का चोली-दामन का साथ है। जहां भी तानाशाही है, राज्यसत्ता का अत्याचार है वहां खुफिया पुलिस की महत्वपूर्ण भूमिका है। दरअसल बर्लिन में घूमते हुए आप तीन चीजों को नहीं भूल सकते। हिटलर के समय यहूदियों पर हुआ अत्याचार, 1989 तक जारी रहा जर्मनी और बर्लिन का विभाजन तथा जर्मनी का लोकतंत्र।
हेकेशर मार्केट में पहले के पूर्वी जर्मनी की साफ छाप दिखाई देती है। यहूदियों पर हुए अत्याचार की याद दिलाने वाला एक म्यूजियम है ओटो वाइट्ज का अंधों का कारखाना वाला म्यूजियम। ओटो वाइट्ज नामक जर्मन ने जूतों के ब्रश बनाने का एक कारखाना खोलकर उसमें अंधे यहूदियों को नियुक्त किया था ताकि उनकी जान बच जाए। हालांकि बाद में सभी यहूदी पकड़ लिए गए और उन्हें मार डाला गया। इस स्थान को एक म्यूजियम में तब्दील कर दिया गया है ताकि उस कहानी की यादगार सुरक्षित रहे। ओटो वाइट्ज स्पीलबर्ग की मशहूर फिल्म शिंडलर्स लिस्ट के शिंडलर का ही लघु संस्करण था। शिंडलर ने कोई दो-ढाई सौ यहूदियों की जान बचाई थी, जबकि ओटो वाइट्ज के कारखाने में करीब दो दर्जन कारीगर ही थे। म्यूजियम में ओटो के साथ सभी कामगारों की तस्वीर भी है। कारखाने के एक कोने में एक कमरा है जिसमें कोई खिड़की या रोशनदान नहीं है। इसमें जाने का दरवाजा एक कपड़ों की आलमारी के पीछे खुलता था। इसमें एक यहूदी परिवार को छुपाकर रखा गया था। हालांकि वह भी अंत में पकड़ा गया था।
इस तरह की मन को द्रवित कर देने वाली कहानियां बर्लिन में बिखरी पड़ी हैं या कहें कि जर्मनों ने उन्हें संजोकर रखा है। कोई अपने इतिहास के कलंकित पन्नों को भी किस तरह संजोकर (लेकिन उन्हें महिमामंडित करके नहीं) रख सकता है इसे जर्मनी से सीखा जा सकता है। बर्लिन की दीवार की याद को ताजा रखने के लिए कहीं-कहीं इस दीवार का एक हिस्सा बिना तोड़े सुरक्षित रख दिया गया है। कहीं-कहीं बीच रास्ते पर कंकड़ों से चिह्न बने हुए दिखाई दे जाएंगे जो यह बताते हैं कि यहां पहले दीवार थी। पेवमेंट पर चलते-चलते मेरा मित्र माइक मुझे अचानक नीचे एक छोटी-सी प्लेट दिखाता है। उस पर जर्मन भाषा में उस यहूदी परिवार का नाम लिखा है जो उस स्थान पर पहले रहा करता था। अब उस परिवार के सदस्यों ने इस्राइल से आकर उस स्थान को खोजा और वहां नीचे पटरी पर ही पुलिस के बिल्ले जितनी बड़ी वह प्लेट फिट कर दी। पता नहीं लोगों की ठोकरें खाकर वह प्लेट कब तक बची रहेगी।
शरणार्थी, भिखारी और हीनता ग्रंथि
जर्मनी में इस समय विमर्श का केंद्र सीरिया का युद्ध है। सीरिया युद्ध इसलिए क्योंकि इसी के कारण वहां से बड़ी संख्या में यूरोप में शरणार्थियों के रेले आने शुरू हो गए हैं। आम बातचीत में शरणार्थी का मुद्दा निकल ही आता है जो यह दर्शाता है यूरोपवासी शरणार्थियों के प्रति अपनी सरकारों की नीति से काफी खफा हैं। एक बातचीत के दौरान जब मैंने कहा कि पासपोर्ट की जांच करने के दौरान अधिकारी ने मुझसे वापसी का टिकट भी मांगा था तो मेरे मित्र ने व्यंग्य करते हुए कहा कि यदि तुम कहते कि मेरा नाम अली है और मैं सीरिया से आया हूं तो फिर किसी भी चीज की जरूरत नहीं पड़ती। पासपोर्ट भी न होने से चल जाता।
जर्मन सरकार ने तुर्की से समझौता किया है कि यदि वह एक शरणार्थी को लेता है तो उसके बदले बाकी यूरोप भी एक शरणार्थी को लेगा। मित्रों ने बताया कि यूरोप का असली मतलब है जर्मनी। यानी ये शरणार्थी जर्मनी छोड़कर और कहीं नहीं जाएंगे। जर्मनी में शरणार्थियों के विरुद्ध प्रदर्शन शुरू हो गए हैं। बर्लिन में इसका कोई प्रभाव दिखाई नहीं दिया। मेरा सैक्सनी राज्य की राजधानी ड्रेसडन जाने का इरादा था लेकिन मित्रों ने बताया कि वहां नहीं जाना ही बेहतर होगा क्योंकि वहां शरणार्थियों के विरुद्ध काफी आक्रोश है और ऐसा न हो कि गोरी चमड़ी को न होने के कारण कहीं मैं भी इसका शिकार हो जाऊं। विदेश में सावधानी बरतना ही ठीक है। मैंने ड्रेसडन न जाकर न्यूरमबर्ग जाने का कार्यक्रम बना लिया।
बर्लिन में शरणार्थी कहीं दिखाई नहीं दिए। किसी-किसी सबवे या फ्लाईओवर पर पूरा का पूरा परिवार बैठा दिखाई दिया। पता नहीं ये लोग कौन थे। भीख के लिए कागज का गिलास का इस्तेमाल करते हैं। लगभग हर परिवार के साथ उनका कुत्ता भी साथ में दिखा। इसी से मैंने अंदाज लगाया कि ये शरणार्थी भी हो सकते हैं। वैसे बर्लिन में जिप्सी भी मेट्रो में भीख मांगते हैं। लेकिन इससे यह छवि नहीं बना लेनी चाहिए कि भारत की तरह वहां बड़ी संख्या में भिखारी हैं। बस थोड़े से भिखारी हैं। स्थानीय यात्री इनसे बचकर रहते हैं क्योंकि पॉकेटमारी जैसे अपराधों के लिए इन्हीं पर संदेह किया जाता है। कोई जिप्सी ट्रेन स्टेशन के बाहर कोई वाद्य यंत्र लेकर बजाता दिखा जाएगा। ट्रेन में भी वाद्य यंत्र बजाकर भीख मांगते हैं। सीधे-सीधे नहीं।
वियेना में वहां का मुख्य महल शोनब्रून स्लॉस देखने के बाद मैं सुहानी धूप में टहलते हुए पैदल ही फुटपाथ पर चल रहा था कि एक चौराहे पर एक भारतीय युवती दिखाई पड़ गई। स्मार्ट-सी चाल से चौराहे ही तरफ आ रही थी, जैसे कहीं जाना है। लगभग ठीकठाक पोशाक में। पैरों में जूते, जैकेट और कंधे पर एक थैला या बैग। मैंने सोचा इनसे बात की जाए क्या, कि यहां क्या काम करती हैं। तब तक चौराहे पर लाल बत्ती हो गई थी। गाड़ियां रुक गईं और मेरे लिए आगे बढ़ने का हरा संकेत आ गया। तब तक मैंने देखा कि वह युवती रुकी हुई कारों से भीख मांगने लगी। हाथ से इशारा करती कि भूख लगी है कुछ खाने के लिए पैसे चाहिए। बस एक दो तीन सेकंड के लिए इंतजार करती फिर अगली गाड़ी की ओर बढ़ जाती। यह युवती कैसे वियेना आई और क्या भीख मांगना ही इसका एकमात्र पेशा है, इन सवालों से ज्यादा यह सवाल मुझे परेशान करने लगा कि इससे हम भारतीयों की इन देशों में क्या छवि बनती होगी। वियेना में दूसरे दिन भी एक चौराहे पर एक दाढ़ी वाला व्यक्ति उसी तरीके से चौराहे पर गाड़ी के चालकों से भीख मांगता दिखा। शरीर से वह भी उस युवती की तरह चुस्त दिखा। पैरों में जूते पहनना वहां के मौसम की मजबूरी है।
जर्मनी से लौटे हमारे एक मित्र ने बताया था कि वहां हम भारतीयों को उतनी अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता। हालांकि मुझे प्रत्यक्ष रूप से कहीं भी रंगभेद का आभास नहीं हुआ। जर्मनी और आस्ट्रिया दोनों ही गैर-अंग्रेजी भाषी देश होने के कारण सार्वजनिक स्थानों पर लिखी हर बात को समझना संभव नहीं होता था और हमें किसी अनजान व्यक्ति की मदद लेनी ही पड़ती थी। ऐसे समय सभी का व्यवहार नम्र और भद्रोचित होता था। उन देशों में ज्यादा समय तक रहने पर क्या मेरी यही धारणा बनी रहती इस प्रश्न का जवाब वहां ज्यादा समय रहकर ही पाया जा सकता था। हो सकता है भारतीयों के कुछ जातीय गुणों के कारण उन्हें संदेह का पात्र बनना पड़ता होगा। एक बार एक एयरपोर्ट में एक पुस्तकों की दुकान पर एक कागज चिपका देखा जिस पर लिखा था कि आप पर कैमरे की नजर है, चोरी करने की कोशिश की तो पकड़े जाएंगे। इस बात के साथ उस पर एक चित्र लगा था जिसमें एक नीग्रो को पुस्तक चोरी करते दिखाया गया था। चोर का उदाहरण देने की जरूरत पड़ते ही उस नोटिस बनाने वाले के दिमाग में नीग्रो की तस्वीर देने का खयाल क्यों आया होगा। सोचने वाली बात है। बर्लिन के एक स्टेशन पर देखा कि टिकट इंस्पेक्टर एक भारतीय के साथ बहस कर रहा था। जल्दी-जल्दी में मैंने जो अंदाज लगाया वह यह था कि भारतीय बिना टिकट के पकड़ा गया है और जुर्माना देने के पहले बहस कर रहा है। मेरे लिए यह उत्सुकता का विषय बन गया था। इसलिए अपनी ट्रेन की ओर दौड़ते-दौड़ते भी मैं उस पर नजर डालते रहा और देखा कि भारतीय पुलिस का नाम सुनने के बाद जुर्माना देने के लिए अपना बटुआ निकाल रहा है।
पता नहीं कैसे गोरों के देश में घूमते-घूमते अनजाने की एक हीनता ग्रंथि धीरे-धीरे किसी अनजाने रास्ते से होकर मेरे अंदर घुस जाती है। तब किसी अजनबी का व्यवहार सामान्य होने पर भी मुझे लगता है यह कहीं मुझे हिकारत की नजर से तो नहीं देख रहा है। किसलिए? हो सकता है मेरी चमड़ी के रंग के कारण। लेकिन चमड़ी के रंग से क्या होता है। देखो ढेर सारे जापानी, कोरियाई, विएतनामी और चीनी लोगों की चमड़ी का रंग भी मेरे ही जैसा है। वे किस तरह सामान्य ढंग से गर्व से मुंह उठाकर चल रहे हैं। मुझे भी दबने की क्या जरूरत है। लेकिन किसी जापानी, कोरियाई, विएतनामी या चीनी को चौराहे पर भीख मांगते तो नहीं देखा। और किसी को बिना टिकट यात्रा कर पकड़े जाते भी नहीं।
प्राहा – ओल्ड इज गोल्ड
अभी-अभी चेक गणराज्य की राजधानी प्राग या प्राहा में उतरा हूं। बस, जिसमें कि किसी विमान से ज्यादा ही सुविधाएं थीं, 3.18 की जगह 3.05 पर ही अपने गंतव्य पर पहुंच गई। उतरते ही एक दलाल आया और मुद्रा बदलने के लिए कान में कह गया। पता लगा कि चेक गणराज्य में क्राउन चलता है। एक यूरो 25 क्राउन के बराबर होता है। जो भी हो, बस अड्डा सूनसान लगा, किसी चर्च जैसा स्थापत्य था। टैक्सी की खोज में चर्च के अंदर गया और सीढ़ियों से नीचे उतरा तो नीचे पूरा एक मार्केट था। दरअसल यह बस अड्डा नहीं रेलवे स्टेशन था। यूरोप में मैंने बस अड्डा कहीं नहीं देखा। बसें रेलवे के साथ तालमेल रखकर चलती हैं। टिकट भी स्टेशन पर मिलता है। टैक्सी वाले ने लिस्ट देखकर कहा 28 यूरो लगेंगे। मैंने कहा क्यों भई पिछली बार तो कम लिए थे। एक दूसरे ड्राइवर ने जो ज्यादा अच्छी अंग्रेजी जानता था कहा नहीं फिक्स रेट है। मैं मान गया तो एक टैक्सी वाले ने बैग अपनी टैक्सी में डाल ली। बैठने पर कहा 28 यूरो। मैंने कहा ठीक है। उसने कहा निकालो। मैंने कहा एडवांस।..हां। …ठीक है ले लो। जो भी हो होटल पहुंच गया। होटल में भी एडवांस पेमेंट का रिवाज है।
चेक लोग ऊंची कदकाठी के होते हैं। काफी लंबे। समझ लीजिए गोरे पठान। हमारी फिल्मों में किसी गोरे कप्तान या अफसर का रोल करने के लिए यहां से से किसी ड्राइवर को ले जाना बुरा खय़ाल नहीं होगा। होटल अच्छा है, लेकिन यहां वैसे नहीं है कि कोई बेयरा आपका सामान लेकर आपके कमरे में पहुंचा देगा। इतने लोग नहीं हैं इनके पास।
जर्मनी में मुख्य स्टेशन को हाफ्टबानहॉफ कहते हैं, चेक भाषा में भी एक नाम है अभी याद नहीं आ रहा। चेक भाषा में क्या कहते हैं याद रखना पड़ता है क्योंकि तभी आप उस ट्राम स्टॉप पर उतर पाएंगे जहां रेल स्टेशन है। ट्राम में सिर्फ चेक भाषा में सभी नाम आते हैं और घोषणाएं आती हैं। यूरोप में भाषाओं का बड़ा गड़बड़झाला है। स्टेशन पर चेक और जर्मन भाषा तो काफी है लेकिन अंग्रेजी बस कहीं-कहीं। जर्मनी में काम चलाने के लिए सीखा कि प्लेटफॉर्म को क्या कहते हैं, ट्रेन नेम को क्या कहते हैं यहां चेक गणराज्य में अब फिर से सीखना पड़ रहा है। अंत में इन्फॉर्मेशन में जाकर पुष्टि भी कर ली कि मैंने ठीक ही समझा है न। उन्होंने बताया कि 20 मिनट पहले प्लेटफॉर्म की घोषणा होगी। स्टेशन कम से कम चार मंजिलों वाला है। सभी मंजिलें नीचे की ओर है। बर्लिन में भी ऐसा था। किसी एयरपोर्ट से भी बढ़कर।
प्राहा में अंग्रेजी बोलने वाले युवा बड़ी संख्या में दिखाई पड़े। आसपास के लोग तो जर्मन बोल लेते हैं और शायद बाकी के बाहर के लोगों को अंग्रेजी में ही बात करनी पड़ती होगी। जर्मनी में ऐसा नहीं था। हालांकि यहां और वहां लगभग सभी लोग अंग्रेजी बोल और समझ लेते हैं।
किसी ने ठीक ही कहा था कि यूरोप में हम भारतीयों के लिए लघुशंका बड़ी समस्या हो जाती है। यहां कहीं भी आलिंगनबद्ध, चुंबन लेते हुए जोड़े दिख जाएंगे लेकिन लघुशंका के लिए पेशाबघऱ या उसका संकेत नहीं दिखाई देता। हैं भी बहुत कम। होटल में पानी पीते समय ही सोचा था कि आगे मुश्किल होगी। हुई भी। स्टेशन की चार मंजिलों पर बहुत खोजने के बाद एक आलीशान यूरीनल दिखाई दिया। वहां ऑटोमेटिक मशीन में एक यूरो का सिक्का डालने पर आगे जाने का रास्ता खुलता है। अमूमन जर्मनी और प्राहा में पचास सेंट लगते हैं। यहां सार्वजनिक स्थानों पर जीवित व्यक्ति का मूर्ति की तरह बनकर खड़ा होना या बैठना एक आर्ट है। मैंने ऐसी ही एक मूर्ति के साथ फोटो खिंचवाई।
चेक गणराज्य में कम्युनिस्ट शासन की छाप तीन चीजों में आज भी दिखाई देती है – एक, ट्राम के किराए में तरह-तरह की छूट में। जैसे गर्भवती महिला के लिए या बुजुर्गों के लिए किराया कम है। इसी तरह छूट की कई श्रेणियां हैं। जर्मनी में ऐसा कुछ नहीं था। इससे ऑटोमैटिक टिकट मशीन पर लिखावट काफी उलझाव वाली हो जाती है क्योंकि बटन के पास छोटे से स्थान पर कई तरह का किराया जैसे-तैसे ठूस-ठास कर लिखा रहता है। दो, वहां मुख्य चौराहे का नाम अब भी रिवोल्यूशनस्का नामेस्ती है। नामेस्ती चेक भाषा में चौराहे को कहते हैं। नए प्रशासन की तारीफ की जानी चाहिए कि उसने इस चौराहे का नाम बदलने के बारे में नहीं सोचा। तीन, कहीं-कहीं अब भी रूसी भाषा में लिखावट दिखाई दे जाती है। उसे बदला नहीं गया है। कम्युनिस्ट शासन के खात्मे के बाद रूसी यहां से चले गए थे। लेकिन करीब दो दशकों बाद वे फिर से प्राग और चेक गणराज्य में अच्छे अवसरों की तलाश में आने लगे हैं। प्राग और इसके आसपास रूसी स्कूल, अखबार और व्यापार फल-फूल रहे हैं। दरअसल रूसियों की संख्या सिर्फ चेक गणराज्य में ही नहीं पूर्वी यूरोप के बलगारिया, स्लोवाकिया, लाटविया, एस्टोनिया जैसे देशों में दिन पर दिन बढ़ रही है। प्राग में पढ़ने वाली वलेरिया नाम की उस होटल प्रबंधन की छात्रा के वाकये में रूस की सच्चाई साफ झलकती है। हमारे यहां से जब कोई बाहर पढ़ने जाता है तो माता-पिता कहते हैं बेटा जल्दी वापस आ जाना। लेकिन जब वलेरिया रूस के साइबेरिया से प्राग के लिए रवाना हो रही थी तो उसके माता-पिता ने उससे कहा था – बेटी वापस मत लौटना। यूरोपियन संघ का सदस्य होने के कारण चेक गणराज्य में एक तरह की गतिशीलता तो है ही।
प्राग यूरोप का काफी पुराना शहर है। इसके दो भाग हैं एक पुराना शहर और दूसरा नया शहर। मजेदार बात यह है कि जो नया शहर है वह भी 14वीं शताब्दी का बना हुआ है। पुराना शहर इससे और एक सदी पुराना है। जब गाइड कहती है कि यह पब है जो डेढ़ सौ साल पुराना है और प्राग के सभी कलाकार यहां बीयर पीने आया करते थे और आज भी आते हैं तो प्राग की ऐतिहासिकता हमारी आंखों को चकाचौंध कर देती है। लेकिन पुराना कहते ही पुरानी दिल्ली की तस्वीर मन में लाने की जरूरत नहीं जहां पुरानी हवेलियां टूट रही हैं और गलियां संकरी हैं। निःसंदेह प्राग में सड़कें आज के शहरों जैसी चौड़ी नहीं हैं लेकिन फिर भी उन्हें गली नहीं कहा जा सकता। चेक लोगों ने अपने शहर को संजोकर रखा है।
चार घंटे यूरोपीय ट्रेन में
ट्रेन छूटने के समय से पांच मिनट पहले आई और समय पर छूट गई। आने और जाने के समय कोई ईंजन की सीटी की आवाज नहीं। पश्चिम में आवाज से काफी परहेज किया जाता है। इस ट्रेन को दो कंपनियां सीडी (चेस्के ड्राही) और ओबीबी (यह विएना की है) मिलकर चलाती हैं। ट्रेन अपने नंबर से जानी जाती है। इस ट्रेन का नाम 75 है। कौन सा फर्स्ट क्लास, कौन सा सेकेंड क्लास और कौन सा रेस्तरां सब पहले से फिक्स है। मेरी सीट के ऊपर नंबर के साथ स्क्रीन पर लिखा है यह प्राग से विएना के लिए है। दूसरे यात्रियों की तरह मैंने भी अपनी जैकेट उतारकर खूंटी पर टांग दी। सीट के नीचे ही छोटा कूड़ा गिराने का स्थान है। पैर से उसे खोलना पड़ता है। बड़ा कूड़ा टॉयलेट के पास के कूड़ेदान में गिराया जा सकता है। आधी सीटें खाली हैं। परसों जिस बस में न्यूरमबर्ग से प्राहा या प्राग आया था उसमें लगभग 100 की क्षमता थी लेकिन यात्री दस ही थे।
डर था कि शायद कंडक्टर क्रेडिट कार्ड मांगेगी जो कि बर्लिन में खो गया। लेकिन उसने केवल पासपोर्ट मांगा। इस ट्रेन में क्रेडिट कार्ड की जरूरत नहीं होती। बर्लिन से न्यूरमबर्ग आते समय क्रेडिट कार्ड मांगा था (वह जर्मनी की राजकीय कंपनी डीबी थी)। वे लोग पासपोर्ट को नहीं मानते। यह उनका नियम है। ऑनलाइन टिकट पर ही साफ लिखा था। मैंने कहा कि मुझे पता है, लेकिन अब खो गया तो क्या करेंगे, मैं तो आपके इनफॉर्मेशन पर पूछकर चढ़ा हूं। कंडक्टर समझी नहीं। पास बैठी युवती ने जर्मन में बताया तो समझी और मान गई। बर्लिन से न्यूरेमबर्ग के बीच तीन कंडक्टरों ने टिकट चेक किया था। सभी किसी एयरहोस्टेस की तरह नम्र व्यवहार वाली थीं। हाथ में पकड़ी मशीन से टिकट का बारकोड स्कैन कर लेती थीं, लेकिन बार-बार नहीं।
यह फर्स्ट क्लास है। फर्स्ट क्लास में आधे लीटर की पानी की बोतल और अखबार फ्री मिलता है। अंग्रेजी अखबार इनके पास नहीं है। वाई-फाई भी नहीं है हालांकि दूसरी ट्रेनों में है। कहते हैं इसमें भी हो जाएगा। कुछ सीटें उन यात्रियों के लिए हैं जो 10 साल से नीचे के बच्चों के साथ यात्रा कर रहे होते हैं। ये सीटें हमेशा के लिए निश्चित हैं। वहां उनके खेलने के लिए एक गेम दिया जाता है और साथ में खेल के नियम भी। बच्चों के लिए सिनेमा का प्रावधान भी है। अक्षम यात्रियों के लिए व्हीलचेयर ले जाने लायक अलग से सीट बना दी जाती है। फर्स्ट क्लास में एक बिजनेस क्लास भी है जिसमें एक पेय और पचास क्राउन (2 यूरो) का कूपन दिया जाता है, जो इच्छा हो मंगा लो। पांव के लिए ज्यादा स्पेस। ट्रेन 155 की गति से चल रही है। सामने स्क्रीन पर सबकुछ आता रहता है, आप किस ट्रेन में किस वैगन में बैठे हैं, ट्रेन की गति, आने वाले स्टेशन (स्टेशनों) का समय और नाम। बाहर आज धूप निकली है। शायद फोटोग्राफी अच्छी कर पाना संभव हो। आप ट्रेन में साइकिल भी ले जा सकते हैं। साइकिल और प्राम रखने के लिए प्रावधान हैं।
रेस्तरां के स्टाफ आर्डर लेने आते हैं और आप खाने के सामान का मेनू देखकर आर्डर दे सकते हैं। यानी हवाई यात्रा की तरह। ट्रेन में एक-दो डिब्बे शांत डिब्बे होते हैं उसमें बैठने वालों को अपने मोबाइल को स्विच ऑफ करना पड़ता है, फोन करने या रिसीव करने से परहेज करना पड़ता है, म्यूजिक नहीं बजा सकते हेड फोन लगाकर भी और बातें धीमी आवाज में करनी होती है। वैसे भी यहां हर कोई धीमी आवाज में ही बातें करता है।
बाहर सरसों के खेत हैं और फूल खिले हुए हैं। क्रिसमस ट्री बहुतायत में उगे हुए हैं जिन्हें हमारे यहां काफी प्रीमियम दिया जाता है। कहीं भी मनुष्य या अन्य कोई भी जीव जंतु दिखाई नहीं देता। पास बैठी कैलिफोर्निया की महिला ने कहा कि उसे यात्रा में दिक्कत होती है, कोई खाली सीट हो तो बताना। वह शायद सोएगी। होस्ट (वेटर) ने कहा कि मैं देखकर बताता हूं। थोड़ी देर बाद महिला अपने पति के साथ दूसरी किसी सीट पर चली गई।
11.47 बज गए और पहला स्टेशन पार्डुबाइस आ गया। यह कोई औद्योगिक शहर लगता है। छोटा-सा। प्राग की आबादी 12 लाख है। अभी चेक गणराज्य ही चल रहा है। क्योंकि स्टेशन के लिए हालविना नाडराजी लिखा हुआ आ रहा है।
गार्ड ने हल्की सी सीटी बजाई, ऑटोमैटिक दरवाजे बंद होने का पीं-पीं पीं-पीं संकेत हुआ और गाड़ी 11.49 पर चल पड़ी। प्लेटफॉर्म खाली पड़े हैं। बाहर धूप निकल आई है। अगला स्टेशन 12.22 पर सेस्का ट्रेबोवा है। बाहर का दृश्य उबाने वाला है। खेत दिख रहे हैं लेकिन खेतिहर कहीं नहीं। गति वही 160। रास्ते के स्टेशनों पर कोई झंडी दिखाने वाला नहीं खड़ा रहता। दरअसल कोई नहीं रहता, न स्टाफ, न यात्री। हरियाली लगभग आ गई है। लेकिन कहीं भी फूल वाले वृक्ष नहीं हैं। हां कुछ छोटे वृक्ष हैं सफेद फूलों वाले। वनस्पति की विभिन्नता हमारे यहां की तरह नहीं दिखाई देती। असम में तो इस समय लाल गुलमोहर और बैंगनी रंग के एजार फूल, और पीले अमलतास के फूल खिल गए होंगे। यहां लाल रंग को मिस कर रहा हूं। कुछ दिन रहना पड़ जाए तो नजारा काफी उबाऊ हो जाएगा। कुछ खेत जुते हुए हैं, बुवाई के लिए तैयार। कुछ में छोटी पौध उग आई है।
यहां शहर के पार्कों में भी छोटी दूब या घास के बीच सुंदर पीले-पीले फूल उगे हुए होते हैं। कोई घास पर नहीं चलता इसलिए वे बने रहते हैं। …वाह, अब तक की यात्रा में जंतु के नाम पर अभी-अभी कुछ बकरियां चरती हुई दिखाई दीं। लेकिन चार-पांच ही। यह किसी गांव या कस्बे को पार कर रहे हैं लेकिन कहीं इंसान नाम का जीव दिखाई नहीं दिया। पहली बार एक रेलवे फाटक दिखाई दिया जो ट्रेन के आने से पहले अपने-आप बंद हो जाता है। छोटे से गांव के सर्विस रोड के लिए यह काफी है।
रेलवे ट्रैक थोड़ी देर के लिए एक छोटी-सी नदी के साथ-साथ गुजर रही है। एक और चीज यहां आपको नहीं मिलेगी वह है बिखरा हुआ प्लास्टिक। शहरों में सिगरेट के टुकड़े हर कहीं बिखरे मिल जाते हैं, क्योंकि सिगरेट पीने के बाद कूड़ेदान में गिराना मना है। कोई नहीं गिराता। कल रास्ते किनारे की एक दुकान में बर्गर खाने के बाद एक अन्य व्यक्ति (शायद अरब या तुर्क) ने बड़ी तत्परता से कहा यहां – यहां। यानी इस कूड़ेदान में कागज गिरा दें। क्या मेरे भारतीय होने के कारण उसे डर था कि मैं नीचे ही गिरा दूंगा। उसने मुझे न-मस्ते भी कहा। मैंने कुछ नहीं कहा था, शायद किसी शो का दलाल होगा। हमारे यहां हम किसी अनजान व्यक्ति के साथ ज्यादा बात नहीं करते। यहां किसी अनजान व्यक्ति से आंखें मिलाते ही – जैसे होटल की रिसेप्शनिस्ट, या लिफ्ट में पहले से आ रहा कोई व्यक्ति, या रेस्तरां में आपकी मेज पर पहले से बैठा हुआ कोई ग्राहक – गर्मजोशी के साथ मुस्कुराकर हलो कहते हैं। ऐसा नहीं करना अच्छा नहीं माना जाता।
एक स्टेशन पार हुआ है, दूर स्टेशन के पास तीन चार लोग दिखाई दिए और एक महिला प्राम पर अपने बच्चे को ले जा रही है।
हमारे लोगों को आश्चर्य होगा कि आदमी कहां छिपे रहते हैं। न्यूरमबर्ग के उपनगर न्यूरमबर्ग स्टाइन, जहां मैं ठहरा था, में जब रात आठ-नौ बजे बाहर का नजारा लेने के लिए निकला तो सचमुच एक भी आदमी दिखाई नहीं दिया। मैं एक तरह से घबराकर वापस अपने फ्लैट में लौट आया। उपनगर में एक इटालवी रेस्तरां ला कुलटुरा दिखाई दिया था, जिसके बारे में मेरी होस्ट ने बता दिया था कि वह महंगा होगा। ठंड में अकेले घूमना और रास्ता भटक जाएं तो पूछने के लिए कोई नहीं, सचमुच घबराहट होती है। लो 12.23 हो गए और चेस्का ट्रेबोवा आ गया। गाड़ी एक मिनट विलंब से आई है। और 12.24 पर चल पड़ी। अगला स्टेशन ब्रनो 1.22 पर है। बाहर प्लास्टिक का कूड़ा गिराने की जगह दिखाई दी है। तीन-चार मशीनें उस पर काम कर रही हैं। पता नहीं क्या काम।
यह कोई अच्छा-खासा शहर पार हो रहा है। एक हाइपरमार्केट पार हुआ है। शहर के बाहर गांव शुरू होता है। खेतीबाड़ी की मशीनें हर घर के बाहर पड़ी दिखाई दे रही हैं। हर घर के साथ छोटी-सी बगीची है जिसमें शायद सब्जी उगाते होंगे। सर्दी से बचाने के लिए और एक खास तापमान पर रखने के लिए ग्रीन हाउस जैसा बनाया रहता है। जैसे हमारे यहां ठंडक बनाए रखने के लिए कोई-कोई ऐसा करता है। पटरी के साथ-साथ एक मानव निर्मित छोटी सी नहर चल रही है।
अच्छी धूप निकल आई है। मैंने थोड़ी फोटोग्राफी कर ली।
एक और रेलवे फाटक पार हुआ। छोटे से शहर के बीच। यानी यहां भी रेलवे फाटक हैं। मेरे एक मित्र ने बताया था कि यहां रेलवे फाटक नहीं होते। हालांकि सभी स्वचालित हैं। अरे हां, पार हो रहे स्टेशन के बाहर लाल टोपी पहने स्टेशन का कर्मचारी दिखाई दिया है। उसने शायद सबकुछ ठीक होने का सिगनल दिया होगा। लेकिन हाथ में झंडी-वंडी नहीं थी। हमारी बोगी अंतिम है इसलिए दिखाई नहीं देता कि वह क्या करता है। वह बस वापस अंदर जाता हुआ दिखाई देता है।
ब्रनो भी आखिर 1.23 पर आ ही गया। यह स्टेशन काफी पुराना और साधारण है। कम से कम बाहर से तो हमारे यहां के जैसा ही। स्टेशन का मकान भी जराजीर्ण है। बाहर शहर में नई शैली की बहुमंजिला इमारते हैं। पारंपरिक शैली की टेराकोटा टाइल्स की तिकोनी छत वाले मकान यहां गायब हो गए।
सबलोग शांत बैठे हैं। पास वाले दंपति धीमी आवाज में बात कर रहे हैं और पुस्तक पढ़ रहे हैं। आगे की सीट पर कोरियाई बच्चे कलम कागज से पहेली पूरी करने में व्यस्त हैं। एक बच्ची डायरी लिख रही है। बाहर कोई दिलचस्प दृश्य दिखाई नहीं दे रहा। न ही कोई आदमी। यदि कॉफी का ऑर्डर देता हूं तो तीन-चार यूरो खर्च हो जाएंगे। विएना आने में पूरे दो घंटे बाकी हैं। इससे अच्छा है मैं भी थोड़ा सो लेता हूं।
संगीत का शहर विएना
हर यूरोपीय शहर की तरह विएना में भी ट्राम और ट्रेन का जाल बिछा है। दूसरे शहरों की तरह यहां भी एक ही टिकट से आप ट्राम, ट्रेन, सबवे और बस में यात्रा कर सकते हैं। शोनब्रुन पैलेस ही यहां देखने लायक है, जैसे दिल्ली में लाल किला। यह भी हैब्सबर्ग साम्राज्य के सम्राटों की आरामगाह था। यहां यह रिवाज है कि आरामगाह के तौर पर जो महल बनवाए जाते थे उनमें एक गार्डेन और यह चिड़ियाखाना (टियरगार्टन) भी होता था। शूनब्रुन में भी चिड़ियाखाना है जिसे देखने के लिए टिकट है।
विएना खुला-खुला है। प्राग ही तरह बंद-बंद नहीं। वैसे भी धूप निकलने के कारण सबकुछ ज्यादा अच्छा लग रहा है। पता नहीं क्यों यहां जापानी सैलानियों की भरमार है।
बिग बस के बारे में पहले नहीं सुना था। यह कई पर्यटन के लिए प्रसिद्ध शहरों में चलती है। इसमें आप जहां चाहे उतर जाएं और फिर घूमघाम कर अगली बिग बस में चढ़ जाएं। साथ में कई भाषाओं (हिंदी सहित) वाला ऑडियो गाइड दिया जाता है जिसे कान से लगाने पर आपको सारा विवरण मिलता रहता है।
विएना कला का शहर है। संगीत सम्राट बीथोवन और मोजार्ट यहीं के थे। मनोविज्ञान को अपने सिद्धांतों से उलट-पलट कर देने वाले फ्रायड भी वियेना के ही थे। शहर म्यूजियमों से भरा है। सड़कों पर निश्चित स्थान पर पोस्टर लगे हैं, ऑपेरा और थियेटर के होने वाले शो के। पैलेस में भी एक थियेटर है जिसमें शाम को शो होने वाला है। गार्डेन में कला के अनुपम नमूनों के रूप में मूर्तियां भरी पड़ी हैं। ये मूर्तियां ग्रीक मिथक, इतिहास और संस्कृति पर आधारित हैं। इनमें होमर के महाकाव्य इलियाड, ओडिसी आदि की कहानियां शामिल हैं। ब्रुटस की भी एक मूर्ति लगी है जिसमें एक हाथ में वह लुक्रेशिया को थामे हुए है। शेक्सपीयर की रचना रेप आफ लुक्रेश में यह प्रकरण आता है। ईशा से 500 साल पहले की इस कहानी में प्रकरण है कि लुक्रेशिया का रोम के राजा के पुत्र सेक्सटस ने बलात्कार कर लिया था। लुक्रेशिया ने इसके बारे में अपने पति को बताकर छूरे से आत्महत्या कर ली। बाद में इसी घटना को केंद्रित करते हुए राजा के विरुद्ध विद्रोह हुआ और तख्तापलट हो गया। एक मूर्ति कृषि, विवाह और मृत्यु की देवी सेरिस की है। यह पुनरुत्पादन या उपजाऊपन का प्रतिनिधित्व करती है। पुनरुत्पादन की पूजा करने का हमारी संस्कृति में भी रिवाज है। कुल मिलाकर इस बगीचे में आप एक-एक मूर्ति के पीछे के इतिहास में जाएं तो यूनानी सभ्यता, संस्कृति और परंपरा के बारे में आपको अच्छी जानकारी हो जाएगी।
सड़कों के किनारे भी सुंदर लाल और पीले ट्यूलिप खिले हुए हैं। इन्हें देखकर हमारे यहां के एक सज्जन की याद आती है जो सुबह-सुबह उचक-उचक कर फूल तोड़ते हैं और इस बात को सुनिश्चित करते हैं कि अंतिम फूल भी तोड़ लिया जाए। पता नहीं फूल का जन्म पूजा में चढ़ने के लिए हुआ है या भंवरों को आकर्षित करने के लिए।
गुवाहाटी के पत्रकार Binod Ringania से संपर्क +919864072186 या [email protected] के जरिए किया जा सकता है.
NEERAJ
July 24, 2016 at 2:53 pm
bahut achha