-विमल मिश्र-
‘ब्ल्यू स्टार’ कांड हुआ ही था और बिहार की किसी सैनिक छावनी, शायद रांची से सेना के कुछ सिख भगोड़े जवान विद्रोह कर भाग खड़े हुए थे और बनारस के रास्ते में थे। रात के दो बज रहे थे और कबीरचौरा स्थित ‘आज’ के मुख्यालय में हमारी सारी चेतना और एकाग्रता का केंद्र बने सामने बैठे थे खुद शार्दूल विक्रम गुप्त – देर रात के एडिशन के लिए, दूसरे जगहों के सूत्रों से पल-पल की खबर खुद लेते। उन्हें घेरे हुए थे हम – कुछ रिपोर्टर और सब-एडिटर्स। पत्रकार और पत्रमालिकों के बीच दूरियों की खबरें जब आम हैं उस वक्त के सबसे संवेदनशील घटनाक्रम की कवरेज के लिए अखबार के नेतृत्व का सूत्र एक ऐसे व्यक्ति द्वारा खुद संभालने की यह घटना आज तक जेहन में मिसाल की तरह जिंदा है, जो उस अखबार का सिर्फ प्रधान संपादक ही नहीं था, उसका मालिक भी था।
बनारस ‘आज’ में पांच वर्ष के कार्यकाल के दौरान ऐसे अनुभव कई बार हुए। आज जब समाचार पत्र मालिक और पत्रकारों में सीधा संवाद दुर्लभ हो गया है भैयाजी (शार्दूल जी) से जब भी मिला उन्हें हाथ जोड़कर बात करके ही पाया। पांच वर्ष के कार्यकाल में बड़े भैया जी (स्वर्गीय सत्येंद्र कुमार गुप्त) से बहुत कम ही सामना हुआ, पर उनका श्वेतवसन भव्य-दिव्य व्यक्तित्व हमेशा आकर्षित करता रहा। ‘आज’ आज अपने-आप में पत्रकारिता का विश्वविद्यालय है, जिसने मुझे पढ़ने और सीखने का अवसर दिया। पर खुद को मैं इस लिहाज से ज्यादा भाग्यशाली मानता हूं कि मुझे वहां पत्रकारिता के अपने समय के दिग्गजों के साथ काम करने का अवसर भी मिला। अपनी एक दृष्टि से बांध लेने वाले संपादक संत व्यक्तित्व विद्याभास्कर जी, जिनके विशेषज्ञ लेख पढ़कर कभी उन जैसा बन पाने की लालसा किसी भी पत्रकार के भी मन में सहसा ही उत्पन्न हो जाए। संपादक-प्रवर पराडकर जी के साथ रहकर उनके समय से ही टिप्पणी लेखन करने लगे और ‘संपादक पराडकर’ सहित कितनी ही पुस्तकों के लेखक पं. लक्ष्मीशंकर व्यास जी, जो पत्रकारिता को साहित्य से कतई अलग नहीं मानते थे। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय विषयों पर अपने तेवर वाले अपने लेखों और स्तंभों के लिए जाने जाने वाले इंगलैंड और अमेरिका में पत्रकारिता का प्रशिक्षण लेने वाले समाचार संपादक चंद्रकुमार जी …।
डेस्क के दूसरे साथी भी कैसे-कैसे। भाषा पर अद्भुत पकड़ रखने वाले शांत स्वभावी बुजुर्ग शिवप्रसाद श्रीवास्तव, जिन्होंने कई बार अखबार को एडिशन फेल होने के संकट से बचाया था और जिनकी योग्यता और उपयोगिता देखते हुए मालिकों ने आग्रह करके उन्हें रिटायर होने की ‘आजादी’ नहीं दी थी। विद्वता के साथ विनय की मूर्ति नवलकिशोर राय, जिन्हें स्वयं पराडकर जी ने नियुक्त किया था। न्यूज के साथ साहित्य और संगीत में भी पैठ रखने वाले विश्वनाथ सिंह दद्दू, जिन्होंने उस्ताद बिस्मिल्ला खान का पहला प्रकाशित इंटरव्यू किया था। रत्नशंकर व्यास, हरिवंश तिवारी, डॉ. धीरेंद्र सिंह, नावड़ जी और डा. दयानंद सरीखे न्यूज टेबल के दूसरे साथी, जिन्होंने कलम पकड़कर लिखना सिखाया। ‘अवकाश’ मैगजीन को राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका बना देने वाले डॉ. राममोहन पाठक, कृपाशंकर जी, घोषाल बाबू – जिन्होंने मुझे स्तंभ दिए और विशेष लेख लिखवाए। बगल की टेबलों पर काम करने वाले गोपेश जी, विनय जी, सुशील त्रिपाठी, एल. वी. के. दास, शुभाकर जी, कृष्णदेव नारायण राय और विश्वनाथ गोकर्ण जैसे विद्वान साथी। और मेरे समकालीन शशि शेखर और अजय उपाध्याय, जो बाद में दिल्ली में राष्ट्रीय अखबार के प्रधान संपादक हुए।
हिंदी पत्रकारिता का पर्याय
हिंदी प्रदेशों में सबसे पहले समाचार पत्रों का प्रकाशन बनारस की ही देन है। और बनारस में भी एक शब्द में आधुनिक हिंदी पत्रकारिता का पर्याय बताना हो तो निःसंदेह ‘आज’ के सिवा दूसरा कोई नाम हो नहीं सकता। आज जो ‘बनारस स्कूल ऑफ जर्नलिज्म’ कहलाता है ‘आज’ का ही को प्रतिष्ठित किया हुआ है और ‘आज’ की वजह से ही बनारस हिंदी पत्रकारिता का गढ़ बना है। इस स्कूल से पढ़ा ‘आज’ की अपनी विरासत उसी तरह कभी भूल नहीं सकता, जैसे मैं खुद नहीं भूला। आज भी याद है ‘नवभारत टाइम्स’ में मुंबई आने पर बार-बार और बात-बात में यह कहकर याद दिलाना कि ‘आज’ में इस शब्द को ऐसा लिखते थे, उसे वैसा। लिखने में ‘लोकतंत्र’, ‘स्वराज्य’, ‘राष्ट्रपति’, ‘श्री’, ‘सर्वश्री’, ‘अंतरराष्ट्रीय’, ‘अंतरिम’, ‘नौकरशाही’, ‘वातावरण’, ‘वायुमंडल’, ‘कार्रवाई’ जैसे शब्द आने पर मैने साथियों को कितनी ही बार गर्व से यह बताया है कि ये शब्द हिंदी भाषा को ‘आज’ अखबार और उसके संपादक पराडकर जी ने दिए हैं। मुझे लगता है यही अनुभव ‘आज’ परिवार से मेरे अनेकों साथियों का भी रहा होगा, जिन्होंने देश भर के अखबारों में ‘आज’ की इस संस्कृति को फैलाया है।
‘आज’ केवल अखबार नहीं है, एक मंदिर है। याद नहीं है मुंबई जाने के बाद बनारस आया हूं और अखबार के दफ्तर के साथ कभी काशी विद्यापीठ परिसर ‘भारत माता मंदिर’ दर्शन करने नहीं गया, जिसका उद्घाटन महात्मा गांधी ने किया और जो ‘आज’ की ही तरह बाबू शिवप्रसाद गुप्त के ही पुण्य-प्रताप की देन है। इस मंदिर को बनवाने का विचार बाबूजी को पुणे में समाज सुधारक धोंडू केशव कर्वे के आश्रम में भूमि पर बने एक मानचित्र को देखकर आया था। काशी लौटते ही उन्होंने उस समय के विख्यात इंजिनियर दुर्गा प्रसाद को उसके निर्माण की जिम्मेदारी सौंपी और काम में जुट गए। पांच वर्ष तक चले मंदिर के निर्माणकार्य के दौरान अंग्रेजों ने तरह-तरह के अवरोध पैदा किए। इससे कई बार जहां यह कार्य रुका, वहीं इसे लुक-छिपकर भी करना पड़ा। कइयों को इस दुस्साहस के लिए जेल भी जाना पड़ा। बाद में हरिद्वार और कुछ अन्य जगहों पर भी भारत माता मंदिर बने, पर इनमें कोई भी विचार, इतिहास और स्थापत्य की दृष्टि से काशी के ‘भारत माता मंदिर’ के आस-पास भी नहीं है।
हिंदी को 200 के ज्यादा शब्द और अनूठी शैली देने वाले बाबूराव विष्णु पराडकर आज भी निर्विवाद रूप से पुरानी हिंदी पत्रकारिता का शिखर नाम हैं। उनकी संपादकत्व में ‘आज’ ने दशकों तक लोगों को उसी तरह हिंदी सिखाई, जैसी उनके पूर्ववर्ती पत्रकारों देवकीनंदन खत्री और दुर्गाप्रसाद खत्री ने ‘चंद्रकांता’ और ‘भूतनाथ’ पढ़ने के लिए सिखाई थी। पराडकर जी ने ‘आज’ को अपने समय का सर्वश्रेष्ठ दैनिक बना दिया था। उनके राजनीतिक और आर्थिक लेख अंग्रेजीदां लोग भी पढ़ते थे। ‘आज’ ने हिंदी भाषा को नई वर्तनी और नए शब्द ही नहीं दिए, वाक्य विन्यास, क्रियाओं, शब्द प्रयोग, वचन व लिंग, मुहावरों और लिपि संबंधी दोषों को दूर किया और उसे नया स्वरूप, नई दिशा, नई गति और अलग शैली दी। हिंदी भाषा व साहित्य के संवर्धन और देश की आजादी में बनारस से उपजी मूल्य और सिद्धांतपरक पत्रकारिता की परंपरा का बड़ा योगदान है और उसमें भी ‘आज’ का सबसे ज्यादा। नए-नए स्तंभ, मेकअप में नए प्रयोग और विवादित विषयों पर भी साहसिक लेख -‘आज’ की लोकप्रियता की कोई एक वजह नहीं थी। उस जमाने में हिंदी पत्रों में टेलिप्रिंटर सेवा लेने वालों में भी ‘आज’ पहला था और अकेला ऐसा हिंदी संस्थान, जिसने ‘टुडे’ नामसे अंग्रेजी दैनिक (संपादक डॉ. संपूर्णानंद) का भी प्रकाशन किया। वस्तुतः हिंदी की जितनी सेवा इस अखबार ने की, उतनी किसी प्रमुख हिंदी संस्था ने भी नहीं की होगी। हिंदी को सर्वमान्य बनाने के लिए प्रयास करने वालों में गांधीजी के साथ पराडकर जी का नाम पहली पंक्ति में आता है, जिन्होंने लिखा भी है, ‘राष्ट्रभाषा सबकी है, केवल हिंदीभाषियों की नहीं। अतः इसके विकास के लिए प्रादेशिक भाषाओं से उत्तमोत्तम शब्द और मुहावरे हिंदी में समाहित किए जाने चाहिए।’ उन्हें ‘आज’ में लाने वाले बाबू शिवप्रसाद गुप्त ने काशी विद्यापीठ व भारतमाता मंदिर, ‘आज’, ‘रणभेरी’, ‘मर्यादा’, ‘स्वार्थ’, ‘खबर’ व ‘संसार’ जैसे पत्रों, ‘ज्ञानमंडल’ जैसे प्रकाशन संस्थान और हरदेव ‘बाहरी’ के शब्दकोशों से हिंदी जगत को जैसा योगदान दिया उसकी मिसाल कम ही मिलती है।
ऊंचे आदर्श और मानक
कौन सा ऐसा शीर्ष हिंदी अखबार होगा, जिसका सर्वोच्च संपादकीय आसन गैर-हिंदी भाषी संभाले! पराडकरजी और उनके बाद भी रामकृष्ण रघुनाथ खाडिलकर, रामचंद्र नरहरि बापट और विद्याभास्करजी सरीखे मराठीभाषी और दक्षिण भारतीय हिंदी विद्वानों को उच्च संपादकीय पदों से विभूषित करके ‘आज’ ने नए प्रतिमान स्थापित किए। काशी की हिंदी पत्रकारिता का कोई भी इतिहास इन अहिंदीभाषी पत्रकारों के अमूल्य योगदान की चर्चा के बिना पूरा नहीं हो सकता। परतंत्र भारत में तलवार की धार पर चलते हुए, लाख कष्ट झेलते हुए भी उसके कई पत्रकारों ने आजादी की लड़ाई में स्वतंत्रता सेनानी के रूप में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अपनी योग्यता, निर्भीकता, तपस्या, त्याग, निष्पक्षता और साधना से उन्होंने कलम की गरिमा और पेशे की पवित्रता को जिस तरह संजो कर रखा और काशी ही नहीं, देश की हिंदी पत्रकारिता को जो ऊंचे आदर्श और मानक दिए उन्हें भुलाया नहीं जा सकता। अपने साप्ताहिक अंकों और विशेषांकों से ‘आज’ ने देश के कितने शूरनाम लेखक और साहित्यकार पैदा किए उनका तो खैर हिसाब ही नहीं है। अपने संपादकों की तो ‘आज’ इतनी कद्र करता था कि ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में जब तत्कालीन संपादक कमलापति त्रिपाठी जेल चले गए तब भी अखबार की प्रिंटलाइन में छपा करता था ‘प्रधान संपादक पं. कमलपति त्रिपाठी (जेल में)’। कमलापति जी जब जेल में थे, तब भी ‘बापू और भारत’ नामक लेखमाला के अंश वहां से चोरी-छिपे बाहर आए और प. माधव प्रसाद मिश्र के नाम से ‘संसार’ में प्रकाशित हुए, जो उसके सहायक संपादक थे – इस बात से खुद भी अनजान कि उनके नाम से छपने वाले लेख दरअसल कमलापति जी के हैं, जो इस समय जेल में बंद हैं।
पत्रकारिता की ‘रणभेरी’
‘आज’ के मालिक बाबू शिवप्रसाद गुप्त ने 1914 ईस्वी में विश्वभ्रमण के दौरान विश्वविख्यात ‘दि लंडन टाइम्स’ को देखकर हिंदी में भी उसी तरह का अखबार निकालने की कल्पना की थी, जो ‘आज’ के रूप में भलीभूत हुई। ‘आज’ का नामकरण उसके प्रथम संपादक श्रीप्रकाशजी ने किया था। 5 सितंबर, 1920 से ‘आज’ शुरु हुआ तो उसका ध्येय वाक्य था ‘स्वराज्य हासिल करना, लोगों को उनके अधिकारों के प्रति सचेत करना, ईश्वरीय न्याय में विश्वास रखना और धर्मतः कर्तव्य पालन करते समय अगर कोई विघ्न उपस्थित हो तो उनकी परवाह न करना।’ ‘आज’ इन्ही विघ्नों से तपकर निकला।
अंग्रेजी शासन का दमनचक्र चरम पर था। सरकार एक खूंख्वार प्रेस आर्डिनेंस लेकर अखबारों पर पिली पड़ी थी और शिवप्रसाद गुप्त, बाबूराव विष्णु पराडकर व मुंशी प्रेमचंद को अपने ‘आज’ और ‘हंस’ जैसे प्रकाशन बंद करने पड़े थे। ऐसे में भी बनारस के स्वातंत्र्यचेता पत्रकार ‘रणभेरी’, ‘शंखनाद’ और ‘आज की खबर’ जैसे भूमिगत अखबारों के जरिए गोरी सरकार के विरुद्ध निरंतर आग उगल रहे थे। छपाई का इंतजाम था नहीं, इसलिए ‘रणभेरी’ को हस्तलिखित लिपि में निकालने की मजबूरी थी। यह काम करते थे राष्ट्रभक्त क्रांतिकारी पत्रकार पराडकरजी, दुर्गा प्रसाद खत्री और रामचंद्र वर्मा, जैसे दिग्गज। पराडकर जी काशी में क्रांतिकारी दल के संस्थापकों में थे।
‘रणभेरी’, ‘तूफान’, ‘खबर’ एवं ‘शंखनाद’ 1930 ईस्वी में प्रकाशित होने लगे थे। ये छपते कहां से हैं यह पता लगाने के लिए अंग्रेजी सरकार के गुप्तचरों ने रात-दिन एक कर डाला। क्या-क्या नहीं किया। रेत खोदी, गलियों के पाइप खोलकर जांच की, यहां तक कि दूध के मटकों को भी फोड़ डाला। अखबारों का निकलना फिर भी बंद नहीं हुआ। एक बार जब पुलिस ‘रणभेरी’ के छापेखाने की तलाश में चौखंभा की एक कोठी का कोना-कोना छानकर हैरान हो रही थी, उसका छापाखाना पूरी तरह पैक हालत में उसी कोठी की सीढ़ी पर रखा हुआ था। सामने की पान की दुकान पर गमछा लपेटे एक आदमी मस्ती में गप्पें हांक रहा था, जैसे उसे इस बात से कोई वास्ता ही नहीं। दरअसल, यही आदमी इस छापाखाने का पहरेदार था। काशी कांग्रेस कमेटी का मुखपत्र ‘शंखनाद’ इसी तरह बिना नागा जनता के पास पहुंचता रहा। कहां से, पता करने में अंग्रेज सरकार अपने खुफिया दस्तों के बावजूद आखिर तक कामयाब नहीं हो पाई। ‘आज’ ने आजादी की लड़ाई लड़ने के साथ काशी को नई चेतना के साथ ओत-प्रोत किया। स्वतंत्रता दिलाने में जितना योगदान रहा, स्वतंत्रता के बाद राष्ट्र निर्माण में उससे कम नहीं रहा और आज भी जारी है।
लेखक विमल मिश्र मुंबई के वरिष्ठ पत्रकार हैं. संपर्क- [email protected]
सुरेश रोहरा
September 11, 2020 at 5:11 pm
विमल जी, श्रेष्ठतम कलम से… बारंबार पढ़ने समझने योग्य।
हरीश दुबे
April 21, 2021 at 1:37 am
आज ने जब 92 मैं ग्वालियर से प्रकाशन शुरू किया, तब मुझे भी इसमें कार्य करने का सुअवसर मिला। ग्वालियर से जब तक आज छपता रहा, तब तक यानी आखिरी दिन तक मैं जुड़ा रहा। बनारस से आए कई साथियों से अब कोई संपर्क नहीं है। संपर्क करें।
हरीश दुबे
April 21, 2021 at 1:41 am
आज ने जब 92 मैं ग्वालियर से प्रकाशन शुरू किया, तब मुझे भी इसमें कार्य करने का सुअवसर मिला।