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सियासत

गाँधी परिवार ना तो पार्टी चला पा रहा है और ना ही इस पर अपनी पकड़ ढीली करने को तैयार है!

राकेश कायस्थ-

इतिहास की अनगिनत दंतकथाओं में एक कहानी मुगल साम्राज्य के आखिरी दौर की है। यमुना पुश्ते के पास रहने वाले दो लोग लड़ते-झगड़ते इंसाफ के लिए बादशाह सलामत के पास पहुँचे। बादशाह ने जवाब दिया— हमारी सरहद अब लालकिले और चांदनी चौक तक महदूद है। हम तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकते।

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कांग्रेस पार्टी का हाल कुछ ऐसा ही हो चुका है। ढहते हुए मुगल साम्राज्य से कांग्रेस की तुलना कुछ ऐसी है कि बीजेपी समर्थक खुशी के मारे उछल जायें। प्रतीकात्मक रूप से यह तुलना उन्हें बहुत सूट करती है।

मगर सच भी यही है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी ने अपनी हालत कुछ ऐसी बना ली है कि मजबूत विपक्ष के हिमायती चाहकर भी एक विकल्प के लिए उसकी तरफ नहीं देख सकते।

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यह बात पूरी तरह साफ है कि जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकार है, वहाँ भी असल में कांग्रेस नहीं है बल्कि सिर्फ उसका ब्रांड है। राजस्थान में पार्टी गहलोत की है, जिसपर कब्जा बनाये रखने के लिए पायलट से उनका संग्राम चल रहा है। छत्तीसगढ़ की लड़ाई में आलाकमान बेबस नज़र आ रहा है।

पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह ने लगातार इस बात का संकेत दिया कि कांग्रेस उनके दम पर है, वो कांग्रेस के भरोसे नहीं हैं। जब शक्ति संतुलन साधने के लिए आलाकमान ने सिद्धू जैसे नमूने को आगे करने का दांव खेला तो पार्टी टूट के कगार पर पहुंच गई। कांग्रेस के 23 नेता एक समानांतर पार्टी बनाकर बैठे हैं और आलाकमान ना तो उन्हें समझा पा रहा है और निकाल पा रहा है।

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भावनाओं से परे कांग्रेस समर्थकों को यह समझना चाहिए कि गांधी-नेहरू परिवार का इकबाल अब खत्म हो चुका है। राहुल-प्रियंका की जनसभा में उमड़ने वाली भीड़ और सोशल मीडिया पर फॉलोइंग के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि देश उन्हें विकल्प के रूप में देख रहा है।

गाँधी परिवार ना तो पार्टी चला पा रहा है और ना ही इस पर अपनी पकड़ ढीली करने को तैयार है। अब सवाल ये है कि आगे का रास्ता क्या होगा?

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रास्ते सिर्फ दो हैं। पहला ये कि राहुल या प्रियंका पूर्णकालिक अध्यक्ष की जिम्मेदारी लें। फुल टाइम पॉटिलिक्स करें और देश को ये बतायें कि वो जीत-हार से परे एक लंबी लड़ाई के लिए तैयार हैं। फिलहाल वे ऐसा करते दिखाई नहीं दे रहे हैं। ।
दूसरा रास्ता थोड़ा मुश्किल है। कांग्रेस छोड़कर गये ममता और पवार जैसे पुराने लोगों को मनाया जाये और कांग्रेस का पुनर्गठन हो। पार्टी सही मायने में लोकतांत्रिक बने और सोनिया गाँधी सिर्फ मेंटॉर की भूमिका निभायें।

इसका सीधा ख़तरा ये है कि सत्ता गांधी परिवार के हाथ से निकल जाएगी। वैसे सत्ता अभी भी उनके पास नहीं है और ना ही हालात के बेहतर होने की उम्मीद है।

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पूरा देश गाँधी परिवार की तरफ देख रहा है। आईटी सेल का दुष्प्रचार अपनी जगह है लेकिन सच ये है कि गाँधी परिवार इतिहास के ऐसे मुहाने पर खड़ा है, जहाँ उनकी दूरंदेशी लोकतंत्र को बचा सकती है। अन्यथा भारत में फासिज्म को स्थायी रूप स्थापित होने देने का पूरा अपयश उन्हीं के हिस्से में जाएगा।

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