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सुख-दुख

आखिरी बात – लक्ष्मी नारायण शुक्ला

मेरे सभी प्रिय पारिवारिक सदस्य एवं शुभचिंतकों

आज जीवन की अंतिम घड़ी मुझे अपने करीब दिख रही है तो आप सभी से दिल की बात कहना चाह रहा हूं जो बीते जीवन में कई बार कहना चाह रहे थे लेकिन कह नहीं पाए. मुझे यह कहते हुए संकोच नहीं है कि यह जीवन मैंने अपने लिए अपने सुख शौक के लिए ज्यादा जिया, अन्य किसी आवश्यकता से अधिक प्राथमिकता अपने लिए भौतिक संसाधन जुटाने को दिया. इस चाहत में न जाने कितनी बार अपनों का दिल दुखाया.

ईश्वर का यह एहसान रहा कि मेरे आस पास उन्होंने अच्छे लोग का संबल हमेशा पास रखा. मेरी भावनाओं का कई लोगों ने इस्तेमाल किया, दोहन किया और अवसरवादिता का लाभ लेते हुए मुझे ऐसे हालातों में खड़ा किया जहां मेरे साथ साथ मेरे परिवार को अपमानित होना पड़ा. सबसे बड़ी गलती यह की मैंने कि कभी भी अपने माता पिता और पत्नी से अपनी गलतियों के लिए माफी नहीं मांगी या नहीं मांग सका. खुद के कार्य से ज्यादा हमेशा तथाकथित मित्रों के कार्य को प्राथमिकता दी. कभी किसी को ना नहीं कह सका और अपने लिए कभी किसी से कुछ कह नहीं सका. कमजोरी से लड़ने का प्रयास किया और लड़ता ही रहा. अपने गलत निर्णयों को सही साबित करने के चक्कर में सही से ज्यादा गलत करता रहा हूं।

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मैं ये स्वीकार करता हूं कि पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन मैं और अच्छे से कर सकता था, पत्नी बच्चों को और समय दे सकता था लेकिन अब जब सब छूटने को है तो केवल हुई गलतियों का मातम नहीं मना रहा हूं. दुख गलतियों का मातम या पछतावा कभी नहीं किया।

एक बात आज भी ईमानदारी से कह रहा हूं कि मैंने अपने कार्य जॉब हमेशा पूरी ईमानदारी और निष्ठा से किए. कभी किसी को धोखा नहीं दिया. अवसर के लाभ जरूर उठाए लेकिन निजी स्तर पर।

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मध्यम वर्गीय परिवार में पैदा हुआ. बेहद साधारण जीवन जीने वाले माता पिता मिले. अभाव को मैंने कभी भी अपनी कमजोरी नहीं बनने दिया. शायद इसी बचपन की कसक ने भौतिक सुख सुविधाओं को प्राथमिकता पर रखा. कुछ चीजों की आवश्यकता नहीं थी लेकिन सनक पन के चलते कर्जा होता गया सुविधाए बढ़ती गई, “ऋणम कृत्वा घृतम पिवेत” का सिद्धांत सोच में घुस चुका था. अति आशा वादिता वाली सोच हावी रही. खुद पर बेहद भरोसा रहा कि आज ये ले लो, कल का कल देखा जाएगा, दिया जाएगा

मेरी जीवन की उपलब्धियों के पीछे कर्जे का बड़ा हाथ हमेशा रहा. अगर चुकाना न होता तो इतना काम न करता. मेरा कभी भी किसी से मनमुटाव नहीं रहा. दूसरे का दिल दुखा हो तो वो जानें. शिकायत मुझे कभी किसी से न है न थी. मुस्कराए और आगे चल दिए. ऐसे ही जीवन जिया है. नरक में ज्यादा इंट्रेस्ट रहा. स्वर्ग में साधु सात्विक टाइप के लोग मिलेंगे. उनमें मेरा कभी इंट्रेस्ट नहीं रहा है. नरक में मेरे टाइप के लोग होंगे, जिन्होंने भोग को ही जीवन माना है. जब पूरे जीवन में किसी को अपना पक्ष न समझा सका, न लोग समझे तो अब समझाने का कोई मतलब नहीं है. वैसे भी मरने के बाद दुनिया और दुनिया दारी से क्या मतलब?

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बचपन में स्कूल गए. लगा कि दुनिया हमारी अच्छी है. पर वो छूट गया. कॉलेज गए. ये नई दुनिया भी अच्छी भली लगी. फिर वह दुनिया भी छूट गई. अब आदत सी हो गई है. लोग मिलते ही छूटने के लिए हैं।

दिल में दुख केवल दो बातों का है. बेटे की शादी में स्कॉच पी कर डांस नहीं कर सका. पत्नी को उतनी खुशियां नहीं दे सका जिसकी वो हक दार थीं. ऐसा नहीं है कि खुशियां नहीं दीं, लेकिन जब साथ छूट रहा है तो लगता है कि मेरे होने से ज्यादा दुख उसको मेरे न होने का होगा और ये दर्द मुझे साथ ले कर जाना है।

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मुझे अपने बेटे से पूरी उम्मीद है कि संघर्षों का महत्त्व उस को पता है. सब्र और हार न मानने का सबक उसको अच्छे से दिया है. बाकी हर व्यक्ति अपने सोच के अनुरूप जीवन वहन करता है. साथ मिलता ही छूटने के लिए है।

सबसे यही कहना है कि मैं उस दुनिया में आप सबका इंतजार कर रहा हूं जहां सभी को आना है. वहां भी मिल कर चीयर्स करेंगे. धुंआ उड़ाएंगे. लेकिन तब तक तुम हमको और हम तुमको मिस करेंगे।

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आपका
लक्ष्मी नारायण शुक्ला
[email protected]


आखिरी बात

लेखन की नई चुनौती!

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