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सुख-दुख

युवा पत्रकार और सोशल एक्टिविस्ट अंशु सचदेवा की खुदकुशी के बाद फेसबुक पर आत्महत्या के पक्ष में होने लगी बहस!

(स्वर्गीय अंशु सचदेवा)


पत्रकार अमृत सागर के स्टेटस को शेयर करते हुए सोशल एक्टिविस्ट Sandip Naik इस पर सहमति जताते हैं कि आत्महत्या करना हिम्मत का काम है. वह लिखते हैं: ”दुखी हूँ परंतु इस लड़की की बहादुरी को सलाम। आत्म ह्त्या हिम्मत का काम है और किसी को मरने के बाद कोसना गलत है। व्यवस्था बदलें हम सब तब बात करें। मुझे तो दुर्खीम सही लगता है कभी कभी।”

(स्वर्गीय अंशु सचदेवा)


पत्रकार अमृत सागर के स्टेटस को शेयर करते हुए सोशल एक्टिविस्ट Sandip Naik इस पर सहमति जताते हैं कि आत्महत्या करना हिम्मत का काम है. वह लिखते हैं: ”दुखी हूँ परंतु इस लड़की की बहादुरी को सलाम। आत्म ह्त्या हिम्मत का काम है और किसी को मरने के बाद कोसना गलत है। व्यवस्था बदलें हम सब तब बात करें। मुझे तो दुर्खीम सही लगता है कभी कभी।”

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आत्महत्या करना कानून अपराध है और आत्महत्या के लिए उकसाना भी कानूनी तौर पर अपराध है. लेकिन जब समाज और सिस्टम लगातार सड़ता जाए, कोई समझदार संवेदनशील होनहार अपने को इस सड़न में फिट न कर पाए और यह सड़ा समाज सिस्टम किसी संवेदनशील होनहार को इस्तेमाल करके यूं ही छोड़ दे तो रास्ता क्या रह जाता है… असल में लगता यह है कि आत्महत्या के पक्ष में बहस की शुरुआत गलत है या सही, इस पर बहस करने की जगह इसे देखा जाए कि आखिर आत्महत्या को सही समझने के पक्ष में समझदारी कैसे डेवलप हो रही है… इसके पीछे हर हाल में भ्रष्ट सिस्टम और परम सामंती मानसिकता वाला समाज है.

भड़ास4मीडिया का हमेशा मानना रहा है कि आत्महत्या किसी भी स्थिति का हल नहीं हो सकता. हल हासिल करने के लिए हमें ढेर सारे प्रयोग संघर्ष बदलाव भटकन पर्यटन को अपनाना पड़ता है. लेकिन जो लोग शार्टकट तरीक से मुक्ति चाहते हैं वह आत्महत्या को गले लगाकर दूसरों को स्तब्ध कर देते हैं. शार्टकट चाहे आत्महत्या हो या सफलता, दोनों माफी योग्य नहीं हैं. लेकिन आत्महत्या करने वाला जब इस दुनिया में होता ही नहीं है तो उसे आप माफी दें या न दें, वो तो चला गया, उसे दंडित करेंगे भी तो कैसे. तो इसका जवाब यही है कि हम यानि यह समाज यह सिस्टम खुद के भीतर झांके, खुद को दंडित करे, खुद को सुधारे ताकि फिर कोई होनहार, फिर कोई संवेदनशील खुदकुशी करने की तरफ प्रेरित न हो. नीचे फेसबुक पर चल रही कुछ बातचीत, बहस को दे रहे हैं.

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-यशवंत, एडिटर, भड़ास4मीडिया


Amrit Sagar : उसने पहली जनवरी को नए साल की शुभकामनाओं के साथ लिखा था कि ‘मशालें लेकर चलना कि जब तक रात बाकी है’ और वही अंशु सचदेव (Anshu Sachdeva) आज हमारे बीच नहीं है! उसे पता था कि ‘दिल की बातों को छुपाने के लिए ही तो जबान मिली है’ उसे दीपिका पादुकोण के ‘माय च्वाइस’ के बारे में भी पता था पर हमें उसके बारे में कुछ भी नहीं पता की उस सिरफिरी ने ऐसा रास्ता क्यों चुना. जैसे लगता है इस तस्वीर में छुप रही यह लड़की अभी आगे बढ़कर बोल उठेगी यह सब गलत है! यह लिखते हुए आँखें कई बार भर चुकीं हैं, सर फटा जा रहा है इस अहसास से कि आखिर हमारे समाज, परिवेश, परिवार और अपने आसपास ऐसा क्या हो रहा है कि एक जुगनुओं से भरा चेहरा खुद को अँधेरे कुएं में जज्ब कर देने का फैसला ले लेता है! देश के नामी इंस्टीट्यूट से शिक्षा लेना, फेलो बनना और फिर अपने सोचे से अलग का प्रोफेशन तय करना, इसके बावजूद खुद से मौत को गले भी लगाना! कितना साहस चहिये इसके लिए कि हम खुद को ही खत्म करके यह जता दें कि हम समझौता नहीं करेंगे न समझदार ही बनेंगे! क्या इतना सब कुछ आसन रहा होगा, बरसों के सपनों और मेहनत के मनकों को एक झटके में बिखेर देना, कौन सी ऐसी परिस्थियां थीं, कौन सी ऐसी उलझन थी जो अंशु और अंशु जैसे सैकड़ों युवाओं को परेशां कर रही है! क्या हमारे आसपास की खंदक और खाईयां ही महत्वपूर्ण हैं, क्या इस दकियानुसी रूढियों से हम कभी नहीं निकल पायेंगे, क्या प्रेम, परिवार और युवा का प्रमेय कभी हल नहीं होगा. क्या समाज की जटिलता कभी सुलझ नहीं पाएगी, क्या तिल-तिल करके इस तिलिस्म में मरना ही हमारी युवा पीढ़ी का नसीब बनती जा रही है… समझौता कर लिया जिसने वह हौसला पसंद है और आपकी सभ्यता को जिसने स्वीकार नहीं किया वह दोषी… शर्म के मारे सर गड़ा जा रहा है कि हम ऐसे समाज में सांस ले रहे हैं जहां उजासी भरे चेहरों को आत्महत्या का फैसला लेना पड़ रहा है! लगता है मैं भी इसका दोषी हूँ! उफ़! अब भी रोक दीजिए ये दौड़ और कुछ देर ठहर के सोचिए हमारे सभ्य होने की दौड़ में क्या कुचल रहा है… प्लीज, हाथ जोड़ता हूँ आप सबके सामने!

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Abhishek Ranjan : बमुश्किल महीने बीते होंगे मिले हुए. कॉफी हाउस, दिन शनिवार… फरीदाबाद घर पर आने की मांग मजबूरीवश ठुकरा दिया तो व्यस्त समय में से कुछ पल चुराकर आई थी. शिक्षा क्षेत्र में अपने योगदान देने को आतुर मन जब उसी संस्था में काम करने के रास्ते तलाशने हेतु अंशु के साथ बैठा था, कतई अंदाजा नही था कि अब वह उससे दुबारा नही मिल सकेगा…..गाँधी फेलोशिप से जुड़ने के पीछे किसी एक शख्स का नाम लेना हो तो अंशु ही थी. उसके जरिये ही एक बेहतरीन जीवन यात्रा से साक्षात्कार हो सका. एक बेहद खास दोस्त के जरिये संपर्क में आया था, मिला तो केवल २ बार, पर फ़ोन से हमेशा राय-मशविरा लेते रहता था. फेलो के रूप में हो या फिर वर्तमान संस्थान में, अपने काम से, अंशु की एक अलग पहचान थी. हाल ही में महिला दिवस के दिन एक विशेष खबर हिंदुस्तान ने अंशु पर प्रकाशित किया था. आज दोपहर में खबर मिली कि एक्सीडेंट हो गया शाम होते होते मौत की मिली खबर से तो सन्न रह गया. सबकुछ इतनी जल्दी हो गया कि कुछ समझ में नही आया….ईश्वर एक महत्कांक्षी, उत्साही और कुछ बेहतर करने को लेकर सक्रीय इन्सान को इतनी बेरहमी से अपनी जिन्दगी की इहलीला समाप्त करने को मजबूर कर लेगा, यकीन नही होता. अंशु, अपनी अधूरी जिन्दगी के अधूरे सपनों को पूरा करने जल्द आना. प्राइवेट ड्रीम पर बहुत काम करना है. RIP

Nitin Thakur : कोई तो परिस्थिति रही ही होगी कि अंशु ने जीने की बजाय मरने को चुना. मैं करीब से ऐसी घटनाएं देखता रहा हूं इसलिए किसी को बहुत रोता-बिलखता या टूटता सा देख डर जाता हूं.. इसकी वजह अगर जाने-अनजाने मैं बन जाऊं तो फिर मेरी बेचैनी का कोई पारावार नहीं रहता. माफी से लेकर सजा सब मांग लेता हूं लेकिन उस शख्स को तनाव से लौटा लाने के लिए हाथ-पांव मारता ही रहता हूं. कल से अब तक कितने ही लोगों ने इनबाॅक्स में मुझे उनकी आत्महत्या की प्रवृत्ति के बारे में लिखा. एकाध ने लिखा कि जल्द आप मेरे लिए भी ऐसी ही पोस्ट लिखेंगे. अब बताइए.. जिस दुनिया में हर दूसरा आदमी हथियार डालने का मन बनाए घूम रहा हो वहां किसे संभालें.. और कैसे संभलें. हाल-फिलहाल जितने मामले सामने आए वहां सुसाइड नोट भी नहीं मिला कि वजह ही मालूम हो जाती. अंशु की खुदकुशी को उसके मंगेतर से जोड़कर देखा जा रहा है लेकिन बिना कानूनी कार्रवाई पूरी हुए किसी नतीजे पर पहुंचना उसके मंगेतर को भी अवसाद में ला सकता है. मैं अंशु से जुड़ी खबरें अखबार में देख रहा हूं तो लग रहा है कि जब इतनी ज़िन्दादिल लड़की अकेलेपन में घुटकर मर सकती है तो कोई भी ऐसा कर सकता है.

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आप चाहे कहते रहिए लेकिन फिर दोहराऊंगा कि खुदकुशी हिम्मत का काम है। सब कर पाते तो मुहल्ले में से रोज़ एक-दो लोग कम हो जाते। ये मौत का महिमामंडन नहीं और ना ज़िंदगी की खूबसूरती को कम करके आंक रहा हूं लेकिन आप इसे सही-गलत में मत बांटिए। बर्दाश्त करने की सबकी अपनी हद होती है। जो कर पाता है वो जीता रहता है औऱ जो नहीं कर पाता है वो अपनी पारी डिक्लेयर कर देता है। जो ज़िंदा रहते हैं मरना उन्हें भी एक दिन है ही.. इसे ऐसे मान लीजिए कि उनके हिस्से के ओवर खत्म हो जाते हैं। मुझे अच्छा सा नहीं लगता जब गुज़र चुके इंसान को कोई कायर कहता है। मरना कोई चाहता नहीं है लेकिन जूझने से ज़्यादा मुक्त होना जब ज़्यादा सही विकल्प लगता है तब कोई खुद को मार डालता है। ये विकल्प चुनने से अधिक कुछ नहीं।

मैं दसवीं में था. मेरे मौसेरे भाई जो उम्र में मुझसे कई साल बड़े थे उन्हें एक लड़की से एकतरफा मुहब्बत हो गई. वैसे भी बहुत सोचते थे. बाहर से बेहद सख्तमिजाज, मजबूत और आक्रामक दिखते थे. उन दिनों मेरे काफी करीब आ गए. जीवन,मृत्यु,पुनर्जन्म,प्रेम वगैरह पर मुझसे चर्चा करते थे. वो मुझसे इतना हिलमिल गए कि फिर फोन पर भी ऐसी चर्चाएं घंटों होती रही. एक दिन अचानक फोन आया कि उन्होंने खुदकुशी कर ली. मालूम चला कि अलसुबह सैर से लौटने के बाद घर में किसी के भी जागने से पहले उन्होंने कमरा बंद करके खुद पर गोली चलाई थी. मै उनके कमरे में गया. खून से लथपथ बिस्तर देखा. कमरे की स्थिति देखी तो पाया कि उन्होंने खाली दीवार की तरफ मुंह करके खुद पर गोली चलाई थी. खडा खडा उनकी स्थिति के बारे में सोचता था तो दिल बैठने लगता था. वहीं कमरे में बिखरी उनकी कई किताबों में से एक मैंने उठा ली. ओशो की किताब थी मृत्यु पर.. वही जिस पर हम सबसे ज़्यादा चर्चा करते थे. वो चर्चा करके चले भी गए और मैं हर ऐसे हादसे के बाद कई दिनों के लिए लगातार यंत्रणा झेलता हूं.

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Shailesh Bharatwasi : दो फरवरी 2015 की सुबह मैं Om Nishchal के साथ शिवगंगा एक्सप्रेस से नई दिल्ली स्टेशन पर उतरा। हम दोनों अपने-अपने निवास-स्थान जाने के लिए मेट्रो के जिस गेट से दाखिल हो रहे थे, उसी समय Anshu भी अपने एक मित्र के साथ दाख़िल हो रही थीं। हम दोनों ने एक-दूसरे को पहचान लिया। मैंने पूछा- इतनी सुबह! आप यहाँ! कहाँ जा रही हैं? अंशु ने बताया कि वे इन दिनों एक NGO के जिस प्रॉजेक्ट में काम कर रही हैं, उसके कश्मीरी गेट के पास के ऑफिस में सुबह-सुबह पहुँचाना होता है। तभी मैंने जाना कि अंशु फरीदाबाद में रहती हैं। और बहुत सवेरे की EMU से फ़रीदाबाद से नई दिल्ली आती हैं और आगे मेट्रो तक जाती हैं। वाराणसी से लाई मिठाई भी ओम जी ने अंशु और उनके सहकर्मी को खिलाई। इतना अधिक तो नहीं जानता था लेकिन अंशु जिस तरह का काम कर रही थीं और कमज़ोर प्राथमिक शिक्षा प्रणाली को लेकर जितनी सजग और बेहतरी की तरफ़ वे प्रयत्नशील थी, उससे उनकी आत्महत्या अविश्वसनीय लगती है।

Hina Taj : ज़िंदगी में कई मोड़ ऐसे आते हैं जिस दौरान हर चीज़ से ऊब आ जाती है उस वक़्त मुझे खुदसे डर लगने लगता है ये सभी के साथ होता है … इस्लाम में खुदखुशी का इतना भयानक अज़ाब बताया गया है कि जीना उससे बहतर लगता है गर ये बात ज़हन में घर ना करती तो शायद मैं भी हार जाती …फिर एक चीज़ और नोटिस की हर बार सर्वाइव करने के बाद कि कोई भी ग़म इतना बड़ा नहीं था कि मैं खुद को उसके लिये ख़त्म करती इसलिये अब हर परेशानी उलझन में यही सोचती हूं के ये गुज़र जाएगी … कोई भी ग़म मेरी ज़िंदगी से बड़ा नहीं हो सकता क्यूंकी अल्लाह ने मुझे अशरफुल मख़्लुका़त बनाया है यानी दुनिया की हर चीज़ में सबसे अफज़ल और ताक़तवर तो मुझे लड़ना है डरना नहीं …. मुझे खुद से प्यार है और मेरा मुझ से ज़्यादा ख़्याल, मुझे मुझ से ज़्यादा प्यार कोई और नहीं कर सकता फिर मैं खुद को कैसे मार सकती हूं…..क्यूं लोग अपनी अहमियत नहीं समझते !!

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मूल पोस्ट…

मेरी इस सुंदर-सी फेसबुक दोस्त ने कल आधी रात के बाद सुसाइड कर लिया और मैं अनजान रहा…

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0 Comments

  1. Satyendra Murli

    April 20, 2015 at 5:24 am

    आत्महत्या करने की कोई एक वजह नहीं है…आत्महत्या के पीछे मनोवैज्ञानिक कारण जो कि आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक अथवा सांस्कृतिक व्यवस्था से उपजते हैं…और इस व्यवस्था को बहुत हद तक सरकार ही प्रभावित करती है.

    आत्महत्या के कारणों को पैदा करने वाली सरकार चुनते ही क्यूं हो?
    मानसिक अवसाद के चलते कोई खुद को ख़त्म कर लेता है, तो कोई अपने सम्मान को बचाने की ख़ातिर मौत को गले लगाता हैं…तो वहीं कुछ लोग प्रेरित होकर आत्महत्या करते हैं…तो कुछ लोग इतने मजबूर हो जाते हैं कि आत्महत्या का रास्ता चुन लेते हैं…कुछ लोग जिंदगी को बोझ समझने लगते हैं…तो कुछ लोगों के ऊपर इतना बोझा डाल दिया जाता है कि उनकी जिंदगी दबकर दम तोड़ देती है…कोई कर्जदारी से तंग आकर आत्महत्या की ओर मुडता है, तो कोई रिश्तों में उलझी जिंदगी से परेशान होकर दुनिया ही छोड़ देता है…आत्महत्या के प्रति तेजी से बढ़ती प्रवृत्ति के पीछे कई कारण हो सकते हैं…आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक अथवा सांस्कृतिक व्यवस्था से उपजे मनोवैज्ञानिक कारणों की पडताल जरूरी है…भिन्न आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि वाले लोगों में आत्महत्या के कारण भी भिन्न-भिन्न होते हैं.
    हाल में, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा, कि दुनियाभर में हर साल करीब 8 लाख लोग खुदकुशी करते हैं…जिनमें करीब 21 प्रतिशत भारतीय शामिल हैं. आंकडों की माने तो साल 2012 में भारत में तकरीबन 2 लाख 50 हजार लोगों ने आत्महत्या की…इनमें से करीब 1 लाख 50 हजार पुरुष और करीब 1 लाख महिलाएं थीं…राष्ट्रीय अपराध रिकॉड्‌र्स ब्यूरो के आंकड़े भी बताते हैं कि अन्य देशों की तुलना में भारत में आत्महत्या की दर बढ़ी है…जिनमें करीब 38 प्रतिशत लोग 15 से 29 साल की उम्र के है…वहीं दूसरी ओर 44 साल की उम्र के लोगों में आत्महत्या की दर 71 फीसदी तक बढ़ी है…आईआईटी, आईआईएम जैसे उच्च शिक्षण संस्थानों के छात्रों में भी आत्महत्या की प्रवृत्ति बढी है…केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की रिपोर्ट में भी कहा गया था कि देश में करीब 6 करोड़ 50 लाख मानसिक रोगी हैं…सरकार और सामाजिक व्यवस्था को कटघरे में खड़ा करते हुए, सामाजिक मूल्यों, आदर्शों और नैतिकता का जीवन पर पडने वाले प्रभाव पर, खुलकर चर्चा की जानी चाहिए…आख़िर व्यक्ति को आत्महत्या जैसा कदम चुनने में, भूमिका निभाने वाले उन सभी तत्वों पर बात तो की ही जानी चाहिए.

  2. Bhupendra sahu

    February 14, 2018 at 6:03 pm

    Mai to hat din suicide krne ka sochta hu.meri umra 19 saal hai.8965906194 mera mobile number hai .
    Mai jald hi aatmhatya kar skta hu.

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