( File Photo Abhishek Upadhyay )
Abhishek Upadhyay : आज बहुत कुछ याद आ रहा है। अजीब सा लम्हा है ये। अभी अभी इंडियन एक्सप्रेस और टाइम्स ऑफ इंडिया के कुछ आर्टिकल हाथ लगे। मेरे अज़ीज़ दोस्त राकेश शुक्ला ने क्या कर दिखाया है………. खुशी की लहर मेरे अंदाजे बयां की राह में खड़ी हो जा रही है। राकेश शुक्ला, इस कदर मेरी जिंदगी में शामिल हैं कि उनके बारे में लिखने का मतलब है अपनी ही जिंदगी को अपने ही हाथों बेपर्दा करते जाना। रिस्क है ये। ये रिस्क फिर भी झेल लिया जाएगा पर शुक्ला के बारे में न लिखने का रिस्क…इसे कैसे झेला जाएगा।
राकेश शुक्ला। मेरे अज़ीज़ दोस्त। नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, नवीन निश्चल, स्मिता पाटिल, शत्रुघन सिन्हा, शबाना आजमी और अदूर गोपालाकृष्णनन सरीखे भारतीय सिनेमा के मील का पत्थर माने जाने वाले नामो को पैदा करने वाला देश का सबसे प्रतिष्ठित फिल्म इंस्टीट्यूट- फिल्म एंड टेलीवीजन एकेडमी पुणे। शुक्ला इसी इंस्टीट्यूट के डायरेक्शन विधा के अंतिम वर्ष के विद्यार्थी हैं। अब इसके आगे मैं एक सांस में लिखता जा रहा हूं क्योंकि दूसरी सांस और उसकी बाद की सांसों का हक मेरे और शुक्ला के माजी यानि अतीत यानि गुजरी जिंदगी पर होगा। शुक्ला की डायरेक्ट की हुई फिल्म “तपिश” का बीजिंग फिल्म अकेडमी के 13 वें इंटरनेशनल स्टूडेंट फिल्म फेस्टिवल में चयन हुआ है। इतना ही नही बल्कि शुक्ला की डायरेक्टेड “डंकी फेयर” नाम की फिल्म 44 वें इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के इंडियन पैनोरमा सेक्शन में चयनित होकर झंडे गाड़ चुकी है। डंकी फेयर को बेस्ट सिनेमैटोग्राफी का अवार्ड मिला है। 2013 के पहले नेशनल स्टूडेंट फिल्म अवार्ड में इस फिल्म को “स्पेशल मेंशन” मिला है। शुक्ला की कामयाबी की दास्तान का अगला परचम है एशिया लिवलीहुड डाक्युमेंट्री फेस्टिवल 2013 जहां शुक्ला की निर्देशित फिल्म को बेस्ट स्टूडेंट डाक्यूमेंट्री अवार्ड मिला है।
अब सोचिए शुक्ला जैसा डाउन टू अर्थ इंसान कहां मिलेगा। इतना कुछ हो गया और शुक्ला जो मुझसे अक्सर मोदी से लेकर ओबामा, मगल ग्रह से लेकर जुपिटर और चाचा चौधरी से लेकर हालीवुड के आल टाइम ग्रेट अल पचीनो तक की बातें करता रहता है, इस बात का जिक्र ही नही किया। मुझे इंटरनेट पर शुक्ला को सर्च करते हुए और इंडियन एक्सप्रेस और टाइम्स ऑफ इंडिया को पढ़ते हुए शुक्ला की इन उपलब्धियों की जानकारी मिली।
ये यूपी के बहराइच जिले की बात है। आज से 25 साल शुरू हुआ एक सिलसिला। तब हम और शुक्ला दोनो ही बहराइच की सड़कों पर नेकर में घूमते थे। एक दिन मैं बहराइच की कचेहरी रोड पर खड़ा मोची से अपनी चप्पल सिलवा रहा था। तभी अचानक मैने एक उत्साह में गरजती आवाज सुनी- ‘उपधिया…अरे उपधिया..इधर देखो..इधर।’ शुक्ला जब मुझसे खुश होते हैं तो मुझे उपधिया बुलाते हैं और जब आग बबूला तो ‘सुनो बे अभिषेक उपाध्याय।’ मैने पलटकर देखा शुक्ला हाथ में एक फार्म लिए लहराते हुए चले आ रहे थे। शुक्ला पूरा का पूरा एक आंदोलन करके लौटे थे। पंजाब नेशनल बैंक से छात्रवृत्ति का एक फार्म हासिल करने गए शुक्ला को वहां अच्छी खासी लाइन मिली। शुक्ला ने देखा कि वो तो लाइन में हैं मगर बैंक के कर्मचारी अपने परिचितों को लाइन से अलग बुलाकर फार्म की सप्लाई किए जा रहे हैं। शुक्ला के उमर की एक लड़की काउंटर पर बैठे बैंक कर्मी से इस अन्याय के खिलाफ उलझ रही थी। अब पता नही शुक्ला के जेहन में इंसाफ की खातिर लडने का जज्बा पैदा हुआ या फिर उस हम उम्र लड़की की खातिर लड़ने को……….शुक्ला काउंटर पर पहुंच गए और बवाल काटना शुरू कर दिया।
बैंक कर्मी अब तक बुरी तरह भड़क चुका था। उसने शुक्ला और उस शुक्ला की हम उम्र लड़की दोनो को ही फार्म देने से मना कर दिया। अगले ही पल शुक्ला जमीन पर पालथी मारकर बैठे थे। अपने चश्मे को दो बार पोंछकर फिर से आंख में लगाते हुए और गले में पसीना पोछने की खातिर लटकाए खद्दर के दुपट्टे को एकाएक आंदोलन के हथियार की शक्ल देकर हवा मे लहराते हुए। शुक्ला ने पंजाब नेशनल बैंक की पान की पीकों से ढकी-पुती उसी फर्श पर बैठकर आमरण अनशन का ऐलान कर दिया। बैंक में एकाएक भूचाल सा आ गया। किसी को उम्मीद न थी कि ऐसा भी कुछ हो सकता है। लाइन तितर बितर हो गई। सारे आवेदक शुक्ला के साथ इस 15 मिनट के आमरण अनशन में शरीक हो गए। शुक्ला की वो हम उम्र लड़की शुक्ला के ठीक बगल में बैठकर शुक्ला के लगाए नारों को दोहराने लगी। बमुश्किल 5 मिनट बीते थे कि बैंक का मैनेजर मिग 29 लड़ाकू विमान की रफ्तार से भागता हुआ मौके पर पहुंचा और शुक्ला के आगे हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। शुक्ला की विजय हो चुकी थी। ये तय हुआ कि अब किसी को भी लाइन से हटकर फार्म नही मिलेगा। बैंक में लगी ये लाइन इस कदर लंबी थी कि शुक्ला का नंबर करीब 45-50 एप्लीकेंट्स के बाद था। शुक्ला उस हम उमर लड़की के सपोर्ट में लड़ी गई सत्य और इंसाफ की इस लड़ाई को जीतकर बडे शान से उठे और सीधा मैनेजर के कंधे पर हाथ रख दिया। -“सुनो मैनेजर साहब, अब क्या हमे भी लाइन में लगना होगा”- शुक्ला का मैनेजर से यह पहला सवाल था। मैनेजर अपने सर को पांव पर रखते हुए और पैर का बचा खुचा हिस्सा सर पर रखते हुए तेजी से काउंटर की ओर भागा। अगले ही क्षण उसके हाथों से होता हुआ छात्रवृत्ति का फार्म शुक्ला के हाथों में था। उस समय तक शुक्ला की विजय का उस बैंक परिसर में इस कदर रौब गालिब हो चुका था कि आवेदकों की भीड़ ने इस वाकए को गणतंत्र दिवस के मौके पर शुक्ला को उनकी अभूतपूर्व बहादुरी की एवज में मिले परमवीर चक्र अवार्ड के तौर पर देखा और शुक्ला को ससम्मान वहां से जाने दिया।
मेरे ज़ेहन में शुक्ला की क्रांतिकारी शख्सियत का ये पहला हस्ताक्षर था। इसके बाद कितने ही ऐसे मौके आए जब मैने शुक्ला कभी अपनी तो कभी उधार की कलम से क्रांति का इतिहास उलटते और भूगोल बदलते देखा। अगली जगह थी बहराइच का कलेक्ट्रेट यानि डीएम आफिस। शुक्ला इस समय तक बहराइच के किसान डिग्री कालेज में बीएससी साइंस के प्रथम वर्ष में दाखिल हो चुके थे। ये छात्र आंदोलनो के चरम का दौर था। रोज ही फीस घटाने की मांग को लेकर आंदोलन होते थे और ये आंदोलन तब तक चलते थे जब तक कि छात्र संघ चुनाव संपन्न नही हो जाते। चुनाव संपन्न होते ही फीस वापसी के संघर्ष से थके हारे छात्र नेता अगले छात्र संघ चुनावों की घोषणा तक जिले के सही विकास की खातिर सड़क और पुल निर्माण ठेकों को अधिक से अधिक संख्या में हासिल करने में जुट जाते थे। जिले के हित को छात्र हितों के उपर वरीयता देते हुए फीस वापसी का आंदोलन लंबे समय के लिए मुल्तवी कर दिया जाता था। ऐसे ही एक फीस वापसी आंदोलन में मैने शुक्ला को बहराइच के जिला कलेक्ट्रेट आफिस में लकड़ी के एक कामचलाऊ मंच से छात्रों को संबोधित करते पाया। सामने सैकड़ों छात्रों की भीड़ थी। डीएम आफिस के ठीक सामने हो रहे इस प्रदर्शन के कारण ही भारी संख्या में पुलिस बल भी तैनात था। छात्र बेहद उत्तेजित थे। छात्रों की बढ़ती उत्तेजना और पुलिस बल की बढ़ती तादात के चलते ही शायद इस मंच से छात्र नेताओ ने तौबा कर ली थी। एक भी छात्र नेता मौके पर नही पहुंचा। अस्थायी व्यवस्था के तौर पर शुक्ला को ही मंच संभालने और छात्र उर्जा के गुब्बारे को लगातार फुलाते जाने की जिम्मेदारी दे दी गई थी। शुक्ला मंच से दहाड़ रहे थे। छात्रों को भगत सिंह से शुरू होकर फिदेल कास्त्रो तक के बलिदान की याद दिलाई जा रही थी। ये अलग बाद थी कि क्यूबा के क्रांतिकारी नेता फिदेल कास्त्रो उस वक्त तक जीवित थे। अचनाक शुक्ला का ध्यान लगातार बढ़ती पुलिस फौज की ओर गया। शुक्ला एकाएक दहाड़े- ‘दोस्तो, इन कुत्ते के पिल्लों से मत डरना। ये हमारी एकता का बाल भी बांका नही कर सकते।’ – अचानक शुक्ला ने देखा कि पुलिस वालों के हाथ लाठियों पर कस चुके हैं और एक सीओ लेवल का अधिकारी उन्हें कुछ निर्देश दे रहा है। शुक्ला खतरा भांप चुके थे। इससे पहले कि पुलिस एक कदम आगे बढ़ती, शुक्ला फिर गरजे। -‘दोस्तों, मगर हमे ये नही भूलना चाहिए, ये हमारी पुलिस खुद इसी सिस्टम की सताई हुई है। ये सब हमारे भाई हैं। हमारे दोस्त हैं। चलिए मेरे साथ नारा लगाइए- ये अंदर की बात है।’ शुक्ला के इतना कहते ही भीड़ से आवाज आई- ‘पुलिस हमारे साथ है।’ शुक्ला ने एक झटके में आंदोलन का नारा बदल दिया। फिर तो अगले 10 मिनट तक एक ही नारा गूंजता रहा- ‘ये अंदर की बात है/ पुलिस हमारे साथ है।’ पुलिस वाले अब चार पांच कदम पीछे हट चुके थे। शुक्ला ने इधर- उधर देखा और फिर दहाड़े- ‘…और अब इस सिलसिले को बढ़ाने के लिए मैं आमंत्रण दे रहा हूं हमारे भाई….को कि वे आएं और अपनी बात रखें।’ शुक्ला ने आनन फानन में मंच दूसरे वक्ताओं को सौंपा और अगले 15 मिनट में हम और शुक्ला महसी बस अड्डे के एकदम कोने वाले चाट के ठेले पर फुल्कियां उड़ा रहे थे। हमेशा की तरह शुक्ला ने सिर्फ इसलिए मुझे ही पेमेंट करने को कहा कि कहीं मेरी भावनाओं को ठेस न पहुंचे।
शुक्ला और हम उन दिनो अक्सर उन सार्वजनिक समारोहों में मिलते थे जहां एक लंबे व्याख्यान, काव्य पाठ या फिर सरकारी भाषण के बाद चाय नाश्ते और कभी कभी लजीज खाने का मुफ्त इंतजाम होता था। खाने पीने की चीजें एक कोने में ले जाकर, बेहद ही गंभीर मुद्रा में खाते हुए हम और शुक्ला उन दिनो अक्सर देश और समाज में बड़े बदलाव लाने की बातें किया करते थे। शायद इन्हीं बातों का असर था कि एक दिन शुक्ला ने मुझे केडीसी के मैदान में बुलाया और एक नए राष्ट्रीय मंच के गठन की जानकारी दी। इस मंच का नाम था- राष्ट्रीय नव निर्माण मंच। शुक्ला ने शायद उसी दिन सवेरे-सवेरे नाश्ता करने के तुरंत बाद इसका गठन किया था। शुक्ला इस मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने और मुझे राष्ट्रीय प्रवक्ता बनाया। तय हुआ कि भगत सिंह की शहादत से लेकर आजाद हिंद फौज के गठन तक के हर महत्वपूर्ण दिवस पर ये मंच बड़े बड़े कार्यक्रम आयोजित करेगा और शिरकत करने वालों से क्रांति करने और सशस्त्र विद्रोह कर केंद्र की सत्ता उलट देने की अपील की जाएगी। हमारा पहला और एकलौता टारगेट था, केंद्र की सत्ता पर कब्जा करना और वो भी बंदूक के दम पर। चीन के कम्युनिस्ट नेता माओ ने कहा था कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है। माओ की मौत (साल 1976) के 15 साल बाद हम और शुक्ला माओ के सपने को सच करने में जुटे थे। इस मंच के गठन के ठीक बाद जो पहला दिवस हमारी नजरों के सामने आया वो विश्व स्तनपान दिवस था। शुक्ला मेरे पास आए और बोले कि उपधिया ऐसा है कि ये स्तनपान दिवस बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ जेहाद का पहला सुनहरा मौका है। ये साली कंपनियां बच्चों को डब्बे का दूध पिलाती हैं और मां के मातृत्व और उसके दूध के पोषण से अलग करती हैं। ये हमारी दुश्मन हैं। मैने पूरी शिद्दत से शुक्ला की हां में हां मिलाई और ये तय हुआ कि बहराइच के घंटाघर पर इस विश्व स्तनपान दिवस का आयोजन होगा और इसी दिन इसी घंटाघर से बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ जेहाद का एलान कर दिया जाएगा। ये भी तय हुआ कि अगर व्यवस्था ने हमारा विरोध किया तो उसे करारा जवाब देने के लिए कोई न कोई असलहा भी हम साथ ले चलेंगे। ये मुकर्रर होने के बाद के अगले 48 घंटो तक हम और शुक्ला दोनो ही असलहे के नाम पर साथ ले चलने के लिए देशी कट्टा तलाशते रहे, मगर हमारी किस्मत कि वो भी हमे नही मिला।
खैर विश्व स्तनपान दिवस आ गया और शुक्ला घंटाघर की चहारदिवारी पर थे। चिलचिलाती धूप थी। दोपहर के 2 बज रहे थे। दरअसल शाम को हमारे ट्यूशन होते थे और सुबह स्कूल इसलिए दोपहर का समय क्रांति के लिए मुकर्रर किया गया था। शुक्ला के सामने दर्शकों के तौर पर रिक्शावालों की कतारें लगी हुई थीं जो दोपहर की धूप से बचने के लिए घंटाघर की चहारदीवारी के भीतर अपने अपने मुंह पर गमछा डालकर सो रहे थे। शुक्ला ने बोलना शुरू किया- “जिस माई के लाल ने अपनी मां का दूध पिया है, वो मेरा भाषण जरूर सुनेगा।” शुक्ला ने अभी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ गरजना शुरू ही किया था कि एकाएक एक साथ कई चीखती हुई आवाजें हमारे और शुक्ला के कानो में पड़ीं- ‘उतर बे…. मार साले को… ये कौन साला चहारदीवारी पर चढ़ गया है…’ एक बार तो हमे लगा कि इस माओवादी क्रांति को दबाने के लिए केंद्र सरकार की ओर से बीएसएफ या सीआरपीफ की टुकड़ी भेज दी गई है और ये उसी की ललकार है। मगर हमने जब होश संभाला तो देखा कि सारे के सारे रिक्शे वाले एक सुर में हमे गरिया रहे थे। ‘भगाओ सालों को…सोने नही दे रहे हैं…मार सालों को….।’ अगले ही झटके में शुक्ला चहारदीवारी कूदकर और मैं चहारदीवारी से सटे खंबे को पकड़कर नीचे उतर कर भगे वहां से। खुदा झूठ न बोलाए, उस दिन अगर कोई हमारी और शुक्ला की रफ्तार का आकलन कर लेता तो जैमेका का 100 मीटर का विश्व चैंपियन उसेन बोल्ट भी पानी मांग जाता। क्या भागे थे हम और शुक्ला, उस दिन। मैं तो फिर भी घर पहुंचकर बिस्तर पर लेट गया, मुझे बाद में मालूम पड़ा कि शुक्ला कई दिनों तक अपने कमरे में ही दौड़ता रहा। ये क्रांति की दौड़ थी। जेहाद की दौड़। व्यवस्था के खिलाफ। केंद्र की सत्ता के खिलाफ। आज वक्त हमारे खिलाफ था। मगर हौसले फिर भी साथ थे।
शुक्ला तुम्हें मैं कितना याद करूं। किस किस तरह से याद करूं। समझ में नही आ रहा है। शुक्ला और हम इलाहाबाद भी एक साथ ही पहुंचे। मैने बीकाम में एडमिशन लिया और शुक्ला ने इलाहाबाद आकर सीधे सिविल सर्विसेज की तैयारी शुरू कर दी। यहां भी हम रोज ही मिलते और क्रांति की बातें करते। शुक्ला बहुत ही अच्छा लिखता है। मुझे अब भी याद है कि शुक्ला ने एक कहानी लिखी थी- ‘वो एक शाम’। इस कहानी को सुनते हुए इलाहाबाद के इंग्लिश डिपार्टमेंट के हमारे अजीज प्रोफेसर सचिन तिवारी भावुक हो गए थे। शुक्ला की ये पहली कहानी थी।
शुक्ला मेरे आमरण अनशन में भी साथ था। ये बात है साल 2002 की। उस साल मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में लॉ का इंटरेंस एक्जाम दिया था। मगर हुआ यूं कि कांपियां जांचते हुए उत्तर पुस्तिकाओं के सेट बदल गए और हम जैसे कितने ही विद्यार्थी फेल करार दिए गए। हमने विरोध करने का फैसला लिया। मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति कार्यालय के बाहर आमरण अनशन पर बैठ गया। शुक्ला, अनूप, केबी, गौतम, संदीप, मृत्युंजय, सुजीत उर्फ सैम जैसे कितने ही साथी मेरे साथ थे। इलाहाबाद युनिवर्सिटी के एएन झा और जीएन झा से लेकर ताराचंद, हालैंड हाल, डायमंड जुबली, हिंदू हास्टल सरीखे कितने ही छात्रावासों के छात्र हमारे साथ थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति आफिस के आगे छात्रों की भारी भीड़ थी जो अगले 72 घंटो तक काबिज रही। इस दौरान विश्वविद्यालय प्रशासन से लेकर जिला प्रशासन तक कितने ही अधिकारी मुझे अनशन से उठाने के लिए मनाने आए, पर हमने आपसी सहमति से ऐसा करने से इंकार कर दिया जब तक कि कापियों को दोबारा जांचने की हमारी मांग मंजूर न हो जाए। मुझे अच्छी तरह याद है कि इसी बीच समाजवादी पार्टी के एक ताकतवर एमपी जो मेरे इलाहाबाद के जमाने से ही मेरे अच्छे परिचित हैं, अपने समर्थक छात्रों की भीड़ के साथ वहां पहुंचे। एमपी महोदय उस वक्त विश्वविद्यालय के छात्र हुआ करते थे और उनके चाचा यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री। उनका अपना ही जलवा था। वो अनशन स्थल पर आए और मुझसे बोले- ‘अभिषेक हम तुम्हारे साथ हैं। अब से यहां हमारे समर्थक भी मौजूद रहेंगे, जब तक कोई फैसला नही हो जाता।’
इस वक्त तक अनशन को 48 घंटे बीत चुके थे और कमजोरी के निशान मेरे जेहन पर हावी होने लगे थे। इससे पहले कि मैं कोई जवाब दे पाता, शुक्ला ने माइक संभाल लिया और दहाड़ते हुए बोले- ‘अभिषेक उपाध्याय के इस मंच पर कोई राजनीति का कीड़ा नही आएगा। निकाल बाहर करो इनको। ये हमारे आंदोलन को हाइजैक करने आए हैं।’ इसके बाद शुक्ला ने आवाज दी- ‘आवाज दो’ —छात्र चिल्लाए- ‘हम एक हैं।’ शुक्ला ने अगला नारा लगाया- ‘हर जोर जुल्म के टक्कर में’- छात्र फिर गरजे- ‘संघर्ष हमारा नारा है।’ जब तक नारों का ये शोर थमा, एमपी महोदय सीन से जा चुके थे। इस घटना के लिए एमपी महोदय काफी वक्त तक मुझसे नाराज रहे पर मैं हमेशा से ये मानता रहा कि शुक्ला का ये हस्तक्षेप हमारे आंदोलन का टर्निंग प्वाइंट था। अगर उस दिन हम अपना मंच किसी राजनीतिक व्यक्ति के हवाले कर देते तो अगले कुछ घंटों में ही हमारे आंदोलन की हवा निकलनी तय थी। शुक्ला का एक एक फैसला इस आंदोलन की जान था। जब 72 घंटे बीतने को आए और डाक्टर ने मुझे चेक करके बताया कि यूरिन में क्रीटनेन का लेवल बढ़ता ही जा रहा है, शुक्ला ने मेरे कंधे पर हाथ रखा और बोले- ‘उपधिया चिंता न करो। तुम्हें कुछ न होगा, ये लड़ाई हम ही जीतेंगे।’ और वही हुआ। विश्वविद्यालय प्रशासन को हमारी बात माननी पड़ी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के इतिहास में पहली बार लॉ एक्जाम का पूरा रिजल्ट बदला गया। कापियां फिर से चेक हुई। विश्वविद्यालय प्रशासन ने अपनी गलती लिखित तौर पर मानी। टाइम्स से लेकर पायनियर और हिंदुस्तान से लेकर जागरण तक हर अखबार के पन्नों में हमारे आंदोलन की तस्वीरें और खबरें थीं। इसके कई दिनो बाद मनमोहन तिराहे पर आइसक्रीम खाते हुए मुझे और शुक्ला को लगा कि एक बार फिर से बंदूक की नोक से सत्ता हासिल करने के अपने पुराने संकल्प को हवा दी जाए, मगर आइसक्रीम खतम होते होते ये ख्वाब भी पिघल गया और हम अपने अपने कमरो की ओर लौट लिए।
शुक्ला बेहद जुनूनी किस्म की शख्सियत हैं। एक बार इसी जूनून में शुक्ला ने कम से कम एक दर्जन चप्पलें मेरे उपर बरसा दीं थीं। हुआ यूं कि एक शाम मैं शुक्ला के अल्लापुर स्थित किराए के कमरे पहुंचा। शुक्ला इस वक्त तक बेहद ही सीरियस तौर पर आईएएस की तैयारी में जुट चुके थे। मैने कमरे में घुसते ही आव देखा न ताव, सीधे शुक्ला के आगे एक बेहद ही आकर्षक पेशकश रख दी। -‘शुक्ला चलो पैलेस सिनेमा का कल सुबह वाला शो देख आते हैं। सुबह का एडल्ट वाला शो है शुक्ला और सुना है, बोका फिल्म लगी है।’ बोका फिल्म का नाम सुनते ही शुक्ला ने अपनी चप्पल निकाली और दनादन एक के बाद एक दर्जन भर चप्पलें मुझ पर बरसा दीं। मैं हक्का बक्का सा चप्पलें खाता हुए, शुक्ला से बार बार एक ही सवाल पूछता रहा कि अमां शुक्ला बात का है। मार काहे रहे हो…। तभी मैने पलटकर देखा कि शुक्ला के कमरे में सामने की तरफ उनका छोटा भाई टेबल लैंप की आड़ में मुंह छिपाए खिखिया रहा था। मुझे उस वक्त तक बिल्कुल भी ख्याल न था कि शुक्ला के कमरे में उनका छोटा भाई भी बैठा है। शुक्ला ने हफ्ते भर के लिए मुझे अपनी जिंदगी से बेदखल कर दिया। उनकी नाराजगी इस बात से बिल्कुल न थी कि मैने एडल्ट फिल्म बोका देखने की पेशकश क्यों की। नाराजगी इस बात से थी कि जाने अनजाने में ये पेशकश उनके छोटे भाई के सामने हो गई। मैंने शुक्ला को कई बार समझाने की कोशिश थी कि शुक्ला ई हमसे अनजाने में होइ गवा। मगर शुक्ला इसे हमेशा अपने खिलाफ की गई साजिश करार देते रहे।
शुक्ला इलाहाबाद छोड़कर दिल्ली आए तब तक मैं भी आइबीएन 7 चैनल में दिल्ली पहुंच चुका था। शुक्ला का अपनी प्रतिभा से जेएनयू के फारसी सब्जेक्ट में दाखिला हुआ। मुखर्जी नगर का शुक्ला का कमरा हमारी चहल पहल से अक्सर आबाद रहता था। मुझे अच्छी तरह ख्याल है कि शुक्ला ने कितनी ही बार मुझे अपने हाथों का लज़ीज़ खाना खिलाया। ये अलग बात है कि लगभग हर बार शुक्ला ने मुझे अपने तौर तरीके सुधारने और उनके साथ तहजीब से पेश न आने के चलते बुरी तरह जलील भी किया। मगर शुक्ला के लजीज खाने के आगे मैं अक्सर इस जलालत को भूल जाता था। ये दास्तां बहुत लंबी हुई जाती है। इसे अब यहीं रोकूंगा क्योंकि वो फैज़ ने लिखा है न कि तुझसे भी दिलफरेब हैं गम रोज़गार के। और भी बहुत से काम करने को हैं। मगर इसे खत्म करने से पहले अगर शुक्ला के प्रेम पर चर्चा न करूं तो ये इस दास्तां के साथ बड़ी नाइंसाफी होगी। अब ये भी एक संयोग ही था कि शुक्ला जिस लड़की को दस साल तक टूटकर चाहते रहे, वो लड़की इन दस सालों में शुक्ला के वजूद से ही नावाकिफ रही। शुक्ला उस लड़की को जानते थे और वो लड़की मुझे जानती थी। उलझन ये थी कि गोया उस लड़की को शुक्ला से वाकिफ कराने की कोशिश में वो मुझसे अच्छी तरह वाकिफ हुई जा रही थी। आखिर एक दिन मैंने हिम्मत की इंतिहा पार करते हुए शुक्ला को किसी बहाने से उसके घर बुला लिया। घर के ड्राइंग रुम में कुल जमा तीन शख्स। शुक्ला, मैं और वो। यहां भी अजीब समीकरण था। शुक्ला उसे देखे जा रहे थे, वो मुझे और मैं अपने नसीब को। पूरे एक घंटे तक हम बैठे रहे। इस दौरान दो बार पार्ले जी बिस्कुट और इतने ही बार पड़ोस की साइकिल रिपेयरिंग के बगल वाली दुकान से लाई गई दालमोट की नमकीन वाली प्लेटें आ चुकी थीं। मगर शुक्ला ने एक नजर भी पार्ले जी और दालमोट की ओर न देखा। शुक्ला का इक्वेशन बहुत क्लियर था। पार्ले जी और दालमोट को देखने के लिए नजरें नीचीं करनी पड़ेंगी और इस तरह से 10 सालों के इंतजार के बाद मिले इन अनमोल लम्हों में से कुछ का कत्ल हो जाएगा। खैर मैं शुक्ला को मिलाकर बाहर ले आया। इसके बाद के अगले तीन सालों तक जब तक कि उस लड़की की शादी नही हो गई, यही सिलसिला बदस्तूर कायम रहा कि शुक्ला उसे जानते रहे और वो मुझे जानती रही। मुझे कभी कभी लगता है कि शुक्ला ने इस बात के लिए मुझे कभी माफ नहीं किया। आज भी जब मैं शुक्ला को गुस्से में बोलते सुनता हूं- “सुन बे अभिषेक उपाध्याय”- तो मेरी नजरों के आगे उस लड़की का चेहरा झूल जाता है। मुझे हमेशा एक ही ख्याल आता है कि वो लड़की ऊपर कहीं बैठी हुई शुक्ला के गुस्से की आग में लगातार घी का विसर्जन कर रही है। शुक्ला उसे नहीं देख पा रहे हैं, मगर मैं उसे देख रहा हूं।
शुक्ला मेरे दोस्त। मेरी जान। अगर कुछ ज्यादा या कम लिख दिया हो तो बुरा मत मानना। तुम्हें दिल से प्यार करता हूं इसलिए दिल से इतना कुछ लिख दिया। तुम आगे बढ़ो। ऊंचाइयों का क्षितिज छू लो। मेरी दुआ है और दिली तमन्ना भी कि एक दिन विश्व का सबसे बड़ा अकेडमी अवार्ड तुम्हारे ही हाथों में होगा और उस दिन तुम्हारा ये दोस्त पत्रकारिता छोड़कर तुम्हारे वास्ते प्रेस कांफ्रेस कर रहा होगा।
इंडिया टीवी में वरिष्ठ पद पर कार्यरत युवा और तेजतर्रार पत्रकार अभिषेक उपाध्याय के फेसबुक वॉल से.
Gaurav
October 10, 2014 at 10:14 am
Bahut hi shandar likha hai………sach me mja aa gya yr………..bahut hi acche abhishek SIR 🙂
धीरेन्द्र सिंह
October 10, 2014 at 10:30 am
कमाल का लेखन है अभिषेक सर/अपने तो स्वर्गीय श्रीलाल जी की के रागदरबारी की याद ताज़ा कर दी—-इलाहाबादी प्रतिभा के साक्षात् दर्शन और प्रदर्शन है—–आपको बहुत बहुत प्रणाम