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पता होता तो लेख देने से पहले मैं ‘तहलका’ का पंचनामा कर डालता

कुछ माह पहले एक केस के सिलसिले में पत्रकारों के कानूनी अधिकार पर अधिवक्‍ता कोलिन गोंजाल्विस के एनजीओ एचआरएलएन में बैठक हुई। बैठक में मीडिया और पत्रकारों की आज़ादी व कानून पर एक राष्‍ट्रीय सेमिनार की परिकल्‍पना बनी। एक संगठन बनाने का आइडिया आया। दो दिन का वह प्रस्‍तावित राष्‍ट्रीय सेमिनार गत दिवस ही खत्‍म हुआ। रायसीना के जंगल में मोर नाच लिया। किसी ने नहीं देखा। जिन्‍होंने देखा, उनमें इक्‍का-दुक्‍का को छोड़ कोई किसी को नहीं जानता। 

कुछ माह पहले एक केस के सिलसिले में पत्रकारों के कानूनी अधिकार पर अधिवक्‍ता कोलिन गोंजाल्विस के एनजीओ एचआरएलएन में बैठक हुई। बैठक में मीडिया और पत्रकारों की आज़ादी व कानून पर एक राष्‍ट्रीय सेमिनार की परिकल्‍पना बनी। एक संगठन बनाने का आइडिया आया। दो दिन का वह प्रस्‍तावित राष्‍ट्रीय सेमिनार गत दिवस ही खत्‍म हुआ। रायसीना के जंगल में मोर नाच लिया। किसी ने नहीं देखा। जिन्‍होंने देखा, उनमें इक्‍का-दुक्‍का को छोड़ कोई किसी को नहीं जानता। 

प्रेस क्‍लब ऑफ इंडिया, महिला प्रेस क्‍लब, डीयूजे, मुंबई प्रेस क्‍लब, एचआरएलएन और आइएफडब्‍लूजे ने मिलकर प्रेस क्‍लब में मीडिया की आज़ादी और पत्रकारों के कानूनी अधिकार पर दो दिन का जो राष्‍ट्रीय परामर्श आयोजित करवाया, उसकी औपचारिक या अनौपचारिक कोई भी सूचना पत्रकार बिरादरी को नहीं दी गई। वक्‍ताओं में पुराने यूनियनबाज़ के. विक्रम राव, अख़बार मालिक अपूर्व जोशी, कार्टूनबाज़ असीम त्रिवेदी, एकाध सेलिब्रिटी वाम महिलाएं, उत्‍तराखण्‍ड परिवर्तन दल के पी.सी. तिवारी जैसे पत्रकारिता के लिहाज से अप्रासंगिक नाम शामिल थे। हिंदी या भाषायी पत्रकारों की नुमाइंदगी शून्‍य के करीब थी। कहते हैं आयोजन सफल रहा और संगठन भी बन गया।

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एक और किस्‍सा। मुझसे चुनावी मौसम में उग आए नए चैनलों के घपले पर एक लेख लिखने को कहा गया। मैंने लिखकर दे दिया। हाथ में अंक आया तो देखा कि वह तो पत्रकारिता विशेषांक था-”प्रेस का पंचनामा”। विशेषांक की बात मुझे नहीं बताई गई थी। मुझे यदि पता होता कि पत्रकारीय नैतिकता पर सामूहिक उपदेश देने के लिए ‘तहलका’ प्रेस का पंचनामा करने जा रहा है, तो सबसे पहले मैं उसका पंचनामा करता कि वहां कर्मचारियों को कुछ महीने से वेतन क्‍यों नहीं दिया जा रहा। तरुण तेजपाल के पंक में डूबी पत्रिका आखिर किस नैतिक ज़मीन पर खड़े होकर ऐसा अंक निकाल सकती है? आश्‍चर्य, कि जिन्‍होंने भी इसमें प्रिंट पत्रकारिता पर लेख लिखे हैं, उन्‍होंने तहलका पर एक भी टिप्‍पणी नहीं की है। क्‍या उन्‍हें भी विशेषांक की सूचना देने के बजाय एक स्‍टैंड अलोन लेख की मांग की गई थी या फिर वे लेखक यह जानते हुए भी चतुराई बरत गए?

मुझे लगता है कि हमारे जैसे लोग वामपंथी कारसेवक बनकर रह गए हैं। हम लिखेंगे, नारा लगाएंगे, धरने में जाएंगे, लेकिन राष्‍ट्रीय सेमिनार/संगठन आदि में चुपके से भुला दिए जाएंगे। हमसे आइडिया लिया जाएगा, लेख लिखवाया जाएगा, लेकिन बगैर यह बताए कि सारी कवायद उलटे चोर को कोतवाल बनाने के लिए की जा रही थी। इस देश में संघर्ष कोई करेगा, संघर्ष पर लिखेगा कोई और जबकि संघर्ष के लिए नीतियां कोई तीसरा बनाएगा। सबका काम तय कर दिया गया है। नारे लगाने वाले को संघर्ष की रणनीति बनाते समय पूछा जाएगा, इस गफ़लत में न रहें। इसके उलट नारे लगाने वाले को बदनाम ज़रूर कर दिया जाएगा। सब मिले हुए हैं। सब के सब…।

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अभिषेक श्रीवास्तव के एफबी वाल से

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0 Comments

  1. SANJAYA KUMAR SINGH

    August 11, 2015 at 4:39 pm

    और लिखने का पैसा कोई और खा रहा है।

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