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सुख-दुख

अमेरिका की महिलाओं ने ‘सेक्स हड़ताल’ कर दिया!

जैसा कि जर्मेन ग्रीयर ने कहा औरतों को श्रम से अपना हाथ खींच कर हर तरह के श्रम से स्ट्राइक करनी चाहिए । आधी दुनिया पूरी तरह से चक्का जाम कर दे । सेक्स स्ट्राइक सहित । -नीलिमा चौहान


सही तो है स्ट्राइक। फर्क तो औरत मर्द दोनों को पड़ेगा। लगी तो दोनों ओर की ही बुझनी होती है! मन को तो स्त्रियों को भी उतना ही संभालना होगा जितना कि मर्दों को! -मुसाफ़िर बैठा


पुरूष आत्मनिर्भर बनेंगे वहां। रही रिप्रोडक्शन की बात तो उसका सवाल बाद में आता है। -अरुण कुमार

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अणु शक्ति सिंह-

दुनिया अभी रेग्रेशन की ओर है, यानी पीछे की दिशा में चल रही है। विकास की पहली परिभाषा स्त्रियों के अधिकारों की सुरक्षा है। अपने यहाँ औरतों को सौ साल बाद वोटिंग का अधिकार देने वाले अमेरिका ने कल उनसे एक बेहद ज़रूरी अधिकार छीन लिया।

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अबॉर्शन या गर्भ-समापन का यह अधिकार बेहद मुश्क़िल से उन्हें मिला था। इस अधिकार का अर्थ स्त्रियों का अपने शरीर पर नियंत्रण होना था। यह समझा जाना था कि वे न समाज की थाती हैं न व्यक्ति विशेष की।

मैं अमेरिका को बेहद प्रोग्रेसिव मानने से कतराती रही हूँ। यह तकनीकी रूप से विकसित देश है, सामाजिक रूप से बेहद पीछे है। स्त्रियों का जितना ऑब्जेक्टिफ़िकेशन इस देश ने किया है, वह कोई अन्य बमुश्किल ही करेगा।
हाँ, वहाँ का लोकतंत्र पुख़्ता है और मुझे यक़ीन है कि कोई आवाज़ इस रेग्रेसिव सुप्रीम कोर्ट फ़ैसले के ख़िलाफ़ उठेगी।

लोकतंत्र का बेहतर होना उम्मीद दाख़िल करता है पर यह फ़ैसला नज़ीर नहीं है। न ही भारतीयों के लिए , न ही किसी अन्य देश के लिए।

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गर्भ समापन एक स्त्री का अधिकार है। उसकी अपने शरीर पर स्वायत्ता की गारंटी है और यह उसे किसी भी सूरत में हासिल रहना चाहिए।

एक बात और, सामाजिक और तकनीकी रूप से हम कितने भी पिछड़े हों, गर्भ-समापन को लेकर भारत बहुत सारे देशों से बेहतर है। हाँ, सुधार लाज़िम चीज़ है। यह निरंतर होते रहना चाहिए।

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चंद्र भूषण-

अमेरिका में एक कदम पीछे गई स्त्रियों की आजादी

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गर्भपात पर रोक को सामान्य स्थितियों में गैरकानूनी बना देने वाले अपने ही पचास साल पुराने ऐतिहासिक फैसले को अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने पलट दिया है। ‘डॉब्स बनाम जैक्सन वीमेन्स हेल्थ ऑर्गनाइजेशन’ के मुकदमे में 4 के मुकाबले 5 न्यायाधीशों के बहुमत से सुनाए गए इस नए फैसले के बाद कई अमेरिकी राज्यों में 1973 के पहले से चले आ रहे गर्भपात विरोधी कानून फिर से प्रभावी हो गए हैं, जबकि कुछ राज्यों में गर्भपात प्रतिबंधित करने वाले कानून बनाने की प्रक्रिया जड़ से शुरू हो गई है। मोटा अनुमान है कि साल बीतने तक कुल 50 अमेरिकी राज्यों में से 26 के अस्पतालों में इस आशय की सभी सेवाएं समाप्त कर दी जाएंगी।

अमेरिका के लिए यह बदलाव कितना बड़ा और वहां के समाज के लिए किस हद तक धक्के का सबब है, इसका अंदाजा भारत में मुश्किल से ही लगाया जा सकता है। कारण यह कि धार्मिक रोक न होने से गर्भपात हमारे देश में कभी कोई मुद्दा ही नहीं बना। अमेरिकी महिलाओं के लिए गर्भपात यकीनन बहुत बड़ा मुद्दा रहा है। 1970 से पहले तक आयरलैंड जैसे कैथलिक देशों की तरह अमेरिका के अधिकतर राज्यों में भी एक गर्भवती स्त्री का प्रसव तक जाना अनिवार्य था। भले ही इस क्रम में उसकी मृत्यु ही क्यों न हो जाए। ज्यादा साल नहीं हुए, जब आयरलैंड में नौकरी करने गए एक भारतीय पुरुष को ऐसी ही स्थितियों में अपनी पत्नी को पल-पल मरते हुए देखना पड़ा था।

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डॉक्टरों का कहना था कि स्त्री की जान बचाने के लिए बच्चे को एबॉर्ट करना जरूरी है। लेकिन सजा के डर से कोई आयरिश डॉक्टर न तो खुद इस काम के लिए आगे आया, न ही मरीज को घंटे भर की दूरी पर किसी ब्रिटिश अस्पताल के लिए रेफर किया, जहां एक मामूली सर्जरी से महिला की जान बच सकती थी। अमेरिका में स्त्रियां ज्यादा कामकाजी हैं, और बाकी दुनिया के मुकाबले बंदिशें भी उन्होंने अपने ऊपर कम ओढ़ रखी हैं। लिहाजा वे अपने इस अधिकार के लिए लड़ीं।

रो बनाम वेड

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1970 में दो महिला वकीलों सारा वेडिंगटन और लिंडा कॉफी ने कुछ नाकाम कोशिशों के बाद अमेरिका के दक्षिणी प्रांत टैक्सस में 21 साल की एक गर्भवती स्त्री नोर्मा मैककॉर्वी को खोज निकाला, जो चूल्हे-चौके के चक्करों में पड़ने के बजाय कुछ दिन और अपनी जिंदगी का आनंद लेना चाहती थी। गर्भपात के अधिकार के लिए यह मुकदमा उत्तरी टैक्सस जिले की जिला अदालत में चला और महिला की पहचान गुप्त रखने के लिए उसे ‘जेन रो’ नाम दिया गया। आम दायरों में इस जगत्प्रसिद्ध मुकदमे को ‘रो बनाम वेड’ शीर्षक से जाना जाता है। यहां वेड शब्द हेनरी वेड के लिए आता है, जो उत्तरी टैक्सस जिले के कड़क कंजर्वेटिव सरकारी वकील थे।

संयोगवश, तीन जजों की बेंच में एक फेमिनिस्ट महिला भी थीं और दो-एक के बहुमत से मुकदमे का फैसला ‘रो’ यानी गर्भपात के पक्ष में हो गया। ध्यान रहे, यह गर्भपात हुआ नहीं क्योंकि फैसले को सीधे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी गई। लोकल मुकदमा जीत चुकी जेन रो (नोर्मा मैककॉर्वी) ने एक बच्ची को जन्म दिया, जिसको किसी और जोड़े ने गोद ले लिया। लेकिन दो साल की सुनवाई के बाद 1973 में सुप्रीम कोर्ट में बहुत बड़ा खेल हो गया।

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वहां नौ जजों की संवैधानिक बेंच ने 2 के मुकाबले 7 के बहुमत से फैसला सुनाया कि एक स्त्री द्वारा गर्भपात कराने का फैसला उसके निजता के अधिकार के दायरे में आता है, और संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान का चौदहवां संशोधन निजता के अधिकार को मनुष्य का मूलभूत अधिकार मानता है। इसी के अनुरूप अदालत ने टैक्सस राज्य के गर्भपात कानून को असंवैधानिक करार दिया और अमेरिका के जिन भी राज्यों में ऐसे कानून मौजूद थे, उन सभी को कुछ विशेष स्थितियों को छोड़कर हर मामले में गर्भपात को कानूनी मान्यता देनी पड़ी। अदालत ने इन विशेष स्थितियों की व्याख्या भी की थी। गर्भावस्था को उसने तीन तिमाहियों में बांटा।

पहली तिमाही में इसे पूरी तरह स्त्री पर छोड़ दिया गया कि वह बच्चा रखना चाहती है या नहीं। दूसरी तिमाही में राज्यों को अधिकार दिया गया कि गर्भपात से स्त्री की जान पर खतरा होने की स्थिति में वे इसको गैरकानूनी बना सकते हैं। तीसरी तिमाही में किसी शारीरिक बाध्यता की स्थिति में ही गर्भपात कराने की इजाजत दी गई, क्योंकि यह जच्चा और बच्चा, दोनों के लिए जानलेवा हो सकता है। स्त्रियों की आजादी के लिए ऐतिहासिक बताए गए इस फैसले में एक बड़ा मोड़ 1992 में ‘प्लैंड पैरेंटहुड बनाम कैसी’ मामले में आया। वेड की तरह कैसी नाम भी एक सरकारी वकील का है, लेकिन यहां मामला ज्यादा सैद्धांतिक था।

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‘रो बनाम वेड’ में दलीलें निजता के अधिकार के इर्दगिर्द बुनी गई थीं लेकिन मूल चिंता गर्भवती स्त्री के स्वास्थ्य को लेकर थी। 1992 के मुकदमे में अदालत के सामने यह सवाल आया कि कोई स्त्री आर्थिक या सामाजिक, किसी भी कारण से अगर बच्चा पालने की स्थिति में न हो, तो उसे अपने गर्भ के बारे में फैसला लेने का अधिकार क्यों नहीं होना चाहिए? इस मामले में भी फैसला गर्भपात के पक्ष में आया और ‘मेरा शरीर, मेरा अधिकार’ की बात पूरी हुई। जाहिर है, हर मुकदमे की तरह इस फैसले में भी एक जटिल बात का सिर्फ एक पक्ष जाहिर होता है। अमेरिका में लड़कियों के माता-पिता उनके गैरजिम्मेदाराना रवैये को लेकर चिंतित रहते हैं। अट्ठारह साल की लड़की पांच गर्भपात करा चुकने के बाद दुनिया और जीवन के प्रति कितनी गंभीर हो सकती है?

हमलावर होता ट्रंपिज्म

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यहां से रूढ़िवादी पक्ष के आगे आने की जमीन तैयार होती है, जो डॉनल्ड ट्रंप के कार्यकाल में और भी कई कारणों से मजबूत हुआ है। तटस्थ अमेरिकी विश्लेषकों के बीच एक राय बन रही है कि डेमोक्रेट जोसफ बाइडन ने रिपब्लिकन डॉनल्ड ट्रंप को कोरोना और अन्य कारणों से चुनाव में जैसे-तैसे हरा तो दिया, लेकिन ट्रंपिज्म यानी अल्ट्रा-कंजर्वेटिज्म बाइडन-राज में और मजबूत ही हो रहा है। अकारण जनसंहार की कई घटनाओं के बावजूद पिछले हफ्ते न्यूयॉर्क प्रांत में अदालत ने एक ऐसे कानून को असंवैधानिक घोषित कर दिया, जिसके तहत कोई आग्नेयास्त्र लेकर बाहर निकलने के लिए कोई ठोस कारण बताना जरूरी था।

यहां एक और पहलू पर ध्यान खींचना जरूरी है कि अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने ‘रो बनाम वेड’ केस का फैसला पलटने के साथ यह बात भी जोड़ी है कि अमेरिकी संसद अगर गर्भपात को पूरी तरह कानूनी दायरे में लाना चाहती है तो इस आशय का कानून बनाए। दरअसल, अमेरिकी राजनीति की कमजोर नस यही है कि वहां दोनों पक्षों के नेता किसी को नाराज नहीं करना चाहते। गर्भपात अगर अमेरिका के लोकतांत्रिक एजेंडा का इतना ही खास बिंदु है तो जोसफ बाइडन को इसपर कानून बनाने की पहल क्यों नहीं करनी चाहिए?

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