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सुख-दुख

एशिया के कई देशों के लिए ये काल खंड ‘अच्छे दिन’ वाला है!

अजीत साही-

पंद्रह अगस्त को जब तालिबान ने काबुल पर क़ब्ज़ा किया तो हज़ारों काबुली लोग शहर और देश छोड़ कर भागने की को कोशिश करने लगे. पिछले एक हफ़्ते में हमने सैंकड़ों तस्वीरों और वीडियो में देखा बदहवास लोग जान जोखिम में डाल बाहर निकल जाना चाहते हैं. उड़ते हवाई जहाज़ से गिरकर मरने वालों की ह्रदय विदारक तस्वीरें देखने को मिली हैं. काबुल के हवाई अड्डे के बाहर लोग भीड़ में पिस कर मर रहे हैं.

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तालिबान का समर्थन करने वाले कुछ लोग ये कह रहे हैं कि भागने वाले अधिकतर वो हैं जो अमेरिकी क़ब्ज़े के दौरान अमेरिका और उसकी पिट्ठू सरकार के दलाल थे. ये सही है कि हज़ारों लोगों ने अमेरिकी क़ब्ज़े के दौरान अमेरिका के साथ मिलकर काम किया था. लेकिन ये कहना ग़लत होगा कि भागने की कोशिश करने वाले सभी ऐसे ही लोग हैं. अगर ऐसा होता तो पिछले चालीस सालों से अफ़ग़ानिस्तान से भागने का सिलसिला नहीं चल रहा होता.

दरअसल पिछले चालीस सालों में अफ़ग़ानिस्तान से भागने वालों की संख्या इतनी अधिक है कि आज माना जाता है दुनिया में सीरिया के लोगों के बाद सबसे अधिक तादाद के शरणार्थी अफ़ग़ान ही हैं. संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार परिषद के मुताबिक़ 2017 में पैंतीस लाख से अधिक अफ़ग़ान साठ देशों में शरणार्थी थे. इनमें पंद्रह लाख से पच्चीस लाख तो अनुमानतः सिर्फ़ पाकिस्तान में हैं. माना जाता है कि क़रीब दस लाख ईरान में हैं.

हालाँकि सारी गिनती अटकल ही है क्योंकि किसी देश ने अपने यहाँ अफ़ग़ान शरणार्थियों की जनगणना नहीं की है. शरणार्थी तो छोड़िए, अफ़ग़ानिस्तान में ही पिछले पचास साल में जनगणना नहीं हुई है क्योंकि उस देश में हिंसा के ज़रिए सत्ता परिवर्तन का सिलसिला 1970 के दशक से ही शुरू हो गया था जिसके चलते देश में अस्थिरता बढ़ती चली गई और बंदूक़ के साये में आज तक जीवन और प्रशासन सामान्य ही नहीं हो पाया है.

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बहुत लोग अफ़ग़ान लोगों के स्वाभिमान और ख़ुद्दारी की दाद देते हुए बताते हैं कि ये वो क़ौम है जिसने मानव इतिहास को दो सबसे शक्तिशाली साम्राज्य — सोवियत संघ और अमेरिका — को धूल चटवा दी. अंतरराष्ट्रीय राजनीति में पश्चिम और मुस्लिम क़ौमों में बहुत पुराना छत्तीस का आँकड़ा है. पिछले सौ साल में पश्चिम के देशों ने मुस्लिम देशों पर या तो क़ब्ज़ा किया या फिर युद्ध में हराकर उन पर अपने पिट्ठू बादशाह बैठा दिए. इस वजह से दुनिया के कई मुसलमान अमेरिका की हार में अपनी जीत देखते हैं. ये भी सच है कि किस भी मुस्लिम देश में स्थानीय गुटों ने जितनी भी हिंसा की हो, अमेरिकी और यूरोप की हिंसा के आगे उनकी हिंसा फीकी ही मानी जाएगी. इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि मध्य एशिया और दक्षिण एशिया में हिंसा के क्रम का असली मुजरिम अमेरिका, यूरोप और पूर्व सोवियत संघ है.

लेकिन अफ़ग़ानिस्तान से भागने वाले लाखों शरणार्थी हों या वहाँ बसे अनुमानतः पौने चार करोड़ लोग हों, उनको इससे कोई सरोकार नहीं कि पचास साल से जारी जंग में कब कौन जीता और कौन हारा. हर पाँच-दस साल पर कोई न कोई हार और कोई न कोई जीत रहा है. लेकिन इस पूरे दौर में शरणार्थियों और अफ़ग़ानिस्तान में रह रहे लोगों को हार ही हार मिल रही है. उनकी अपनी दुखद दास्तान है जो आधी सदी से ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही है. भुखमरी आम है. कमाई के साधन ख़त्म होते चले गए हैं. बीमारी ने जड़ पकड़ लिया है. स्कूली शिक्षा न के बराबर है. लोग पुश्त दर पुश्त क़र्ज़ में डूब चुके हैं. पाकिस्तान में रह रहे अफ़ग़ान शरणार्थियों को नागरिक का दर्जा मिलना दूर, मूल सुविधाएँ भी मुहैया नहीं होती है. आज वहाँ शरणार्थियों में तीसरी पीढ़ी आ गई जिसने अफ़ग़ानिस्तान देखा ही नहीं. लेकिन उनको भी पाकिस्तान में शक की निगाह से देखा जाता है.

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अगर सच में अफ़ग़ानिस्तान में और अच्छे दिन की कामना करनी है तो सबसे पहले पचास साल से चालू युद्ध को विराम देना होगा. यही वजह है कि अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन, यूरोपीय यूनियन, जर्मनी इत्यादि के नेता कह रहे हैं कि वो तालिबान के साथ मिल कर काम कर सकते हैं बशर्ते तालिबान हिंसा को लगाम दें. साथ ही उनको ये भी समझ आ रहा है कि उनको भी अपनी हिंसा को लगाम देना होगा. दुनिया में बहुतेरे देश हैं जहाँ पर दुर्भाग्यवश तानाशाही क़ायम है. ऐसे देशों में जहाँ हिंसा से नहीं आंदोलन से और सामाजिक दबाव से बदलाव की राजनीति होती है वहीं बेहतरी की उम्मीद भी होती है.

तालिबानी राज में चुनावी लोकतंत्र का आना नामुमकिन लगता है. लेकिन तालिबान को हटाने का रास्ता हिंसा नहीं हो सकता है. अगर तालिबान हिंसा से हटाए गए तो फिर उनके बाद सत्ता में आने वाला भी हिंसा के आधार पर ही राज करेगा. अगर इस कुचक्र को तोड़ना है तो धीरे-धीरे लोकनीति और प्रशासन को मज़बूत करना होगा जिससे कि आम जनता ग़ुरबत और भुखमरी से बाहर निकलना शुरू करे. पढ़ाई-लिखाई, दवा-दारू, रोज़गार — यही मुद्दे हैं आम जनता के. इस काम में पश्चिम के देश धन, सामग्री और मानव संसाधन के ज़रिए मदद कर सकते हैं. भारत को भी यही करना चाहिए.

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अगर तालिबान अपने देशवासियों को अच्छे दिन नहीं दे पाते हैं तो देशवासियों को पूरा हक़ होगा उनके ख़िलाफ़ आंदोलन करने का. ऐसे में भारत ही क्या, दुनिया के सभी देशों को जनता के साथ खड़ा होना होगा. लेकिन आज की ज़रूरत ये है कि दुनिया के सभी देश मिल कर शांति बहाल करने में तालिबान की मदद का ऐलान करें. ऐसे में तालिबान पर भी दबाव बनेगा कि वो दुनिया के सामने साफ़ करें कि वो अपनी आवाम की बेहतरी की सोचते हैं या वो महज़ वही हैं जो दुनिया उनके बारे में कहती है: आतंकवादी.


मनीष सिंह-

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अफगानिस्तान में भारत की हालत, उस टेंट वाले सी है जिसका शामियाना फाड़ दिया गया है, दुल्हन गायब है, बाराती भाग गए हैं। दुनिया आपसे बेपरवाह है, और आपके रोने चिल्लाने से किसी को फर्क नही पड़ता।

आठ साल पहले काबुल में भारत की वकत थी, हम रीजन टू स्माइल थे। अमेरिका करीब आ गया था, लेकिन रूस दूर नही गया था। तब हमारी जेब भी भरी हुई थी, तो बीजिंग, ब्रसेल्स, काबुल, वाशिंगटन, तेहरान और मास्को तक पूछ परख थी।

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तब हमने गले मे किसी का पट्टा नही पहना था। हम जिम्मेदार, और महत्वपूर्ण समझे जाते थे। मोदी सरकार ने ये हालात बदल दिए।

विदेश की सरकारों ने शुरुआत में हमारे नेता के बचकाने सर्कसों को स्मित हास्य के साथ देखा। लेकिन मेडिसन और वेम्बले के नाच गान ने भारत में प्रोपगेंडे के लिए बड़ी नयनाभिराम तस्वीरे दी, तो ये जुनून बढ़ता गया।

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फिर भी ओबामा की प्याली में चाय उड़ेलते मोदी, इज्जत पा रहे थे। लेकिन पांच साल बाद, पचास हजार अमेरिकन भारतवंशियों के बीच “अबकी बार ट्रम्प सरकार” का नारा लगाकर वो ट्रम्प के पर्सनल हवलदार बन गए।

भारत की गरिमा पर ये जबरजस्त वार तो था ही,.. आगामी बिडेन प्रशासन की हिकारत, मोदी ने उसी दिन खरीद ली थी।

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ट्रम्प का “कालिया” बनने को बेकरार मोदी ने, पहले उसका नमक खाया, फिर गोली खाई। जी हां, ट्रंप के पूरे कार्यकाल के दौरान भारत रिरियाता रहा, मिन्नतें करता रहा, बेइज्जत होता रहा। ट्रम्प ने भारत पर एंटी डंपिंग शुल्क लगाया, निर्यात कठिन किये।

भारतीय वीजा मुश्किल किये, जॉब्स को “बैगलोर्ड” होने से रोका, हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वीन के मुद्दे पर सीधे ट्वीट कर कुकुरझौसी कर दी। लेकिन शेर मोदी, दुम हिलाते रहे, उकड़ूँ होकर नमस्ते ट्रंप करते रहे।

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ट्रम्प की ताबेदारी ने ईरान से हमारे रिश्ते खराब करवाये। पहले ईरान से तेल खरीदना रुकवा दिया, फिर यूएन में कई मसलों पर हमें ईरानी हितों से मुंह चुराना पड़ा। मोदी नीत भारत को लगातार घुटने टेकते देख, आखिरकार ईरान ने हमें चाबहार से बाहर फेंक दिया।

अफगानिस्तान में हमारे इर्रिलेवेंट होने की नींव उसी वक्त रख दी गयी थी।
फिर ईरान से सस्ता तेल, हमने खरीदना रोक दिया, महंगी कीमत मैं और आप भरते रहे। फिर हमारे पैसों से बना, चाबहार का इन्वेस्टमेंट डूबा। इससे अफगानिस्तान में पकड़ बनाने का एकमात्र रास्ता बंद हुआ।अब तालिबान आने के बाद अफगानिस्तान में किया इन्वेस्टमेंट भी लगभग डूब चुका है।

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ईरान चीन की ओर खिसक चुका है, तालिबान से रिश्ते बना लिए हैं, रूस उनके साथ आ चुका है, और पाकिस्तान अपनी जियोग्राफी के कारण अपरिहार्य है। हम दुनिया मे अमरीकी चमचे के रूप में देखे जा रहे हैं, जिसे खुद अमेरिका भी भाव नही देता।


धुर दक्षिणपन्थी नीति भी भारत के पराभव का कारण है। यूरोप और उत्तर अमेरिका की आर्थिक नीतियां कैप्टलिस्ट हैं, पर समाज दक्षिणपन्थी नही। दरअसल डेमोक्रेटिक वेलफेयर गवर्नमेंट का ऑब्जेक्टिव ही “लेफ्ट टू द सेंटर” सोसायटी होती है। दिक्कत यह कि भारतीय मूर्ख संघ समझता है कि कैप्टलिस्ट नीतियां, और समाज में दक्षिणपन्थ का चोली दामन का साथ होता है।

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असल मे यूरोप, जो नाजी और फासिज्म रचित ध्वंस को झेल चुका है, दक्षिणपन्थी लीडरों को हमेशा शंका से देखता है। इसलिए बोन्सनरो, नेतन्याहू, एर्दोगन जैसे लीडरों के साथ मोदी को रखा जाना कोई बड़ी इज्जतदार छवि नही देता।

कश्मीर में यूरोपियन सन्सद के अनजान, लेकिन बकवासी दक्षिणपन्थी सांसदों की यात्रा जैसे मूर्खतापूर्ण प्रयास, लाभ कम और मोदी की दक्षिणपन्थी छवि को मजबूती ही देते रहे हैं। घरेलू नीतियां, उनकी पागल फ़ौज, इंटरनेशनल ट्रोलर्स, मिलकर करेले पर नीम ही बनते हैं।

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नतीजा यह है, कि अपने भाषणों में गांधी की तमाम चिकनी चुपड़ी प्रशंसा के बावजूद वे “डिवाइडर इन चीफ” के रूप में टाइम के मुखपृष्ठ पर शोभायमान हो चुके है।

रफेल डील, ब्राजील द्वारा भारतीय वैक्सीन का करार तोड़ने, पत्रकारों पर हमले, विपक्ष का दमन और लिंचिंग जैसी खबरे विश्व मीडिया में लगातार छप रही हैं। वे बेतहाशा प्यार किये गए, हरदिल-अजीज नेता तो कभी नही थे, पर अब लगभग पेरियाह गति को प्राप्त हो चुके हैं।

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पूरब में देखिये, तो पड़ोसी देशों से रिश्ते खराब कर चुके और पश्चिमी देशों में सम्मान खो चुके मोदी की यहाँ भी खास वकत नही बची। आसियान देशों से चार साल तक मुक्त व्यापार समझौते को नेगोशिएशन करने के बाद, घरेलू क्रोनी उद्योगपतियों के दबाव में आखरी वक्त पर कदम खींच लिए। वे नाराज हैं, “एक्ट ईस्ट” का पत्ता भी साफ है।

ब्रिक्स और सार्क ठंडे बस्ते में हैं, ले देकर आपके हाथ मे क्वाड है। कुल मिलाकर मोदी जी अपने डिप्लोमेसी के टोकरे का रायता फैलाकर चारो खाने चित्त है।

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निजी छवि पर पूरी विदेश नीति टिका देने के नतीजे सामने हैं। अफसोस यह है कि यह गति मोदी की निजी नही, एक नेशन स्टेट के रूप में भारत की है। तो केवल काबुल में ही नही, दुनिया भर में भारत की हालत, उस टेंट वाले सी है जिसका शामियाना फाड़ दिया गया है, दुल्हन गायब है, बाराती भाग गए हैं।

और दुनिया आपसे बेपरवाह है, और आपके रोने चिल्लाने से किसी को फर्क नही पड़ता।

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1 Comment

1 Comment

  1. हट बुड़बक

    August 23, 2021 at 3:26 pm

    मनीष सिंह जी दरअसल गलती मोदी गलती से हो गई. जयशंकर की जगह वो मनीष सिंह की ओर देखना भूल गए, लगता है कोने में खड़े थे. पूरा विदेश नीति 700-800 शब्द में बांच दिए.

    आठ साल पहले सब ठीक था. तालिबान तब मनमोहन सिंह को मालगुजारी देता था. है न…

    पाकिस्तान फेफा रहा है…कह कह कर कि भारत से भगाओ मेरा जीना मुहाल कर दिया है. ब्लूचिस्तान में हालत खराब कर दिया है. RAW को पानी पी पी कर गरिया रहा है, रोज बम फूट रहा है, पाकिस्तान का कैप्टन-लेफ्टिनेंट गिर रहा है. BLA डंडा करके रख दिया है पाकिस्तान को.

    खैर आपको लगता है भारत कुछ किया ही नहीं है.

    महाराज…कूटनीति में जो दिखता है वही नहीं होता है. उसके कई लेयर और शेड्स होते हैं. जम्मू-कश्मीर से 370 भारत ने चुटकी में हटा दिया. दुनिया चूं नहीं कर सकी. बालाकोट में भारत ने आत्मरक्षा में दिलेरी के साथ अंतरराष्ट्रीय सीमा लांघ दी. इससे पहले पाकिस्तान सार्क का एक सम्मेलन नहीं करवा सका. लेकिन मरदवा आपको मोदी को गरियाना है…तो कुछ नहीं मिला तो तालिबान को खोज कर ले आए.

    और ये आप जो कह रहे हैं कि अफगानिस्तान में भारत का अरबों डूब गया तो ऐसा होता है. गांव-घर में भी लहना-तगादा लगाने वाले का हजार पांच सौ डूबता ही है. तब वो मोहल्ले का सरदार बनता है. आपके विचार से पांच पांच पैसा चिप चिप कर रखने लगा तो रहिए घर में घी पीकर सोए.

    बहुत ताकतें हैं दुनिया में जो अफगानिस्तान में निवेश करने के लिए डोका फारे हुआ है. थोड़ा मोड़ा नुकसान तो होता ही है. और अभी तो गेम शुरू ही हुआ है. देखते जाइए. दूसरी बात तालिबान अबतक भारतीय हितों के खिलाफ कुछ नहीं बोला है.

    अमेरिका दुनिया भर में लुटा रहा है…लीबिया, सीरिया, अफगानिस्तान, इराक, यमन, यूक्रेन और न जाने कहां कहां. तब वो वर्ल्ड पावर है. आपके विचार से वो चिंदी चोरी करने लगे तो तब तो उसे घर में ही रहना चाहिए.

    चीन भी इसी रास्ते पर चल रहा है. अफ्रीका महादेश में अरबों डॉलर का निवेश है. लंका, पाकिस्तान, ईरान, म्यामांर सबका बंदरगाह खरीद रहा है. इन देशों से उनके टकराव भी होते हैं और ये होंगे भी, क्योंकि यहां पल पल हितों का संघर्ष है. क्या समंदर, क्या मरूस्थल हर जगह पैसा बहा रहा है, तभी सरकारें खरीदी जाती हैं, तभी आपका सिक्का चलता है, इस तरह से हिसाब करने से नहीं. ये दुनिया का दस्तूर है. वो आपके दरवाजे इसलिए नहीं आएंगे क्योंकि आप अमेरिका चीन या फिर भारत हैं. उनका हित सधेगा तभी आपका हित सधेगा.

    लेकिन आपको लोगों का दुर्भाग्य है…मोदी को स्वीकार कर नहीं सकते…लेकिन 24 में आएगा तो मोदी ही…29 के विकल्प पर विचार करने के लिए जनता के पास फुर्सत नहीं है. वो जय श्रीराम कर रही है.

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