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सुख-दुख

रिटायर पुलिस अफ़सर का दर्द- मैंने दो वर्ष लखनऊ में क्यों नष्ट कर दिए?

बद्री प्रसाद सिंह-

लौट कर बुद्धू घर को आए। मैं वर्ष 2013 में ३६ वर्ष ६ माह की पुलिस सेवा से निवृत्त होकर लखनऊ में पत्नी के साथ रहने लगा। प्रातः भ्रमण एवं शाम को लखनऊ गोल्फ क्लब में मित्रों के साथ गोल्फ खेलता तथा कभी-कभार मित्रों, रिश्तेदारों के घर चला जाता था।मेरा तो समय ठीक-ठाक कट रहा था लेकिन पत्नी घर में अकेली रहने के कारण उदास रहती थी।

एक शाम मैं अपने छात्रावास एवं पुलिस सेवा में वरिष्ठ , दया शंकर सिंह जी,(से.नि. पुलिस महानिरीक्षक)के घर गया तो उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं ऐसे ही बगैर बताए किसी के घर चला जाता हूं? मेरे हां कहने पर उन्होंने समझाया कि सेवानिवृत्ति के बाद कम अधिकारी ही घरेलू नौकर रखते हैं, यकायक पहुंचने पर उसकी पत्नी को ही चाय, नास्ते की तैयारी करनी पड़ती है। पता नहीं उसके घर में चाय, चीनी, नमकीन, मिठाई है भी या नहीं,अथवा उस व्यक्ति को कहीं जाना हो या कोई अन्य उसके यहां आ रहा हो। इसलिए जहां जाना हो उस व्यक्ति से पहले से समय लेकर जाना चाहिए जिससे उसे असुविधा न हो।

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मैं ग्रामीण परिवेश में पला बढ़ा होने के कारण कभी उक्त विंदु पर विचार ही नहीं किया था। गांव में बिन बताए बिन बुलाए मित्र, रिश्तेदार तो आते ही रहते हैं और लोग यथाशक्ति उनके नाश्ते का प्रबंध करते भी हैं। मैंने जब यह बात कही तो उन्होंने हंसते हुए कहा कि कुछ अधिकारियों की पत्नियां सेवाकाल में मिलने वाले सेवकों तथा अन्य सुविधाओं के कारण कामचोर,आलसी हो जाती हैं और सेवानिवृत्ति के बाद की परिस्थितियों से सामंजस्य न बिठा पाने के कारण कुछ तो चिड़चिढ़ी भी हो जाती हैं और छोटी छोटी बातों में पतिदेव को औकात बता देती हैं। मान लो जब तुम किसी के घर पहुंचे और उसकी पत्नी पति से रुष्ट है या छोटी मोटी कहासुनी हुई हो तो तुम्हें चाय भी नहीं मिलेगी और वह व्यक्ति स्वयं को अपमानित महसूस करेगा।तुम्हारे जाने के बाद उसके घर में महाभारत भी हो सकता है।

मेरी आदत थी कि जब मैं लखनऊ शहर में कहीं जा रहा होता था और किसी मित्र के घर के पास से गुजर रहा होता था तो मैं फोन से उससे बात करता था और यदि वह होता तो उसके घर पहुंच जाता।जो भी नाश्ते में आता, प्रेम से ग्रहण कर, मिल कर आगे बढ़ जाता।दया शंकर सर की नसीहत ने मेरे ज्ञान चक्षु खोल दिए अब मैं मित्रों से फोन से पहले समय मांगकर ही जाने लगा। लेकिन मैने पाया कि अधिकांश लोग कही जाने या किसी के आने की बात बता कर किसी और दिन आने को कहते।पता नहीं वह सत्य होता या टालने का कोई बहाना। इस प्रक्रिया में मेरा मित्रों के घर जाने की रफ्तार बहुत कम हो गई।

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कार्यालय समय में यदि किसी भी मित्र अधिकारी के कार्यालय जाता तो वह प्रेम से मिलता और मुझसे काम पूछता।मेरे बताने पर कि मैं मात्र मिलने आया हूं, मेरा कोई कार्य नहीं है, वह आश्वस्त होता लेकिन थोड़ी देर बाद फिर कहता कि कोई काम हो तो बेझिझक बताओ, मैं मना कर उठ लेता। इससे खीझ कर मैंने अधिकारियों से कार्यालय में मिलना बंद कर दिया। लखनऊ में मेरे कुछ रिश्तेदार थे जिनसे बेहिचक मिलता लेकिन कितनी बार?

सेवाकाल के राजनीतिक मित्रों से मिलने पर एहसास हुआ कि सेवानिवृत्ति के बाद उनका मुझे देखने का नजरिया बदल गया है क्योंकि अब मैं फ्यूज बल्ब हूं जो उनके लिए अनुपयोगी हूं।
इसी कसमकश में दो वर्ष राजधानी लखनऊ में काटकर अपना मकान किराए पर देकर अपने गांव वापस लौट आया जहां अपने बंधु बांधवों के साथ निश्चिंत रह कर शेष जीवन काट रहा हूं और खेती-बारी, बागवानी आदि में समय व्यतीत कर रहा हूं, पत्नी भी परिवार में रह कर खुश है। कभी सोचता हूं कि दो वर्ष लखनऊ में मैने क्यों नष्ट किए।

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