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उत्तर प्रदेश

यूपी में जीतने की हालत में अखिलेश निभायेंगे केन्द्र के सहयोगी की भूमिका!

केपी सिंह-

मधुलिमये के स्मरण के बहाने… : आठ जनवरी को मधुलिमये का निर्वाण दिवस था। मधुलिमये को भारत की समाजवादी राजनीति के पुरोधाओं में माना जाता है। बुर्जुआ लोकतंत्र के सबसे साफ सुथरे माॅडल की हिमायत समाजवादी आंदोलन ने की लेकिन क्या जब उसे अवसर मिला तो वह इसे चरितार्थ कर पाया। सत्ता में पहुंचे समाजवादी नेता अपने आंदोलन की आकांक्षाओं के अनुरूप सार्वजनिक जीवन में उच्च परंपराओं और मूल्यों का निर्वाह करने में चूक गये। सत्य यह है कि राजनैतिक चरितार्थ में समाजवादी आंदोलन में लोकतंत्र की साख को रसातल में पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने जिस फासिस्ट और दमनकारी राजनीति का पोषण किया उसके सामने तो भाजपा की करनी कुछ भी नहीं है। इसलिए भाजपा की राजनीति पर उंगली उठाने के लिए आज समाजवादी आंदोलन की वंशबेल कुछ नहीं कर पा रही है। जब मधुलिमये जिंदा थे तभी समाजवादी सत्ता की विकृत राजनीति सामने आने लगी थी पर उन्होंने इसका कोई प्रतिकार नहीं किया। इसकी बजाय वे गिरोहबंदी की भावना का शिकार हो गये और मुलायम सिंह की जन विरोधी राजनीति का समर्थन करके उन्होंने त्याग, सादगी और ईमानदारी की चरम सीमा से जो पुण्य कमाये थे वह पतित राजनीति को समर्थन और सहयोग देकर गंवा दिये।

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जनता दल का गठन समाजवादी आंदोलन के सिद्धांतों को मूर्तरूप देने की भावना से हुआ था जिसके तहत वंशबाद और जातिवाद का राजनीति में पूरी तरह उन्मूलन प्राथमिकता के आधार पर किया जाना था। सहयोगी दलों के साझा कार्यक्रम के तहत सरकार में फैसले लिये जाने थे। एक व्यक्ति एक पद के सिद्धांत को पूरी तरह लागू किया जाना था। चुनाव में धनबल के प्रभाव को समाप्त करने के लिए चुनाव प्रचार हेतु सरकारी फंड कायम किया जाना था-बगैरह-बगैरह। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह के नेतृत्व वाली जनता सरकार ने इसके उलट फासिस्ट तौर तरीके दिखाना शुरू कर दिये। उन्होंने अपने पहले कार्यकाल में ही अपने कदम कुनबापरस्ती की ओर बढ़ा डाले थे। इटावा में जिला पंचायत अध्यक्ष के लिए दर्शन सिंह यादव का नाम पहले आगे था जो मुलायम सिंह की राजनीति के लिए गर्दिश के दिनों में फंडिंग करते रहते थे लेकिन मुलायम सिंह ने परिवारवाद के मोह में दर्शन सिंह यादव के एहसानों को दरकिनार कर अपने चचेरे भाई प्रो0 रामगोपाल यादव को अपनी ओर से जिला पंचायत अध्यक्ष का उम्मीदवार घोषित कर डाला जबकि तब रामगोपाल यादव का नाम राजनीति में पहली बार सुना गया था।

मुलायम सिंह की इस मनमानी की वजह से दर्शन सिंह ने उनके खिलाफ बगावत कर दी थी। बाद में तो मुलायम सिंह ने परिवार के लोगों के अलावा समधी, बहनोई और दूर-दूर के सारे रिश्तेदारों को अपने राजनैतिक सहयोगियों की दावेदारी की बलि चढ़ाकर राजनीति में स्थापित करने का अभियान सा छेड़ दिया। एक व्यक्ति एक पद के सिद्धांत को अमली रूप देते हुए विश्वनाथ प्रताप सिंह ने प्रधानमंत्री बनने के बाद जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद छोड़कर यह जिम्मेदारी एसआर बोम्मई को सौंप दी जबकि उत्तर प्रदेश में भी मुलायम सिंह से मुख्यमंत्री बन जाने के कारण प्रदेश जनता दल के अध्यक्ष पद को छोड़ने का आग्रह किया गया और उनकी जगह यह उत्तरदायित्व संभालने के लिए लखनऊ भिजवाया गया जिससे मुलायम सिंह ने आपा खो दिया। वे सर्व सत्तावाद पर उतारू हो गये। उनके लोगों ने जनता दल के प्रदेश कार्यालय पर रामपूजन पटेल को पीटकर खदेड़ दिया।

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पंचायत चुनावों में उन्होंने चुनावी शुचिता की धज्जियां उड़ा डाली। इस दौरान जोर जबरदस्ती की जिस राजनीति की झलक उन्होंने दी थी वह लोकतंत्र को मृत्युशैया पर पहुंचाने वाली राजनीति थी। सार्वजनिक क्षेत्र की चुनार की डाला सीमेंट फैक्ट्री को डालमिया को बेचकर विरोध कर रहे मजदूरों पर उन्होंने गोली चलवा दी थी और यह कारनामा समाजवादी राजनीति के उसूलों को एकदम कुचलने वाला बन गया था। फिर भी मधुलिमये जैसे समाजवादी तपो पुरूष ने उन्हें टोकने की जहमत नहीं उठायी। बाद में तो मुलायम सिंह की कृपा से अमर सिंह जैसे व्यक्ति और उनकी राजनीतिक शैली समाजवादी राजनीति के केन्द्र में छा गयी। दरअसल व्यक्तिवाद की राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए विचारधारा की राजनीति को तिलांजलि अनिवार्य शर्त है। इसीलिए मुलायम सिंह और लालू प्रसाद यादव ने मौका मिलने के बाद विचार धारा की राजनीति को जिस तरह परे करने का काम किया उसके चलते आज लोग पूंछते हैं कि समाजवादी विकल्प के नाम पर इनकी पार्टियों को समर्थन दे दिया जाये तो व्यवस्था में कौन से गुणात्मक परिवर्तन आने वाले हैं बल्कि लोगों का मानना है कि स्थितियां इनको सत्ता मिलने से और खराब हो जायेंगी।

समाजवादी राजनीति के बारे में आम जन मानस में नकारात्मक धारणायें नहीं बनती अगर मधुलिमयें महापुरूषों ने उनके व्यक्तिवाद को रोकना समाजवादी राजनीति की विश्वसनीयता की रक्षा के लिए अनिवार्य समझा होता। जनता दल के समय जब वीपी सिंह राजनीतिक और चुनाव सुधार व सामाजिक न्याय के लिए गंभीर प्रयास कर रहे थे तो लोकदल परिवार के नामधारी समाजवादी सबसे बड़ी बाधा बन गये थे। हरियाणा के मेहम विधानसभा के उपचुनाव में खुली हिंसा के प्रयोग पर जब वीपी सिंह ने ओमप्रकाश चैटाला को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने को मजबूर किया तो लोकदल परिवार के सारे फासिस्ट चैटाला के साथ खड़े नजर आने लगे थे। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू किये जाने के बाद सामाजिक न्याय की राजनीति को तार्किक परिणति पर पहुंचाने के प्रयास होते तो आज वर्ण व्यवस्था का किला ढह गया होता और अम्बेडकर, लोहिया की इच्छा के मुताबिक सामाजिक लोकतंत्र संभव हुआ दिखता। पर वैचारिक राजनीति की मजबूती को व्यक्तिगत राजनीति में घातक समझने वाले लोकदल गिरोह के नेताओं ने इसे विफल करने का कुचक्र अंजाम दे डाला। इसे लेकर जनता दल में हुए द्वंद के दौरान मधुलिमये ने भीष्म पितामह बनकर गिरोहबंदी की भावना की वजह से लोकदल परिवार की हिमायत का रूख अपनाया जो उनकी बहुत बड़ी भूल थी और इतिहास उन्हें और उनके साथ-साथ जनेश्वर मिश्र व मोहन सिंह जैसे दिग्गजों को मुलायम सिंह की छदम समाजवादिता को प्रमाणिकता देने के लिए कभी माफ नहीं करेगा।

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वैचारिक राजनीति से विचलन के कारण ही बाद में समाजवादी नेता साम्प्रदायिक राजनीति के हमसफर, हमनवाज बन गये। जिनमें जार्ज फर्नान्डीज जैसे दिग्गजों के नाम खासतौर पर लिये जा सकते हैं जिनका पाखंड यह था कि एक समय उन्होंने केन्द्र की पहली गैर कांग्रेसी सरकार को आरएसएस से पुराने जनसंघ के लोगों के जुड़ाव को मुद्दा बनाकर असमय पतन का शिकार बना दिया था और बाद में वही भाजपा की पालकी के कहार बन गये जिसका मेंटोर घोषित रूप से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ है और उन्हें इस पर कोई अफसोस नहीं हुआ। इसी को देखते हुए जिन्हें यह गुमान है कि अगर उत्तर प्रदेश में अखिलेश सरकार बना पाये तो भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीति को बहुत मुश्किल पेश आयेगी, वे बहुत भ्रम में हैं।

अखिलेश किसी भी वैचारिक प्रतिबद्धता से नहीं बंधे और अगर उत्तर प्रदेश में उन्हें सरकार बनाने का मौका मिल भी गया तो लचर विचार धारा के कारण केन्द्र के सहयोगी की भूमिका में रहना पसंद करेंगे न कि विरोध में। बल्कि उल्टा होगा और अखिलेश भी ममता बनर्जी की तरह की कांग्रेस के पैर मोदी को खुश करने के लिए घसीटने लगेंगे। उनके पिता मुलायम सिंह यादव तो मुसलमानों के लिए जीने मरने का दम भरते रहे हैं पर जब मौका आया तो साम्प्रदायिक और सामाजिक न्याय विरोधी नीतियों को बल देने वाले नरसिंहाराव की सरकार को तत्कालीन रामो-वामो के सदन में लाये गये अविश्वास से बचाने में बड़ी मदद की। इसी तरह तीसरी बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने केन्द्र में तत्कालीन अटल विहारी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के सहयोगी की भूमिका निभाने में गुरेज नहीं किया था।

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लेकिन आज व्यवस्था के ईमानदार समाजवादी विकल्प की जरूरत पहले से ज्यादा है-खासतौर से शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में। जीवन के लिए इन दोनों की प्राण वायु की तरह आवश्यकता आम खास हर किसी को है। इन चीजों को बाजार में खड़ा किया जाने से ये सुविधायें आम आदमी की खासतौर से गरीबों की पहुंच से बाहर होती जा रही हैं। मोदी के आर्थिक प्रबंधन में एक बड़ी विसंगति है कि इसमें लोग इस सीमा तक अभावग्रस्त किये जा रहे कि उनके अलावा व्यवस्था से लड़ने या मर जाने के अलावा कोई और विकल्प शेष नहीं रहेगा जबकि यह स्थिति खतरनाक है। अमेरिका और ब्रिटेन जैसे पूंजीवादी देशों मे जब सोवियत संघ के कारण कम्युनिष्ट विचारधारा के हावी हो जाने का अंदेशा मंडराने लगा तो किसी को सर्वहारा के बिन्दु तक न पहुंचने देने का प्रबंधन किया गया था। सर्वहारा यानी जिसके सामने खोने को कुछ न हो और जिसे बताया जा सके कि अगर लड़ोगे तो तुम्हारे सामने पाने के लिए सारा संसार पड़ा है।

पूंजीवादी निजाम ने यह इंतजाम किया कि श्रमिकों को इतने मेहनताने की गारंटी की जा सके जो जरूरतें पूरी करने के साथ-साथ उन्हें उपभोक्तावादी आकांक्षायें पूरी करने में भी सक्षम बना दे साथ ही काम की स्थितियों में भी आठ घंटे का समय निर्धारित किये जोन जैसे सुधार किये गये। नतीजतन व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़े होने की सोच उनमें पैदा होना बंद हो गया। मोदी सरकार यह ख्याल नहीं कर पा रही है। व्यवस्था से विद्रोह को वह गरीबों की बाध्यता बनाये दे रही है। दूसरे मित्र उद्योगपतियों के लिए मोनोपोली की नीति से उसने बाजार में प्रतिस्पर्धा का माहौल खत्म कर दिया है साथ ही गरीबी की रेखा से नीचे का और भुखमरी का दायरा उनकी नीतियों से बढ़ता जा रहा है। समय रहते इस मामले में प्रबंधन न किया गया तो समूची व्यवस्था को पलीता लग जायेगा।

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जालौन के वरिष्ठ पत्रकार केपी सिंह राजनीतिक विश्लेषक हैं. संपर्क- 9415187850

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1 Comment

1 Comment

  1. नरेंद्र सिंह यादव

    January 15, 2022 at 5:46 pm

    समाजवादी चिंतन काजो धरातल पर रहा का सटीक चित्रण है।पर भविष्य का मार्ग वा आशाएं भी चित्रित करे जनाब।

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