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सुख-दुख

अलविदा ! प्यारे दोस्त

सुभाष राय-

रामेश्वर पांडेय का जाना स्वस्थ पत्रकारिता की दुनिया के लिए एक बड़ी क्षति है। वे एक पत्रकार ही नहीं थे बल्कि समाज, सत्ता और साहित्य पर लगातार गंभीरता से सोचने वाले एक बुद्धिजीवी भी थे। उनके साथ बैठना हमेशा कुछ नया जानने का अवसर देता था। मेरा रामेश्वर जी से लम्बा साथ रहा। चार दशक से भी ज्यादा समय से हम एक-दूसरे को जानते रहे हैं, मिलते-बतियाते रहे हैं।

विचार और प्रतिबद्धता का आज की पत्रकारिता से कोई लेना-देना नहीं रह गया है। हमारे जमाने में भी ऐसे लोग पत्रकारिता में बड़ी संख्या में रहे हैं, जिनका उद्देश्य केवल नौकरी करना और पैसे कमाना था। वे किसी भी तरह अपने पदों पर बने रहने की जुगत में रहते थे क्योंकि वहां रहकर ही धन-वैभव और अवांछित अधिकार हासिल किये जा सकते थे। उनका काम पूंजी और सत्ता के पक्ष में खड़े रहकर दमनकारी व्यवस्थाओं की मदद करना और उनके फायदे में हिस्सा बंटाना होता था। हमारी पीढ़ी में जिन लोगों ने विचारहीनता और चालाकी की इस धारा से खुद को जोड़े रखा, वे लम्बे समय तक बड़े पदों पर बने रहे, कई तो आज भी बने हुए हैं। रामेश्वर पांडेय ऐसे लोगों में नहीं थे।

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वे विचारसम्पन्न थे, प्रतिबद्ध थे, अपनी जीवन-शैली और कार्य-शैली से समझौता नहीं कर सकते थे। इसका खामियाजा भी उन्हें लगातार भोगना पड़ा। इसीलिये स्थाई रूप से किसी एक जगह टिके रहना, अपना ठीहा या मठ बना पाना उनके लिए कभी संभव नहीं हो पाया। हमेशा भागते रहना, अचानक पैदल हो जाना उनकी नियति थी। इसके बावजूद कभी मैंने उनके चेहरे पर उदासी, निराशा या हताशा नहीं देखी।

वे पत्रकारिता की पाठशाला की तरह थे। जो लोग भी उनके साथ रहे, उनके साथ काम किया, वे अच्छी तरह जानते होंगे कि उनसे केवल पत्रकारिता के गुर ही नहीं सीखने को मिलते थे, बल्कि उनसे राजनीति, इतिहास और समाज के गहन विषयों पर भी ज्ञान हासिल करने के अवसर मिलते थे।

जीवन के आरम्भिक दिनों में वे वामपंथ के विकट प्रभाव में रहे लेकिन कालांतर में उन्होंने अपनी विचार-सरणि में व्यावहारिकता के दर्शन को भी शामिल किया। इससे उनके पत्रकारीय जीवन को भी थोड़ी सहूलियत और स्थिरता मिली। उनके जीवन से वाम तो नहीं गया लेकिन वामपंथ के अतिवादी आग्रहों से वे जरूर मुक्त हुए। इस मुक्ति के चलते समाज और राजनीति को और बेहतर ढंग से समझने में वे कामयाब हुए। तमाम अनुशासनों की बेहतरीन पुस्तकें पढ़ना और बातें करना उनका प्रिय शगल था।

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रामेश्वर पांडेय बैठे हों तो मेरे लिए सबसे अच्छी स्थिति यह होती थी कि मैं सिर्फ सवाल करूँ और उन्हें बोलने दूँ। वे हमेशा हर विषय पर कुछ नए ढंग से सोचते थे। यह नयापन आकर्षित करता था। साहित्य भी उनका प्रिय विषय रहा। परिवर्तन की फैंटेसी से भरे युवाकाल में रामेश्वर पांडेय ने कविताएं भी लिखीं। उनकी कविताएं उस समय अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुईं लेकिन जैसा आम तौर पर होता है, अख़बारों की नौकरी में आकर उनका कवि अंतर्ध्यान हो गया। फिर भी वे साहित्य की विभिन्न विधाओं पर बातचीत में गंभीरता से शामिल होते थे।

मुझे याद है कि मेरी दूसरी पुस्तक ‘जाग मछंदर जाग’ पर चर्चा में वे एक वक्ता की हैसियत से मौजूद थे। एक प्रतिभासम्पन्न विचारवान पत्रकार की अनुपस्थिति बेशक उन सभी लोगों को खलेगी, जो उनके संपर्क में थे या उनको किसी न किसी तरह जानते थे। मेरे लिए तो यह व्यक्तिगत क्षति है, जिसकी भरपाई अब संभव नहीं हो सकेगी। अलविदा ! प्यारे दोस्त। हम यादों में हमेशा मिलते रहेंगे।

( लेखक जनसंदेश टाइम्स के प्रधान संपादक हैं, संपर्क 9455081894)

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