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सुख-दुख

दिल्ली में जिन लोगों से मैं ज्ञान प्राप्त करता था वैदिकजी उनमें एक थे : हेमंत शर्मा

हेमंत शर्मा-

अलविदा वैदिक जी… वैदिक जी चले गए।यकायक गए।रंगभरी एकादशी को हमारे होली कार्यक्रम में आए थे।सोमा घोष के गायन पर वे थिरके भी।फिर उन्हें शतायु होने का आशीर्वाद दिया।और खुद चुपचाप दुनिया छोड़ गए।दिल्ली में जिन लोगों से मैं ज्ञान प्राप्त करता था वैदिकजी उनमें एक थे।वैदिशिक मामलों, कूटनीति और सामरिक नीति पर सहज सरल भाषा में पूरे प्रवाह के साथ हिन्दी में लिखने वाले वे इकलौते लेखक थे।वैदिक जी से पहले ये विषय अंग्रेज़ी के माने जाते थे।

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उनका जाना सचमुच हिन्दी पत्रकारिता के एक युग का अवसान है।विचारशील पत्रकारिता का अंत है।जिसमें जैसा सोचा जाता था वही लिखा जाता था।और अपनी बात ताल ठोंक कर कहने का जज़्बा था।कठिन से कठिन मुद्दों को वैदिक जी सरल संवाद की शैली में लिखते थे।लेखन के लिए उन्होंने एक संवाद की भाषा ही विकसित की थी।वे नए शब्द गढ़ते थे।सार्क देशों के लिए दक्षेस उन्ही का दिया हुआ शब्द था।

वैदिक जी मेरे मित्र थे।उनके जाने से ऐसा लग रहा है कि शरीर का कोई हिस्सा कम हो गया है।वे हिन्दी के योद्धा थे और अंग्रेज़ी के दुश्मन।वे सालाना अंगेज़ी हटाओ सम्मेलन करते रहे। वैदिक जी की गिनती उन राष्ट्रीय अग्रदूतों में होगी। जिन्होंने हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाया और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने के लिए सतत संघर्ष और त्याग किया।

वैदिक जी कट्टर लोहियाईट थे। वैसे ही लड़ाका। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के ‘स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज’ से अंतरराष्ट्रीय राजनीति में पीएच.डी. की। वे भारत के ऐसे पहले विद्वान हैं, जिन्होंने अपना अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-ग्रंथ हिन्दी में लिखा। उनका निष्कासन हुआ। वह राष्ट्रीय मुद्दा बना।वैदिक जी को पीएचडी अवार्ड नहीं हुई और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से निकाले गए। मामला लोकसभा में डॉ लोहियाने उठाया। 1965-67 में संसद हिल गई।

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डॉ राममनोहर लोहिया, मधु लिमये, आचार्य कृपालानी, गुरू गोलवलकर, दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, चंद्रशेखर, हिरेन मुखर्जी, हेम बरूआ, भागवत झा आजाद, प्रकाशवीर शास्त्री, किशन पटनायक, रामधारी सिंह दिनकर, जैसे लोगों ने वैदिकजी का डटकर समर्थन किया। सभी दलों के समर्थन से वैदिकजी ने विजय प्राप्त की,सरकार को दखल देना पड़ा। जेएनयू का रिवाज बदला। वहॉं अंग्रेज़ी का वर्चस्व टूटा।नया इतिहास रचा।वहॉं पहली बार उच्च शोध के लिए भारतीय भाषाओं के द्वार खुले।

पत्रकारिता, राजनीतिक चिंतन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति, हिंदी के लिए अपूर्व संघर्ष, विश्व यायावरी, प्रभावशाली वक्तृत्व, संगठन-कौशल आदि अनेक क्षेत्रों में एक साथ मूर्धन्यता प्रदर्षित करने वाले वैदिक जी रूसी ,फारसी, जर्मन और संस्कृत के भी जानकार हैं। उन्होंने अपनी पीएच.डी. के शोधकार्य के दौरान न्यूयार्क की कोलंबिया युनिवर्सिटी, मास्को के ‘इंस्तीतूते नरोदोव आजी’, लंदन के ‘स्कूल ऑफ ओरिंयटल एंड एफ्रीकन स्टडीज़’ और अफगानिस्तान के काबुल विश्वविद्यालय में अध्ययन और शोध किया।

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उनके जैसा जीवंत पत्रकार कोई-कोई ही होता है. हर विषय में दख़ल और हर विचारधारा के राजनेता से भी आत्मीय संबंध। वह हिंदी के उन गिने-चुने पत्रकारों में से थे, जो अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की हर कड़ी से जुड़े थे. उनके संबंध ईरान के शाह रज़ा पहलवी से भी थे और अयातुल्लाह खोमैनी से भी। वे अफगानिस्तान में शाह दाऊद के भी दोस्त थे।नजीबुल्ला और हामिद करजाई उनके छात्र थे।और तालिबानियों से भी उनकी कड़ी जुड़ी थी।पाकिस्तान में भी भुट्टो और नवाज़ शरीफ़ परिवार से उनकी निकटता थी।हाफ़िज़ सईद से संबंधों के चलते उनकी खूब खिंचाई भी हुई।मगर उन्होंने ने कभी इन संबंधों को छुपाया नहीं।नेपाल के कोईराला से भी उनकी नज़दीकी थी।इन सबके अनूठे किस्से वे रस लेकर सुनाते थे।यह दूसरी बात है कि उनकी किस्सागोई में अक्सर सच और गप्प का फ़ासला मिट जाता था। पर यह उनकी स्टाइल थी। इसके पीछे कोई फ़ायदा उठाने की ललक नहीं थी।

वैदिकजी पहली जेल-यात्रा सिर्फ 13 वर्ष की आयु में की थी। हिंदी सत्याग्रही के तौर पर वे 1957 में पटियाला जेल में रहे। बाद में छात्र नेता और भाषाई आंदोलनकारी के तौर पर कई जेल यात्राएं ! भारत में चलनेवाले अनेक प्रचंड जन-आंदोलनों के सूत्रधार बने।बहुत कम लोगों को पता होगा की कि वैदिक जी का ही वह कार्यक्रम था जिसके चलते १९९० में मुलायम सिंह और विश्व हिन्दू परिषद में कटुता बढी।
वैदिक जी के पिता जी ने इंदौर में एक अंग्रेज़ी हटाओ सम्मेलन रखा।इस सम्मेलन को वे कई वर्षों से करते थे।और इसी नाम पर उनकी एक संस्था भी थी।डॉ वैदिक के पिता आर्यसमाजी थे और समाजवादियों में उनका ख़ासा रसूख़ था। इस सम्मेलन में देश भर के समाजवादी इक्कठा थे।बृहत् आयोजन था।मुलायम सिंह जी के साथ राज्य सरकार के विमान से हम भी गए।मध्य प्रदेश में पटवा जी की सरकार थी। कार्यक्रम में मुलायम सिंह जी के भाषण के बाद जब हम मंच के नीचे उतर बाहर पीछे की तरफ़ लौट ही रहे थे कि वहॉं विश्व हिन्दू परिषद के समर्थकों भीड़ जमा थी और वे मंदिर के समर्थन और मुलायम सिंह के विरोध में नारे लगाने लगे।पुलिस ने हमें घेर लिया और उन्हें दूर करने लगी। सबके हाथ में झन्डे थे।इस दौरान दोनो तरफ़ से लोग इक्कठा हुए और हाथा पाई शुरू हुए। हमें लोगों और पुलिस ने घेर रखा था। तभी मैंने देखा नेताजी ज़ोर से चीखे। किसी ने झन्डे के डन्डे से उनकी पीठ पर मारा।मैं जब तक समझ पाता मेरे घुटनों के पीछे ही ऐसा ही डंडा लगा।हम दोनो को पुलिस ने अपनी सुरक्षा में सर्किट हाउस पहुँचाया। नेता जी आगबबूला थे बिना कुछ खाए उन्होंने कहा चलिए सीधे एयरपोर्ट चलते हैं।उन्हें गहरी चोट लगी थी। जहाज़ पर बैठते ही उन्होंने मुख्यमंत्री सुंदर लाल पटवा को भी गरियाया ख़राब सुरक्षा व्यवस्था के लिए।और विश्व हिन्दू परिषद के लिए तो एलान ही कर दिया की अब मैंइन्हें ठीक करूगाँ।विश्व हिन्दू परिषद से उनकी लडाई बढ़ते बढ़ते भगवान राम से हो गयी। मुलायम सिंह और वीएचपी की दुश्मनी के मूल में यही घटना थी।वरना मुलायम सिंह कोई नास्तिक आदमी नहीं थे।इस घटना का उल्लेख सिर्फ़ इसलिए की वैदिक जी से जैसे सम्बन्ध मुलायम से थे वैसे ही विश्व हिन्दू परिषद से।और आर्य समाज में भी उनकी जड़ें गहरी थी।

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वैदिक जी का जाने से सिर्फ़ लेखन और पत्रकारिता में ख़ालीपन नहीं आया है।सार्वजनिक बौद्धिकता का भी नुक़सान हुआ है।सार्वजनिक विमर्श में भी एक ख़ालीपन होगा।आप बहुत याद आएँगें वैदिक जी। प्रणाम।

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