अमरेंद्र राय-
आप जहां के होते हैं लोगों को लगता है कि आप वहां के बारे में तो अच्छी तरह से जानते ही होंगे। खुद आप के मन और मस्तिष्क में भी ये बात घर किए रहती है कि मैं तो यहीं का हूं ही। लेकिन ज्यादातर बार सच्चाई इसके विपरीत होती है। खुद मैं अपने आप को ही देखता हूं। गाजीपुर का रहने वाला हूं। जिससे भी बात होती है, वह गाजीपुर से संबंधित मामलों के बारे में मुझसे पूछता है। जबकि सच्चाई यह है कि मुझे गाजीपुर के बारे में ज्यादा कुछ नहीं पता। उससे ज्यादा तो मैं बनारस के बारे में जानता हूं। बनारस (बीएचयू) में मैंने पढ़ाई की है। अपने जीवन के आठ साल वहां गुजारे हैं। जबकि गाजीपुर में सिर्फ तीन रात रुके हैं। एक रात योजना बनाकर और दो रात इसलिए कि गांव पहुंचने का साधन नहीं था।
जब मैं कहता हूं कि गाजीपुर जिले का रहने वाला हूं तो इसका मतलब यह नहीं कि गाजीपुर शहर का रहने वाला हूं। गाजीपुर जिले में एक तहसील है जमानियां और उसमें एक गांव है मतसा। तो कायदे से मैं मतसा का रहने वाला हूं गाजीपुर का नहीं। लेकिन लोग मतसा को नहीं जानते और गाजीपुर को जानते हैं इसलिए कह देता हूं की गाजीपुर का रहने वाला हूं। गाजीपुर वहां से करीब 20 किलो मीटर दूर है। लेकिन इससे भी बड़ा सच यह है कि मतसा के बारे में भी मैं ठीक से नहीं जानता। वहां की हरिजन बस्ती में मैं गिने-चुने बार गया हूं। जिधर यादव रहते हैं उधर भी साल में पांच सात बार से ज्यादा जाना नहीं होता था। ( जब मैं गांव में रहता था तब की बात कर रहा हूं ) सड़क से घर या घर से खेत-खलिहान, बाग-बगीचा या पूजा स्थल को जो रास्ता जाता था उसी पर अपना रहना, आना-जाना होता था। शायद ये हर किसी के जीवन में होता होगा। पास के गांवों में कभी कभार जब कोई काम पड़ता था तभी जाना होता था।
मेरे गांव के बगल में एक तरफ जीवपुर, सब्बलपुर, देवरिया और दूसरी तरफ मंझरियां, चितावनपट्टी, राघोपुर, जगदीशपुर और ताजपुर हैं। इन गांवों में मैं जरूरत पड़ने पर गिनती के वह भी पांच बार से ज्यादा नहीं गया हूं। ताजपुर जरूर ज्यादा बार गया हूं क्योंकि वहां एक डॉक्टर रहते थे। खुद या परिवार के किसी सदस्य के बीमार होने पर उन्हीं से दवा लेने जाना पड़ता था। ऐसे ही मैं गाजीपुर को भी जानता हूं। मेरी दो बुवाओं की शादी, मां और चाची का गांव एक ही दिशा में है जहां जाते समय गाजीपुर होकर जाना पड़ता था। हमारे चाचा कुछ समय तक गाजीपुर में पोस्टेड थे तो एक दिन वहां भी गए थे। वह भी पैदल। सुबह गए और शाम तक लौट आए। नाव से गंगा पार करके जाने पर यह दूरी सात-आठ किलो मीटर से ज्यादा नहीं रह जाती।
पहली बार मैं गाजीपुर तब गया जब बीएचयू में एडमिशन लेना था। वहीं लंका से बस मिलती थी बनारस के लिए। एडमिशन मिलने के बाद भी घर से बस से गाजीपुर आते थे। बस रौजा पर उतारती थी और वहां से पैदल या रिक्शे से लंका आते थे और बस में बैठकर बनारस पहुंच जाते थे। बस गाजीपुर को इतना ही जानते थे। एक बार मेरे बड़े भाई की तबीयत खराब हुई तो गाजीपुर जिला अस्पताल में भर्ती कराया गया। वहां उनका ऑपरेशन हुआ तब कई दिन लगातार वहां आना-जाना हुआ। तभी जिला अस्पताल देखा। एक बार कचहरी में कोई काम पड़ा तो कचहरी देखी। हमारे एक दूर के रिश्तेदार आमघाट में रहते हैं पर वहां भी सिर्फ दो बार ही जाना हुआ है। एक भतीजी की शादी तय हुई। तिलक मऊ में चढ़ाना था। तय हुआ कि मिठाई, फल और ड्राई फ्रूट्स गाजीपुर से ही लेना है तब पहली बार मिश्र बाजार से खरीददारी की। बाकी गाजीपुर के कुछ घाटों, इलाकों और बाजारों के नाम सुनते रहते थे।
गाजीपुर के बारे में बस मेरी इतनी ही जानकारी थी। गाजीपुर की अफीम फैक्ट्री मशहूर है लेकिन अभी तक मैंने वो फैक्ट्री भी कभी नहीं देखी है। दिल्ली आने पर सबसे पहले मैंने दिल्ली प्रेस में काम किया। वहां मेरे बॉस विश्राम वाचस्पति थे। उन्होंने गाजीपुर की विशेषता पूछी तो मैंने कहा कि वहां की अफीम फैक्ट्री मशहूर है। तब इतना ही गाजीपुर के बारे में जानता था। यह बिल्कुल नहीं कि वहां रवींद्र नाथ टैगोर, विवेकानंद रह चुके हैं।
वहां का पौहारी बाबा का आश्रम बहुत मशहूर है। अफीम की बात सुनकर विश्राम वाचस्पति खूब ठठाकर हंसे। जब मैं जनसत्ता पहुंचा तो वहां शारदा पाठक जी आया करते थे। चलती फिरती ज्ञान की पुस्तक (इनसाइक्लोपीडिया) थे। कंधे पर झोला लटकाए जनसत्ता में ही नहीं कई अखबार के दफ्तरों में जाया करते थे। नौकरी के खिलाफ थे इसलिए नौकरी करते भी नहीं थे। इंडियन एक्सप्रेस के विज्ञापनों के हिंदी अनुवाद से उन्हें नौकरी करने वालों की तुलना में कई गुना ज्यादा पैसा मिल जाया करता था। वे कई अखबारों के संकट मोचक भी थे। ऐन वक्त पर लेखक जब गच्चा दे जाते थे और लेख नहीं देते थे तो लोग शारदा पाठक को ही याद करते थे। कोई विषय हो शारदा पाठक दो-तीन घंटे में उसी के दफ्तर मैं बैठकर लेख लिखकर दे देते थे। इस तरह वे संपादकों की इज्जत बचाया करते थे।
जब उन्हें पता चला कि मैं गाजीपुर से हूं यहां गाजियाबाद में रहता हूं तो वे कहने लगे आप तो नाहक गाजीपुर छोड़कर चले आए। अरे थोड़ी सी अफीम का सेवन करते और दिन भर मस्त रहते। जब मैंने उन्हें बताया कि अफीम फैक्ट्री का नाला जहां से गुजरता है वहां ढेर सारे बंदर रहते हैं। प्यास लगने पर वे उस नाले का ही पानी पीते हैं। उस पानी को पीने के बाद वे दिन भर झूमते रहते। यह बात सुनने के बाद पाठक जी और मस्त हो जाते। शायद अफीम के आनंद को वे ठीक से जानते-पहचानते थे। हां, गंगा किनारे के घाटों को जरूर देखा है। क्योंकि गंगा मुझे आकर्षित करती है। पहले जब गंगा पर पुल नहीं बना था और गंगा पार करने के लिए स्टीमर चला करता था तो एक घाट का नाम स्टीमर घाट भी था। स्टीमर बंद होने के बावजूद वो नाम अभी भी बरकरार है। एक बार स्टीमर घाट उतर कर गंगा किनारे के सभी घाटों का भ्रमण कर आया हूं।
लेकिन ये चीज बहुत सालती थी कि मैं गाजीपुर का रहने वाला हूं और गाजीपुर के बारे में कुछ नहीं जानता। मेरे गांव के प्रसिद्ध लेखक कुबेरनाथ राय वहां के एक डिग्री कॉलेज (सहजानंद सरस्वती स्नातकोत्तर महा विद्यालय) में प्रिंसिपल थे। बाद में उसी कॉलेज के प्रिंसिपल मेरे फूफा मांधाता राय हुए। हमारे ही गांव के लल्लन राय वहां नौकरी करते थे। अब तो गांव के कई लोगों ने गाजीपुर में मकान बनवा लिए हैं।
उम्र में मुझसे छोटे गनेश राय ने बेलारी, कर्नाटक में जाकर अच्छी ठेकेदारी की और पैसा कमाकर रौजा पर कर्नाटक शैली में एक बड़ा और शानदार मकान बनवाया है। पर कभी जाना नहीं हुआ। जाने की इच्छा भी नहीं होती थी। लेकिन जब से भड़ास के संपादक यशवंत सिंह ने गाजीपुर में भड़ास आश्रम की स्थापना की है तब से गाजीपुर जाने की और भड़ास आश्रम देखने की बलवती इच्छा होने लगी। तय किया कि अब जब जाउंगा तो गाजीपुर में रुकुंगा वह भी भड़ास आश्रम में।
अभी हाल ही में गाजीपुर जाने का अवसर बना। हमारे एक रिश्तेदार लंबे समय से गाजीपुर में रह रहे हैं। सोचा उन्हीं के यहां चलूं और वहां से भड़ास आश्रम पहुंचा जाएगा। उनका नाम राजकमल राय है लेकिन हम लोग उन्हें उनके घर के नाम रुनू से ही जानते और बुलाते हैं। लंबे समय तक दैनिक जागरण के व्यूरो चीफ रहे। बीच में उनकी खान-पान की कुछ खराब आदतों के चलते उनकी हालत बहुत बिगड़ गई। अभी भी वे पूरी तौर पर ठीक नहीं हैं। लेकिन ईश्वर की कृपा है कि वे हमलोगों के साथ हैं और अपना कार्य सुचारू रूप से कर रहे हैं। आजकल गाजीपुर की खबरों पर केंद्रित अपना एक पोर्टल चला रहे हैं। उन्होंने बताया कि आम घाट में रहते हैं।
जमनियां से जो बस गाजीपुर जाती है, रौजा पर ले जाकर उतार देती है। मैंने कुछ यात्रियों से पूछा कि आम घाट जाना है, कैसे जाएं। उन्होंने बताया कि इसके लिए आपको रौजा जाने की जरूरत नहीं। गंगा पुल पार करके थोडा आगे ही उतर जाइए। सड़क से नीचे उतरने पर ऑटो मिल जाएंगे और वे आपको आमघाट ले जाएंगे। वैसा ही किया। सड़क से नीचे ऊतर कर ऑटो मैं बैठ गया। ऑटो एक सड़क से होते हुए आम घाट पहुंचा। यह सड़क एक तरह से गंगा के समानांतर चल रही थी और यह बाजारों के बीच से होकर गुजर रही थी। क्योंकि इसकी दोनों तरफ दुकानें थीं। बाजारों के नाम अलबत्ता जरूर थीड़ी दूर पर बदल जा रहे थे। आमघाट पहुंचकर यशवंत सिंह को फोन किया। उन्होंने कहा आप जहां हैं वहीं रहिए। या तो मैं खुद आउंगा या किसी को लेने भेजूंगा। छोटे शहरों का कल्चर अभी भी खुला हुआ है। कोई भी कभी भी आ जा सकता है। निश्चिंत होकर मैं भी पहले सोफे पर बैठा रहा फिर पीठ सीधी करने के लिए तखत पर लेट गया। ठंड लगी तो पांव पर कंबल भी डाल लिया। अब इतना होने के बाद नींद आनी ही थी और मैं सो गया।
आंख खुली तो शाम हो चुकी थी। देखा यशवंत सिंह सोफे पर जमे अपने मित्र के साथ बातचीत कर रहे हैं। परिचय कराया कि ये जिले के मशहूर पर्यावरण प्रेमी और समाजसेवी उमेश कुमार श्रीवास्तव जी हैं। इनकी सेवाओं और कार्यों को देखते हुए हाल ही में जिला प्रशासन ने भूजल संरक्षण समिति में शामिल किया है। जहां मैं रुका हुआ था उसके बगल में अमर उजाला का कार्यालय था। घर पर चाय बनती उससे पहले ही यशवंत सिंह ने सुझाव दिया कि पहले जरा अमर उजाला कार्यालय में चलकर वहां के साथियों से मिल लिया जाए। फिर क्या था पहुंच गए। वहां के व्यूरो चीफ पटकनिया के रितेश सिंह कम उम्र के हैं। थोड़ी देर बैठे, चलने को हुए तो उन्होंने कहा कि सर चाय पीकर जाइए। बोल दिया है। आती ही होगी। चाय आई तो उसके साथ समोसे भी थे। यह पूरब का कल्चर है। न सिर्फ पानी आता है न चाय। पानी आएगा तो उसके साथ मीठा होगा और चाय आएगी तो समोसा, नमकीन। चाय समोसे पर बैठकी थोड़ी देर और हो गई। बाहर निकले तो अंधेरा हो गया था। घर पर भी चाय पीने की जिद थी। लेकिन वहां मनाकर जल्दी से बाहर निकल पड़े।
बाहर सड़क पर पहुंचकर यशवंत ने श्रीवास्तव जी से पूछा कि बैठने का इंतजाम कहां है। आश्रम पर तो बैठने की व्यवस्था नहीं है। कल ऊपर बने कमरे का उद्घाटन होना है। गांव से परिवार आ चुका है और कल दल-बल के साथ बाकी लोग और पंडीजी भी आ जाएंगे। वहां कल शाम या फिर कभी बाद में बैठकी होगी। श्रीवास्तव जी ने कहा एक मित्र से बात हुई है, वहीं बैठकी होगी। वे पीजी कॉलेज से आगे आदर्श गांव में रहते हैं।
यशवंत और श्रीवास्तव जी मोटर साइकिल से आए थे। लेकिन अब हम तीन थे। वहां से हमें पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री कॉलेज की तरफ जाना था। मैं और यशवंत ऑटो में बैठे और श्रीवास्तव जी अपनी बाइक पर। लेकिन हम ऑटो से थोड़ी दूर ही जा सके क्योंकि हमें जहां जाना था वह सड़क आगे रोक दी गई थी। आगे नाला बना हुआ है और सीवर प्लांट डाला गया है। श्रीवास्तव जी ने बताया कि जहां हमें जाना है वह यहां से ज्यादा दूर तो नहीं है पर फिर भी दो-ढाई किलो मीटर दूर तो होगा ही। कोई और रास्ता न देख पैदल पहुंचने का ही तय हुआ। गिट्टी पड़ी सड़क पर किनारे से पगडंडी बनी हुई थी। हम लोग उसी पर चल पड़े। यहां तक पहुंचते पहुंचते रात हो गई थी। सड़क जब सुनसान दिखी तो यशवंत मोदी जी का स्वच्छता अभियान भूल गए और खड़े-खड़े ही मूत्र विसर्जन करने लगे। उनको ऐसा करते देख मुझे आमिर खान की फिल्म थ्री इडियट्स की याद आ गई। उसमें भी कई जगह इस तरह के दृष्य हैं। मुझे लगा मैं भी काफी देर से रोके हुए हूं और उनके बगल में शुरू हो गया। यहां शहर का शोर नहीं था। ऊपर देखा तो लाइट जलने के बावजूद आसमान में तारे बहुत साफ दिख रहे थे। ऐसा साफ आसमान मैंने बहुत पहले एक बार जोशीमठ में देखा था। गाजियाबाद में तो ऐसा आसमान कभी दिखता ही नहीं।
साथी उमेश श्रीवास्तव जी थोड़ा आगे निकल गए। लेकिन जब देखा कि हमलोग नहीं आ रहे हैं तो वे बाइक रोककर वहीं खड़े हो गए। जब हम पहुंचे तो उन्होंने कहा कि कब तक आप लोग पैदल चलेंगे आइए इसी पर बैठते हैं जो होगा सो देखा जाएगा। सड़क पर गिट्टी थी, टायर पंचर होने का खतरा था पर हम तीनों लोग बाइक पर बैठ गए। थोड़ा आगे जाने पर देखा कि एक मोटरसाइकिल ने आगे की पगडंडी रोक रखी है। दो लोग पगडंडी पर मोटरसाइकिल खड़ी करके बगल में खड़े होकर सुर्ती बना रहे हैं। हमें देखकर वो हंसे। बोले अरे भइया हमने सोचा कि अब इस रास्ते पर कौन आएगा। लेकिन फिर भी उन्होंने मोटरसाइकिल नहीं हटाई। कहा बस रुक जाइए। उन्होंने आराम से सुर्ती बनाई मुंह में डाला और तब मोटर साइकिल को किनारे किया। फिर हम आगे बढ़े। थोड़ा आगे जाने पर पक्की सड़क मिली। जब मोटर साइकिल आराम से चलने लगी तो हमने सोचा अच्छा किया कि तीनों लोग मोटर साइकिल पर बैठ गए वरना कहने को ही ये दो-ढाई किलो मीटर है। बहरहाल जहां पहुंचना था पहुंच गए। श्रीवास्तव जी ने फोन किया। एक खंडहर नुमा बिल्डिंग से एक सज्जन निकल कर आ रहे थे। वे लेकर हमें बिल्डिंग की तरफ चले।
पास जाने पर पता चला कि बिल्डिंग खंडहर नहीं बल्कि अभी बन रही है। बड़ी सी बिल्डिंग में कोई नहीं रह रहा था। जीना चढ़कर पहले तल्ले पर पहुंचे, फिर दूसरे तल्ले को पार किया और आखिर में तीसरे तल्ले पर जा पहुंचे। जीना जब चढ़ रहे थे तो किसी फिल्म का दृष्य याद आ रहा था जिसमें विलेन किसी का अपहरण करके एक दम ऊपर रखता है। तीसरी मंजिल पर पहुंचे तो बाईं तरफ एक बड़ा सा हाल नुमा कमरा था। उसमें दो तख्त लगे हुए थे। उसी में खाना बनाने की भी व्यवस्था थी। देखकर लगा कि यहां मजदूर रहते होंगे। लेकिन एक तरफ किताबें रखी हुई थीं। दो लोग तख्त पर बैठे थे। हमारे जाते ही वे लोग उठकर दूसरे कमरे में चले गए। हम दो लोग कुर्सियों पर विराजमान हो गए। यशवंत ने तखत पर बैठना स्वीकार किया। हमें वहां तक पहुंचाने वाले का परिचय कराया। ये दिग्विजय सिंह जी हैं। अध्यापक हैं। बाकी दोनों लोग जो दूसरे कमरे में चले गए थे वे भी अध्यापक हैं। थोड़ी देर इधर-उधर की बातचीत के बाद यशवंत जी मूल मुद्दे पर आ गए। गिलास कहां है। दिग्विजय जी ने सलाद काटा, नमकीन अखबार बिछाकर उड़ेल दिया। सोडा नहीं था तो कहीं से फोन करके सोडा मंगाया गया। प्रसन्नता की रसधारा फूट पड़ी। जहां हम थे वहां से गंगा ज्यादा दूर नहीं थी। धीरे-धीरे वह भी बह रही थी। धीरे धीरे हम भी रव में आ रहे थे।
दिग्विजय जी ने किचन संभाल लिया था। गरमागरम पीस परोसे जा रहे थे। यादाश्त शिथिल होती जा रही थी। पर यशवंत चैतन्य थे। लेकिन श्रीवास्तव जी तो परम चैतन्य थे। क्योंकि उनके सामने ग्लास नहीं था और उन्होंने सलाद और नमकीन में भी कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई थी। यशवंत ने फोन मिलाया और जब तक आखिरी जाम खतम होता उससे पहले ही बीयर की कुछ केन आ गईं। गर्म गोश्त और ठंडी बीयर अद्भुत समां बांध रही थी। कब निकले, कैसे घर पहुंचे कुछ याद नहीं। यशवंत का आग्रह था कि कल रुकें तो गंगा किनारे ही पहुंचा जाएगा। पर मुझे आवश्यक कार्य से मऊ जाना था। सोचा चलो, अभी तो भड़ास आश्रम भी नहीं देखा फिर कभी देखेंगे। इस तरह भड़ास आश्रम देखने की आस लिए अगले दिन मऊ रवाना हो गए।
यह दूसरा अवसर था जब गाजीपुर ने मुझे निराश किया था। जब मैं जनसत्ता में था तो हमारे समाचार संपादक गाजीपुर के ही अच्युतानंद मिश्र मुंबई जनसत्ता के संपादक बन गए। मुंबई जनसत्ता में तब मशहूर साहित्यकार विवेकी राय भोजपुरी में एक कॉलम लिखते थे। बाद में उनके उसी कॉलम का संग्रह उनकी पुस्तक के रूप में आया। नाम था – राम झरोखा बइठ के। वो कॉलम किसी वजह से बीच में रुक गया था। अच्युता जी ने मुझसे कहा कि जब गांव जाना तो गाजीपुर भी चले जाना और विवेकी राय से अपना कॉलम शुरू करने का आग्रह करना। मैं विवेकी राय के घर गया। उनका घर लंका के पास की ही एक कॉलोनी में था। उनके घर पर लिखा था- गंवई गंध गुलाब। लेकिन वहां पता चला कि वे बनारस गए हैं और दो-तीन दिन बाद लौटेंगे। इस तरह उनसे मेरी भेंट नहीं हो पाई।
दूसरी बार भड़ास आश्रम देखने पहुंचा और भड़ास आश्रम भी नहीं देख पाया। मन में विचार आया कि क्या गाजीपुर निराश करने वाला शहर है ? वर्तमान में जम्मू और कश्मीर के राज्यपाल और गाजीपुर के पूर्व सांसद मनोज सिन्हा भी याद आए। आजादी के बाद से लेकर अब तक गाजीपुर में अगर किसी ने सबसे ज्यादा विकास किया है तो वो मनोज सिन्हा हैं। आजकल आपको गाजीपुर जिले में जो कुछ भी आकर्षित कर रहा है हर जगह पर मनोज सिन्हा की छाप है। चाहे वो गंगा पर बने पुल हों, रेलवे स्टेशन हो या लॉर्ड कार्नवालिस का मकबरा हो, हर जगह मनोज सिन्हा की छाप दिखाई देती है। लेकिन तुरंत दिमाग ने तर्क दिया। निराश करने वाला शहर कैसे ? इस बार भड़ास आश्रम आपने भले न देखा हो लेकिन इतने सारे लोगों से आपकी मुलाकात हो गई। वैसे भी बाबा के दर्शन करने लोग आश्रम जाते हैं यहां तो भड़ासी बाबा के दर्शन बिना आश्रम गए ही हो गए। उसी तरह मनोज सिन्हा भी चुनाव हारने के बावजूद एक संवेदनशील क्षेत्र के राज्यपाल हैं।
मोहन तिवारी
December 10, 2021 at 9:36 pm
अमरेन्द्र जी वास्तव मे गाजीपुर को ठीक से नही जानते रामबहादुर राय, उर्मिलेश जी, बवंडर जी, आनंद प्रधान, भोलानाथ गहमरी का तो नाम ही नही लिया जिनकी पहचान गाजीपुर से ही होती है।