-अमरेंद्र राय-
पिछले कुछ दिनों में कई मित्रों, करीबियों और पत्रकार साथियों की मृत्यु हुई है। गहरे अवसाद में हूं। मन कहीं नहीं लग रहा। मौत से डर नहीं लग रहा। पर कोई चीज है जो दिमाग पर दबाव बनाए हुए है। सबसे पहले गांव से खबर आई कि परिवार में चाची जी नहीं रहीं।
फिर मित्र दिनेश तिवारी की मृत्यु की सूचना मिली। फेसबुक से एक और पत्रकार साथी की मौत की सूचना मिली। लोगों ने उनकी फोटो डाली पर नाम नहीं पता चल सका। उम्र भी ज्यादा नहीं थी। नाम अभी पता चलता तभी पंकज शुक्ला की मौत की खबर मिल गई। गाजियाबाद में ही अपने पुराने साथी पत्रकार मुकेश मिश्र कारोना की भेंट चढ़ गए।
कल शाम अपने किरायेदार की मौत की खबर उनके बेटे ने दी। उनसे भी पारिवारिक रिश्ते थे। अभी फेसबुक खोला तो मित्र राजीव कटारा की मृत्यु की दुखद सूचना मिली। दो दिन पहले ही अग्रज वीरेंद्र सेंगर उनको लेकर चिंता जता रहे थे। कह रहे थे फोन कर रहा हूं, उठ नहीं रहा। अनहोनी आशंका से मन घबरा रहा है। और अनहोनी हो ही गई।
इस दुख के बीच रिश्तेदारी में दो शादियां भी हैं। दोनों ही लड़कियों की। एक हमारे मामा के यहां तो एक हमारे लड़के के मामा के यहां। सपरिवार दोनों जगह जाना भी है। जाना भी पड़ेगा। यही तो जीवन है।
-शम्भूनाथ शुक्ला-
भगवान और मौत! मौत की खबरें फ़ेसबुक पर पढ़-पढ़ कर मुझे लगने लगा है, कि मनुष्य के बूते कुछ नहीं है। जो कुछ है ईश्वर के बूते है। और अगर ईश्वर हो तो मैं यह कामना करूँगा, कि प्रभु जी! ऐसी मौत देना, जिसमें कम से कम मैं एलोपैथी अस्पतालों के चंगुल में न फँसूँ। इन्होंने इंसान को पैसा उगाहने की मशीन बना लिया है। मेदांता, फ़ोर्टीज, अपोलो, मैक्स और गंगाराम में आदमी जाता है, दसियों लाख खर्च होता है। फिर मृत देह निकलती है। मुझ पर यदि बीमारी का क़हर टूटे तो इस तरह, कि शाम को हँसे, खेले, बतियाए और सुबह को फुर्र। घरवाले भी खुश होंगे कि बुढ़ऊ ने जीवन भर कमाया और मरे तो अंतिम संस्कार भी सरकार ने किया। अब अपने बेटे तो कोई हैं नहीं। इसलिए किसी को भी पितृ-दोष नहीं लगेगा। तेरहवीं का खर्च बचेगा। और मेरे सारे अंग एम्स को चले जाएँगे।
फ़ेसबुक के साथी और मृत्यु से भिड़ंत की कामना!
राजीव कटारा की मृत्यु ने विचलित कर दिया। मृत्यु किसी की भी हो विचलित करती ही है। सुबह ही अपने मित्र वीरेंद्र सेंगर का शोक संदेश पढ़ा तो धक्क से रह गया- ऐं राजीव कटारा की मौत हो गई! साहस विश्वास ही नहीं हुआ। फ़ेसबुक पर उनकी जो डीपी लगी है, वह ज़ेहन में घूमने लगी। मुस्कुराता हुआ चेहरा! और हँसमुख लोग मुझे बहुत पसंद हैं। उनमें भी वे जो अपना मज़ाक़ उड़ाना जानते हों। कितनी आश्चर्यजनक बात है, कि मैं रू-ब-रू राजीव से कभी मिला नहीं था। और मिला भी तो मुझे याद नहीं था। बस फ़ोन पर और फ़ेसबुक के मेसेज बॉक्स में राजीव मुझे लिखा करते थे, कि “आपके साथ बैठने की इच्छा है। आप बहुत अच्छा और मनोयोग से लिखते हैं। और पूरी साफ़गोई एवं सच्चाई के साथ लिखते हैं।” लेकिन उनकी यह इच्छा उनके साथ ही चली गई। उन्होंने कादम्बिनी के लिए मुझसे कानपुर की एक दिवसीय राम लीला “धनुष भंग” की लोक में मौजूदगी पर एक लेख लिखवाया। वह लेख शेड्यूल हो गया पर प्रबंधन ने कादम्बिनी का प्रकाशन ही बंद कर दिया। लेकिन उसके बाद भी उनसे संवाद जारी रहा, बस कोरोना के चलते हमारी बैठक नहीं हो सकी। एक-एक कर सारे मित्र बिछड़ते जा रहे हैं। वे जो मेरे निजी जीवन में मुझे कभी नहीं मिले, किंतु फ़ेसबुक से जुड़े और इतने अंतरंग जुड़े कि न दिखने पर चित बेचैन होने लगता है। ऐसे ही मित्र थे राजीव। हमपेशा होते हुए भी कभी एक-दूसरे को देखा नहीं।
फ़ेसबुक पर अनगिनत मित्र ऐसे हैं, जिनसे शायद ही कभी मिलना हो पर हर एक अपने उस अनदेखे मित्र का हालचाल जानने को व्यग्र रहता है। मैंने राजीव कटारा की मृत्यु से दुखी होकर अपनी भी मृत्यु का मज़ाक़ उड़ाते हुए मृत्यु को भिड़ने की चुनौती दी। तत्काल भारत के पूर्वी छोर पर स्थित एक राज्य से अपनी एक सहृदय पाठिका का यह संदेश आया-
“सादर प्रणाम सर
आपकी ऐसी पोस्ट बेहद तकलीफ देती है।
आपसे मिली नही कभी लेकिन एक जुड़ाव की अनुभूति हमेशा होती है।
हम अपने प्रियजनों के लिये ऐसी अनहोनी सोच भी नही सकते।
आप दीर्घायु और बेहद स्वस्थ रहें इतना तो मेरे कान्हा मेरे लिये कर ही सकते है।”