आज जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार और मेरे प्रिय लेखक-अनुवादक आनंद स्वरूप वर्मा का जन्मदिन है. मुझे 2009 से 2011 के बीच उनके साथ काम करने का मौका मिला जो मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण साबित हुआ. खासकर, हिंदी में लेखन और अनुवाद सीखने का बहुत खूब अवसर साबित हुआ वह समय. आज तक उनसे हमेशा कुछ ना कुछ सीखने को मिलता है.
एक किस्सा तो अनुवाद करने वाले सभी लोगों को सुनना ही चाहिए. 15 सितंबर 2009 इराकी पत्रकार मुंतसर अल जैदी जेल से रिहा हुए. उन्हें जेल होने की वजह बहुत क्रांतिकारी है. इराक को तबाह करने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू. बुश की 14 दिसंबर 2008 को इराक में आयोजित एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में जैदी ने उन पर अपने जूते फैंके थे. इसके बाद जैदी को गिरफ्तार कर लिया गया था और लगभग एक साल बाद उन्हें रिहा किया गया.
जेल से बाहर आने के तुरंत बाद जैदी ने ब्रिटिश अखबार द गर्डियन पर “वाई आई थ्र्यू द शू” नाम से लेख लिखा. इस लेख को, जिसके पहले दो वाक्य हैं, “मैं आजाद हूं. लेकिन मेरा मुल्क अब भी युद्ध बंदी है”, सभी को पढ़ना चाहिए.
अब उस प्रसंग पर आता हूं. जैदी के इस लेख का अनुवाद बहुतों ने हिंदी में किया. वर्मा जी ने भी सोचा कि समकालीन तीसरी दुनिया के उस माह के अंक में यह जाना चाहिए. उन्होंने अनुवाद किया और पढ़ कर सुनाया तो लगा कि जैदी ने ही लिखा है. इस बीच जितने अनुवाद पढ़े थे, वे अच्छे भले ही थे लेकिन एक तरह की कृत्रितमा थी उनमें. फिर वर्मा जी ने बताया कि क्योंकि लेखक महत्वपूर्ण हैं और अरब के हैं, इसलिए उन्होंने कोशिश कि है कि जरूरी स्थानों पर ऊर्दू के शब्द हों. फिर मैं समझा कि यही छोटा सा ट्विस्ट (twist) उस अनुवाद को शानदार बना दे रहा था.
उस अनुवाद से मुझे सबक मिला कि अच्छे अनुवाद के लिए जरूरी है कि अनुवादक लेखक के बैकग्राउंड को समझे, उसके हावभाव पर गौर करे, लेखक किस संदर्भ में लिख रहा है उस संदर्भ को विजुअलाइज करे. अनुवाद सिर्फ एक भाषा से दूसरी भाषा में साहित्य को प्रकट करना नहीं बल्कि अच्छा अनुवादक उस संस्कृति और परिवेश को भी अनुवाद कर रहा होता है जिससे लेखक आया है.
वर्मा जी के अनुवाद अनुवाद कला का सर्वोत्तम रूप हैं. मेरे पास उनके द्वारा अनूदित कई किताबें हैं. कुछ के नाम हैं : औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति, वेनेजुएला की क्रांति, नेपाली समरगाथा, आज की अफ्रीकी कहानियां, खून की पंखुडियां. इन सभी में अनुवाद का गजब कौशल देखने को मिलता है. अनुवाद में वर्मी जी ने जैसे प्रयोग किए हैं वे शायद ही किसी ने. और यही वजह है कि उनका एक भी अनुवाद कृत्रिम नहीं लगता. हम लोग अक्सर लेखन में प्रयोग की बात करते हैं लेकिन अनुवाद में होने वाले प्रयोगों पर ध्यान नहीं देते.
वैसे भी हिंदी में अनुवाद को इतना सस्ता काम माना जाता है कि इसके कलात्मक पक्ष पर लोगों का ध्यान ही नहीं जाता. जो लोग करते हैं वे भी सिर्फ करते हैं. ना महत्व देते हैं, ना अपने काम को सुधारना ही चाहते हैं. कुछ तो लेखक पर एहसान करने के भाव से अनुवाद करते हैं और मूल पर हावी हो जाना चाहते हैं और ऐसे-ऐसे बोझिल शब्द डाल देते हैं कि सिर दर्द करने लगता है.
लेकिन वर्मा जी के किसी भी अनुवाद में ऐसा दोष नहीं दिखता. वह एक शानदार अनुवादक हैं. अगर हम यूरोप या अमेरिका होते तो अनुवाद के रूप में वह ग्रेगोरी राबासा होते और कोई गैब्रियल गार्सिया मार्केज कहता, “आनंद स्वरूप वर्मा का अनुवाद मेरी मूल रचना से उत्कृष्ट है.”
पत्रकार और अनुवादक विष्णु शर्मा की रिपोर्ट. संपर्क- [email protected]
वर्मा जी के इंटरव्यू व लेक्चर के कुछ पुराने वीडियोज देखें-सुनें…