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यह पुस्तक गत आधी सदी के दौरान मुख्य धारा की भारतीय पत्रकारिता के पतन की महागाथा है!

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कविता कृष्णापल्लवी-

यह पुस्तक गत आधी सदी के दौरान मुख्य धारा की भारतीय पत्रकारिता के पतन की महागाथा प्रस्तुत करने वाली एकमात्र प्रामाणिक पुस्तक है. जाहिर है कि हिन्दी जगत का कोई बुद्धिजीवी अगर इस काम को अंजाम दे सकता था तो वह साथी आनन्द स्वरूप वर्मा ही हो सकते थे. पुस्तक मुख्य धारा की मीडिया के बरक्स एक वैकल्पिक जन-मीडिया खड़ा करने के मुद्दे पर भी ठोस प्रस्तावों के साथ एक गंभीर विमर्श प्रस्तुत करती है. साथी आनन्द स्वरूप वर्मा गत आधी सदी से द. अफ्रीका, नामीबिया आदि अफ्रीकी देशों से लेकर नेपाल और भूटान तक के मुक्ति संघर्षों और जनसंघर्षों के साथ अडिग खड़े रहे हैं और उनके बारे में लिखते रहे हैं. उनके द्वारा संपादित ‘समकालीन तीसरी दुनिया’ भारतीय प्रतिबद्ध पत्रकारिता के इतिहास का एक मील का पत्थर है. हमारी पीढ़ी ने अपने इस प्यारे कामरेड से प्रतिबद्धता और लेखन का ककहरा सीखा है और सीखती रहेगी. इस बहुमूल्य पुस्तक की चर्चा बाजारू मीडिया तो करने से रही. यह हम युवा प्रतिबद्ध ऐक्टिविस्टों का काम है कि इसे अधिक से अधिक उपयुक्त पाठकों तक पहुँचायें!

किताब का एक अंश देखें-

…ऐसी हालत में चौथे स्तंभ का मर्सिया पढ़ने का समय आ गया है। अब यह तथाकथित चौथा स्तंभ आम जनता के दुश्मन के रूप में दिखाई दे रहा है। इसकी जब स्थापना हुई थी तो इसका मकसद लोकतंत्र के तीनों स्तंभों–कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका पर निगरानी रखना था। लंबे समय तक इसने अपने दायित्व को पूरा भी किया। लेकिन जैसा कि ऊपर बताया गया है, इसका क्रमशः अध:पतन होता गया और आज ऐसी स्थिति पैदा हो गई है कि अब इस से कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। चूंकि इस पर किसी की निगरानी नहीं है इसलिए यह निरंकुश और बेलगाम हो गया है और अपने को जनता का नहीं बल्कि अपने कारपोरेट मालिकों का जवाबदेह मानता है।
जाहिर है कि ऐसे में इन तीनों स्तंभों के साथ-साथ चौथे स्तंभ पर भी निगरानी रखने की जरूरत है। हमें इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि क्या एक परिकल्पना के तौर पर ही सही हम किसी ‘पांचवें स्तंभ’ (फिफ्थ इस्टेट) को खड़ा कर सकते हैं? यह पांचवा स्तंभ अन्य स्तंभों के साथ-साथ विशेष रूप से चौथे स्तंभ पर निगरानी रखेगा। आप यह सवाल उठा सकते हैं कि अगर चौथा स्तंभ भ्रष्ट हो गया तो क्या गारंटी की पांचवां स्तंभ भी भ्रष्ट नहीं होगा? बात सही है। यह भी भ्रष्ट हो सकता है लेकिन इस काम में इसे भी कई दशक लग जाएंगे जैसा कि चौथे स्तंभ के संदर्भ में हुआ। यह पांचवा स्तंभ मुख्य रूप से पत्रकारों को लेकर बनाया जाएगा लेकिन इसके साथ उन सभी लोगों को घनिष्ठ रूप से जोड़ना होगा जो राजनीति, स्वास्थ्य, शिक्षा, अर्थशास्त्र आदि अलग-अलग क्षेत्रों में किसी विकल्प के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इनके सहयोग के बिना न तो इस प्रयास को हम जिंदा रख सकेंगे और न इसे भ्रष्ट होने से बचा सकेंगे। यहां जवाबदेही का भी सवाल है। हमारी जवाबदेही उस व्यापक जनसमुदाय के प्रति होगी जो मौजूदा राजनीतिक-सामाजिक स्थिति से क्षुब्ध है और किसी विकल्प की तलाश में है। इसे एक आंदोलन की तरह लेकर आगे बढ़ना होगा…
जर्मनी में फासीवाद के खिलाफ बौद्धिक लड़ाई लड़ने वाले मशहूर कवि और नाटककार बर्तोल्त ब्रेख्त ने अपने एक लेख में झूठ के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए कुछ तरीके बताए थे। उनका कहना था कि पाँच बातों को ध्यान में रखना चाहिए: 1. सच को कहने का साहस, 2. सच को पहचानने की क्षमता, 3. सच को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने का कौशल, 4. उन लोगों की पहचान करना जिनके हाथ में सच का यह हथियार कारगर हो सकता है, और 5. व्यापक जन समुदाय के बीच सच को फैलाने का हुनर।
पी. साईनाथ ने अपने एक वक्तव्य में एक बार कहा था कि आज मीडिया का झूठ बोलना उसकी संरचनागत बाध्यता (structural compulsion) हो गयी है और इसे वह अपने सभी उपादानों सहित आत्मसात कर चुका है।
इससे सहमत होते हुए मैं अपनी बात जॉर्ज ऑरवेल के इस कथन से समाप्त करूंगा जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘ इन ए टाइम ऑफ यूनिवर्सल डीसीट, टेलिंग द ट्रुथ इज ए रिवॉल्यूशनरी ऐक्ट।’ अर्थात जिस समय चारों तरफ धोखाधड़ी का साम्राज्य हो सच कहना ही क्रांतिकारी कर्म है।
(इसी पुस्तक से, पृष्ठ सं. 38-39)

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