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सुख-दुख

हालात कुछ संभलेंगे तो अच्छी नौकरियां अंग्रेजी वालों को मिलेंगी और मजदूरी का काम हिंदी वालों को!

उर्मिलेश-

एक हिंदी-पत्रकार के तौर पर अपने लगभग चालीस वर्ष के अनुभव और देश-विदेश के अपने भ्रमण से अर्जित समझ के आधार पर पिछले कुछ वर्षो से यह बात मैं लगातार कहता आ रहा हूं. उसे आज फिर दोहराऊंगा. इस महामारी में भी नये सिरे से इसे कहने की जरुरत है. हमारा साफ शब्दों में कहना है कि अब उत्तर भारत के हिंदी-भाषी इलाकों के गरीबों और उत्पीड़ित समाज के लोगों को अपने बच्चों को शुरू से ही अंग्रेजी में शिक्षित करने का प्रबंध करना चाहिए. खर्च में कटौती करना पडे तो भी बच्चों की अच्छी शिक्षा पर कोई समझौता नही कीजिये. सामाजिक, धार्मिक या सामुदायिक संगठनों को गांव-गांव ऐसे स्कूल खोलने चाहिए, जहां बच्चों को शुरु से ही अंग्रेजी में शिक्षित किया जा सके. बेशक, वे एक भाषा के तौर पर हिंदी भी पढें-समझें!

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अपने को आपका हितैषी बताने वाले राजनीतिक दलों के बड़े नेताओं से भी यह सुनिश्चित कराइये कि वे सरकार में आने पर आपके बच्चों को भी अपने बच्चों की तरह अंग्रेजी में शिक्षा का प्रबंध करेंगे. हर चुनाव में आम लोग अपने नेताओं पर इसके लिए दबाव बनायें. याद रखिये, हर प्रमुख नेता(वह चाहे जिस जाति या धर्म का हो!) का बेटा अंग्रेजी मीडियम स्कूल में पढ़ा होता है या पढ़ रहा होता है.

इस महामारी(कोविड-19) के बाद जब हालात कुछ संभलेंगे तो अच्छी नौकरियां अंग्रेजी वालों को मिलेंगी और मजदूरी का काम हिंदी वालों को. अंग्रेजी के बगैर होम-डिलीवरी वाली कंपनियों की साधारण नौकरी भी नहीं मिलेगी. मामला सिर्फ नौकरी का नही है. सूचना, ज्ञान और विज्ञान की दुनिया से बेहतर परिचय के लिए भी अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान ज़रूरी है. हिंदी में पढ़कर आपके बच्चे सूचना के लिए हिंदी उन अखबारों को पढ़ने और, टीवीपुरम् के कथित न्यूज़ चैनलों को देखने के लिए अभिशप्त होंगे, जिनका न्यूज़ की दुनिया से अब कोई वास्ता नहीं, वे सब एक अमानवीय सोच, एक जनविरोधी राजनीतिक धारा और कारपोरेट प्रोपगेन्डा के संगठित मंच भर हैं.

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आपके बच्चे अगर फर्राटेदारअंग्रेजी नहीँ जानेंगे तो देश-विदेश के अपेक्षाकृत अच्छे मीडिया प्लेटफॉर्म का उपयोग नहीं कर सकेंगे. घटिया प्रोपगेन्डा के घटिया मंच उनके दिमाग में घटिया विचार इंजेक्ट करेंगे.

अब इस महामारी में ही देख लीजिये. हर जरूरी चीज का नाम अंग्रेजी में है: टीका का नाम सब भूल चुके हैं. अब उसे ‘हिंदी’, ‘हिंदू’ और ‘हिन्दुस्थान’ वाले भी ‘वैक्सीन’ कहते हैं. देश के हिंदी अखबारों में भी ‘वैक्सीन’ और ‘वैक्सीनेशन’ जैसे शब्द प्रयुक्त होते हैं. इसे वे ‘अप-मार्केट’ की भाषा ‘हिंग्लिश’ कहते हैं. फिर आपके बच्चे ऐसी घटिया भाषा क्यों बोलें? वे सीधे अंग्रेजी ही क्यों न बोलें? महामारी के बारे में हिंदी अखबारों में सार्थक और ज़रूरी खबरें बहुत कम छप रही हैं. हिंदी के न्यूज़ चैनल इतना सब सामने होता देखकर भी सरकारी भोंपू बने हुए हैं—पूरे के पूरे टीवीपुरम्! उनमें काम करने वाले भी ज्यादातर कुछ ही समुदायों के होते हैं.

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विदेश के अंग्रेजी अखबार-न्यूज चैनल ही आज भारत का सच बताते दिख रहे हैं. अगर देश में यह काम कोई कर रहा है तो वे भारत की अंग्रेजी न्यूज़ वेबसाइट हैं. इनमें कुछ दो भाषाओं मे भी हैं. देश के कुछेक अंग्रेजी चैनलों के कुछेक एंकर और विश्लेषक भी अच्छे कार्यक्रम पेश कर रहे हैं. वेबसाइटों की पहुंच अभी हमारे यहां ज़्यादा नहीं है.

लेकिन यह बात सौ फीसदी सच है कि ज्ञान-विज्ञान का बड़ा खजाना अंग्रेजी मे है. हमारी सरकारों ने बीते 73 वर्षो में हिंदी को इस लायक बनाया ही नहीं. सरकारों के असल संचालक अंग्रेजी में सोचते और करते रहे, नेता हिंदी भाषी क्षेत्रों की गरीब और उत्पीड़ित जनता खो हिंदी के नाम पर बेवकूफ़ बनाते रहे!

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आज गरीबों के बच्चे हिंदी में क्यों पढें? क्या तर्क है
हिंदी-वादियो के पास? क्या सिर्फ मजदूरी करने के लिए हिंदी में पढ़ें? रिक्शा या टेम्पो चलाने के लिए? या कुछ ‘शक्तिशाली लोगों’ के इशारे पर काम करने वाली दंगाइयो की भीड़ का हिस्सा बनने के लिए ?

इसलिए, हिंदी भाषी क्षेत्र के उत्पीड़ित समाजों के लोगों, अब आप अपने बच्चों को वैज्ञानिक, प्रोफेसर, रिसर्चर, समाज विज्ञानी, न्यायविद्, लेखक, आईआईटियन, कम्प्यूटर विज्ञानी और अंतरिक्ष विज्ञानी बनाने के लिए अंग्रेजी को उनकी शिक्षा का माध्यम बनाइये. पढ-लिखकर वे स्वयं भी बदलेंगे और अपने समाजों में बदलाव का प्रेरक भी बनेंगे.

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इस बारे में हिंदी क्षेत्र के कुछ बुजुर्ग होते नेताओं या कुछ आत्ममुग्ध हिंदी लेखकों-बुद्धिजीवियों की फ़ालतू और बासी दलीलो से कन्फ्यूज होने की जरूरत नहीं है. यही न कि वो आपसे कहने आयेंगे कि आप अपनी प्यारी हिंदी छोड़कर अपने बच्चों को अंग्रेजी में शिक्षा क्यों दिलाने लगे? आप पूछियेगा उनसे, उनमें कितनों के बच्चे निगम या पंचायत संचालित हिंदी वाले स्कूलों में पढ़ते हैं? फिर वे आपको बेवजह हिंदी-भक्त क्यों बनाये रखना चाहते हैं?
सोचिये और बदलिये, वरना बहुत देर हो जायेगी!

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