रफाल विवाद खत्म नहीं होने वाला। अगर पुलवामा आतंकी हमले और इसके बाद वायुसेना की जवाबी कार्रवाई की वजह से यह दब गया था तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उकसाने वाली टिप्पणी ‘अगर हमारे पास रफाल होता…’ से फिर से यह छा गया है।
यह उनका दुर्भाग्य कि इस टिप्पणी के दो दिन के भीतर ही ‘द हिंदू’ ने रफाल सौदे पर एक और खोजी रिपोर्ट छाप दी। इस रिपोर्ट ने भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) के उन नतीजों की हवा निकाल दी, जिनमें कहा गया था कि एनडीए का रफाल सौदा यूपीए के रफाल के सौदे से 2.86 फीसद सस्ता था। (सरकार का दावा था कि उसने नौ से बीस फीसद सस्ता सौदा किया था, जिसे कैग की रिपोर्ट में खारिज कर दिया गया है।)
कौन-सा सौदा सस्ता?
मामला एकदम सीधा-सादा है। यूपीए के वक्त में किए गए सौदे में दासो के लिए बैंक गारंटी और परफॉरमेंस गारंटी देना अनिवार्य था। एनडीए के दौरान हुए सौदे में इन दोनों ही अनिवार्य शर्तों से कंपनी को छूट दे दी गई। गारंटी मुहैया कराने की कीमत बैंक अपने ग्राहक (इस सौदे में दासो) से वसूलेगा। यह गारंटी की ‘लागत’ है- ऐसा मामला है, जिसे सभी कारोबारी जानते हैं। रफाल सौदा चूंकि साठ हजार करोड़ रुपए का है, इसलिए गारंटी संबंधी शुल्क काफी ज्यादा होते।
अगर एक सौदा जिसमें गारंटी शुल्क काफी ज्यादा हों, और दूसरा सौदा जिसमें कोई गारंटी शुल्क न हो, तो यह सामान्य सी समझ है, जिससे हमें पता चल जाएगा कि जब दो कीमतों की तुलना की जा रही है, तो पहले सौदे में से गांरटी शुल्क हटा दिया जाना चाहिए। सीएजी ने दो हिस्सों में इन शुल्कों की गणना की –
बैंक गांरटी शुल्क — यूरो एएबी1 मिलियन
परफॉरमेंस गांरटी और
वारंटी शुल्क यूरो एएबी2 मिलियन
कुल यूरो एएबी3 मिलियन
कैग ने अंग्रेजी के अक्षरों और इन्हीं अंकों का उपयोग इसलिए किया है क्योंकि उसने सरकार से वादा किया था कि वह दाम संबंधी सूचना को ‘ठीक तरह से’ पेश करेगा। उसने खुल कर सरकार के पक्ष में काम किया। हालांकि कैग निम्नलिखित नतीजा निकालने के लिए मजबूर था –
‘इसलिए, बैंक शुल्क नहीं देने से विक्रेता को जो कुल एएबी3 मिलियन यूरो की बचत हुई, वह मंत्रालय को हस्तांतरित कर दी जानी चाहिए। बैंक गांरटियों की जांच के हिसाब-किताब से मंत्रालय सहमत हो गया है, लेकिन दावा किया है कि यह मंत्रालय की बचत थी, क्योंकि बैंक गारंटी शुल्कों का भुगतान किया ही नहीं जाना था।’
हालांकि ऑडिट में कहा गया है कि यदि इसकी तुलना 2007 की पेशकश से की जाए तो वास्तव में यह बचत मैसर्स डीए के लिए थी।
कैग ने नहीं निभाई जिम्मेदारी
गारंटी शुल्कों को अभी तक जनता से छिपाया जा रहा है और दोनों सौदों की तार्किक तुलना अभी तक नहीं की जा सकी है। द हिंदू की रिपोर्ट में जो जानकारी दी गई है, वह भारतीय वार्ताकार दल (आईएनटी) की रिपोर्ट से खोज कर निकाली गई है। ये शुल्क सत्तावन करोड़ चालीस लाख यूरो के थे। अगर इस राशि को यूपीए के वक्त के सौदे से निकाल भी दिया जाए और दोनों सौदों की तुलना की जाए तो भी एनडीए का सौदा चौबीस करोड़ इकसठ लाख यूरो ज्यादा महंगा बैठता है। मौजूदा विनिमय दर अस्सी रुपए पर एनडीए का रफाल सौदा 1968 करोड़ रुपए महंगा है। इस तरह छत्तीस रफाल विमानों में हर विमान 54.66 करोड़ रुपए महंगा पड़ेगा।
यह रहस्य ही है कि क्यों प्रधानमंत्री कार्यालय ने आईएनटी को नजरअंदाज करते हुए समानांतर बातचीत शुरू कर दी। यह भी रहस्य ही है कि भ्रष्टाचार निरोधी उपबंध को क्यों खत्म कर दिया गया। यह रहस्य है कि भुगतान सुरक्षा प्रणाली- संप्रभु गारंटी, बैंक गारंटी और ऐस्क्रू अकाउंट को सौदे से एकदम अलग कर दिया गया। दासो से ‘मुहब्बत और लगाव’ में तो ऐसा नहीं किया गया होगा। तथ्य संकेत देते हैं कि जरूर इसके पीछे मकसद कुछ और था। कैग का कर्तव्य बनता था इन रहस्यपूर्ण पहलुओं की जांच करने और सच्चाई को सामने लाने का। लेकिन उसने अपना कर्तव्य नहीं निभाया।
द हिंदू एक-एक करके छिपाई गई सूचनाओं और तथ्यों का पर्दाफाश कर रहा है। और इस पर सरकार का जवाब क्या है? सरकार अखबार पर ‘चुराए गए दस्तावेजों’ का इस्तेमाल करने का आरोप लगा रही है और आपराधिक आरोप लगाने की धमकी दे रही है। सरकार ने ऐसी धमकियों के लिए ही अटार्नी जनरल को मैदान में उतारा है।
चोरी के मशहूर दस्तावेज
भारत सरकार ने 2012-14 के दौरान स्विस बैंक खाताधारकों के नाम हासिल कर लिए थे, जो कि हैक करके फ्रांस और जर्मनी को दे दिए गए थे। आयकर विभाग ने नोटिस जारी किए, आयकर की मांग निकाली और ऐसे मामलों की सुनवाई शुरू की। तब क्या आयकर विभाग चुराए गए दस्तावेजों के आधार पर कार्रवाई कर रहा था? इसी तरह 2016 में एक लॉ फर्म के कंप्यूटर से एक करोड़ पंद्रह लाख दस्तावेज लीक कर एक जर्मन अखबार- ज़िदडॉयचे ज़ायतुंग को दे दिए गए थे, जिसने ये दस्तावेज खोजी पत्रकारों के अंतरराष्ट्रीय कंसोर्टियम के साथ साझा किए थे। आयकर विभाग को खाताधारकों जो कि भारतीय या अप्रवासी भारतीय थे, के नाम जारी करने को लेकर कोई संदेह नहीं था और इन्हें नोटिस भेजे गए थे।
इसी तरह मशहूर पेंटागन पेपर भी दरअसल एक गोपनीय रिपोर्ट थी, जो वियतनाम युद्ध पर अमेरिकी रक्षा मंत्री ने तैयार कराई थी। 1971 में यह लीक हो गई थी। वाशिंगटन पोस्ट इसे छापने की तैयारी कर रहा था। अमेरिकी सरकार ने अखबारों पर मुकदमा कर दिया। अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि न्यूयार्क टाइम्स और वाशिंगटन पोस्ट को बिना किसी सेंसर या सजा के खतरे के ये दस्तावेज छापने की इजाजत दी जाए। न्यायमूर्ति ब्लैक, डगलस, ब्रेनेन जूनियर, स्टेवार्ट, वाइट और मार्शल ने अभिव्यक्ति की आजादी को राष्ट्रीय सुरक्षा की अस्पष्ट चिंताओं से ऊपर रखते हुए कहा था कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया को अक्षुण्ण रखने के लिए सूचना का प्रसार जरूरी है।
अब इस बार भारत में इतिहास अपने को दोहरा रहा है। मोदी और उनके मंत्री द हिंदू को राष्ट्र-विरोधी या इससे भी खतरनाक करार देंगे। इतना सब कुछ होने के बावजूद पाठक द हिंदू पढ़ते रहेंगे। रफाल विमान आएगा। खुली जांच होगी। सच सामने आएगा। देश में जीवन चलता रहेगा।
पूर्व वित्त मंत्री और कांग्रेस नेता पी चिदंबरम का साप्ताहिक कॉलम। जनसत्ता में ‘दूसरी नजर’ नाम से अनुवाद छपता है। साभार। @PChidambaram_IN