Dilip C Mandal : ”मुझे रसोईघर में होना सख़्त नापसंद है… I hate being in the kitchen…” अनुराधा ने ये शब्द एक अमेरिकी संस्था के लिए टीवी डाक्यूमेंट्री बनाने वाले को दिए इंटरव्यू में कहे थे। यह शायद उनका आख़िरी टीवी साक्षात्कार था। यहाँ अनुराधा उस पारंपरिक भारतीय नारी की छवि को तोड़ती है, जिससे उम्मीद की जाती है कि वह तभी आदर्श कहला सकती है जब वह खाना पकाए, घर वालों की सेवा करें। करियर और जीवन में कामयाबी हो चुकी कई महिलाएँ भी उम्मीद का यह बोझ सर से उतार नहीं पाती। उनका बेबसी भरा तर्क होता है कि पति को अपने हाथ का बनाकर खिलाने में मन को सुख मिलता। यह बात और है कि पति खाना बनाकर अक्सर ऐसा कोई सुख नहीं लेना चाहते।
उम्मीदों का बोझ ढोकर आदर्श नारी बनने के चक्कर में अक्सर भारतीय औरतों की ज़िंदगी खप जाती है। अनुराधा ने इस स्टीरियोटाईप यानी बने बनाए ढाँचे को तोड़ा। वे बरसों किचन से आम तौर पर दूर रहीं। अपनी पसंद से महीने में एकाध बार पसंद का कोई डिश बनाना हो तो और बात है। पिछले दो दशक में किचन कभी भी उनकी पसंद की जगह नहीं रहा। रसोई में लगने वाले समय में उन्होंने पढ़ा लिखा, या अपना कोई काम किया। खाना किसी और ने बनाया। अनुराधा अपनी आर्थिक हैसियत के कारण ऐसा कर पाईं। लेकिन हमने इससे भी ऊँची हैसियत वाली औरतों को जाब के बाद का समय रसोईघर में खपाते देखा है। इसलिए यह आर्थिक हैसियत से कहीं ज़्यादा, सोच की बात है।
वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल के फेसबुक वॉल से