पुष्पेन्द्र पाल सिंह के बच्चों की दुनिया और क्लास रूम से दूर चले जाने को सिर्फ वही समझ सकता है, जो उनसे पढ़ा हो या जो उनको करीब से जानता हो। रवीश कुमार जब अपने लेख ‘कभी रवीश कुमार मत बनना’ में मीडिया और कम्युनिकेशन शिक्षा के दुर्गति की बात करते हैं तो अनायास ही आँखों के सामने अपना माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय घूमने लगता है। कैसे एक कुलपति (कुलनाशपति) किसी अच्छे शैक्षणिक संस्थान को बर्बाद करता है, इसको हम लोगों ने बड़े क़रीब से देखा है।
रवीश कुमार जब लिखते हैं कि देश में मीडिया और कम्युनिकेशन के बहुत कम अच्छे शिक्षक हैं तो आँखों के सामने पुष्पेन्द्र सर और आनंद प्रधान सर का चेहरा और उनकी वर्तमान स्थिति बेचैन करने लगती है। आज के समय में भी पुष्पेन्द्र सर के दो-ढाई घंटे के क्लास को बच्चे पूरी तन्मयता के साथ करते हैं। उनकी पढ़ाई हुई चीजें चाहे वो लिस्निंग हो या कम्युनिकेशन के सिद्धांत या उस आदमी का भी भला करो जो आपका बुरा सोच रहा है, कभी भूलती नहीं हैं। वे खुद अपने आप में एक चलते-फिरते क्लास रूम हैं।
पुष्पेन्द्र सर का क्लास रूम से दूर चले जाना बच्चों का वो नुकसान है, जिसका वो अंदाजा भी नहीं लगा पायेंगे। कुलपति ने पुष्पेन्द्र सर को ठिकाने लगा के विश्वविद्यालय की रही सही कसर भी पूरी कर दी। आनन्द प्रधान सर की स्थिति भी किसी से छुपी नहीं है। उनका जाना किसी व्यक्ति या विचारधारा की जीत नहीं, बच्चों की हार है। जानने और करने के बाद लगा की कम्युनिकेशन क्या फिल्ड है और उसे जानने के लिए पुष्पेन्द्र सर जैसे शिक्षकों की जरुरत वैसे ही है, जैसे शरीर में खून की। नई दुनिया, धर्मयुग के स्वर्णिम दौर से लेकर भास्कर के उदय की कहानी से होते हुए विदेशी विवि के जर्नलिज्म विभागों की आँखों देखी कहानी अब वैसे कोई नहीं बताएगा।
सबकी कहानियाँ मोटा मोटी एक सी ही हैं। माखनलाल के कुलपति के कारनामों पे अगर किताब लिखी जाये तो वो 600 पेज भी पार कर जाये। राज्य सभा जाने का ख्वाब देखने वाले कुलपति कुठियाला के खासमखास हो या उसके द्वारा फर्जी भर्ती किये गए गुर्गो का गिरोह हो, उनको एक बात याद रखनी चाहिए। किसी लकीर को छोटा करने के लिए उससे बड़ी लकीर खींचनी पड़ेगी। उसको मिटा के छोटा करने के लिए तो चम्पुओं चापलूसों की उम्र भी छोटी पड़ेगी।
प्रशांत मिश्र (इस साल माखनलाल से पासआऊट छात्र) से संपर्क : 9826181687
Rupesh
August 11, 2015 at 11:16 am
मैंने अपनी ज़िन्दगी में उनसे ज़्यादा बेहतर शिक्षक नहीं देखा। कॉलेज में वे छात्रो के अभिभावक रहते हैं। ऐसे शिक्षक के साथ अन्याय हम कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं। शर्म करो कुटिल कुटियारा
जितेन्द्र देव पाण्डे
August 12, 2015 at 4:29 pm
एकदम सही कहा प्रशांत| बाबा मात्र एक शिक्षक ही नहीं अभिभावक भी रहे हैं| एक शिक्षक के साथ राजनीति राष्ट्र की शिक्षा व्यवस्था की दुर्दशा की प्रतीक है|
AJAY
August 12, 2015 at 5:01 pm
वाह प्रशांत क्या खूब लिखा है।
Manish Shukla
August 12, 2015 at 6:24 pm
विद्यार्थियों के लिए भगवान से कम नही हैं हमारे सर