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सुख-दुख

क्या राजनीति का अर्थ केवल भूमाफिया, चोर- उच्चकों और फर्जी डिग्री धारकों से है!

आज जब मैं अपनी स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति पर आये मित्रों के मत पर अपनी सफाई पेश कर रहा हूँ, तो कबीर की याद आ रही है और ” झीनी चादर ” अपने जीवन में ओढ़ने वाले सभी मित्रों को नमन कर सफाई देने का मन है। मैंने ३४ साल की नौकरी की है तथा इस का मतलब यह नहीं कि मैंने इतनी लम्बी सेवा घुटन या विवशता के साथ की। यथा शक्ति, मनोयोग से जिन पदों पर रहा, काम किया। 

आज जब मैं अपनी स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति पर आये मित्रों के मत पर अपनी सफाई पेश कर रहा हूँ, तो कबीर की याद आ रही है और ” झीनी चादर ” अपने जीवन में ओढ़ने वाले सभी मित्रों को नमन कर सफाई देने का मन है। मैंने ३४ साल की नौकरी की है तथा इस का मतलब यह नहीं कि मैंने इतनी लम्बी सेवा घुटन या विवशता के साथ की। यथा शक्ति, मनोयोग से जिन पदों पर रहा, काम किया। 

सन २००० से जो व्यवस्था में बदलाव आया, उससे २००४ तक मैं जूझते रहा तथा इसी क्रम में मन को समझा कर मिले अवसर का लाभ उठाकर अध्यन अवकाश लेकर २००४ में अमेरिका चला गया और २०१३ में मिशिगन यूनिवर्सिटी से MBA, PhD, CPA कर वापिस आया। आप में से जो लोग विदेश में रहे हैं, वे जानते ही होंगे कि विदेश में रहकर अपने देश-प्रदेश की बहुत याद आती है। यहां की पापड़ी-चाट, समोसा, शुद्ध देसी घी भी याद आता है। यद्यपि शायद अब ये भी यहां मिलावटी मिलता है। यहां मेरी वृद्ध मां जब फ़ोन पर अमेरिका में मुझसे बात करती थीं तो बहुत रोती थीं और कहती थीं कि अब तू लौट कर नहीं आएगा। मेरे मरने पर ही आएगा। 

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ये शब्द मुझे बहुत पीड़ा देते थे। माँ की याद और अपने अंतर्मन की आवाज सुनकर सन २०१३ में अपने प्यारे उत्तर प्रदेश वापिस लौट आया। मेरे मन में भाव था कि जो ज्ञान मैंने अमेरिका में अर्जित किया है, शायद उसके उपयोग से मैं अपने प्रदेश के गये-गुजरे हालात ठीक करने में जरूर मदद कर सकूँगा, परन्तु ऐसा हो न सका क्योंकि यहां का नज़ारा काफी कुछ बदल चुका था। न केवल राजनैतिक अपितु प्रशासनिक व्यवस्था जाति व धर्म आधारित कुव्यवस्था में परिवर्तित हो चुकी थी। मैं लगभग १८ साल तक ‘आर्ट ऑफ़ लिविंग’ नामक संस्था का टीचर रहा हूँ।

अमेरिका से वापिस आने के बाद से पिछले दो वर्षों में प्रमुख सचिव के रूप में मैंने सात विभागों का मुंह देखा, जिससे मुझे आभास होने लगा कि उत्तर प्रदेश की प्रशासनिक व्यवस्था भी जाति व पार्टी लाइन पर विभाजित हो चुकी है, मठाधीश हर महत्वपूर्ण जगह पर बैठकर राजनेताओं के साथ गठजोड़ कर बैठे हैं, कोई भी सरकार आये, यह गठजोड़ कायम रहता है। मैं अपने पिछले दो वर्ष के कार्यकाल में कई विभागों से गुजरते हुए जब माध्यमिक शिक्षा विभाग में आया तो अच्छा लगा और मैंने एक माह 10 दिन खूब लगन से काम कर उ.प्र. बोर्ड परीक्षाओं में अंदर तक घुसे नक़ल माफिया को समूल नष्ट करने का संकल्प लिया परन्तु वहां भी माफिया ने मुझे टिकने नहीं दिया। 

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अंत में मैं अपने वर्तमान कम महत्व वाले ‘सार्वजनिक उद्यम विभाग’ में आया तो मेरे पास काफी खाली समय था, सप्ताह में २-४ ही फाइलें आती थीं।  मैंने सोचा कि क्यों न खाली समय में कुछ सार्वजनिक रूप से महत्वपूर्ण मुद्दे उठाकर काम किया जाए। बोर्ड परीक्षाएं आ गयीं। अतः ‘नक़ल रोको’ अभियान चलाया। छत्तीस जनपदों का अपने खर्चे पर निजी कार से छुट्टी लेकर भ्रमण किया। यह अभियान कुछ हद तक सफल भी रहा। मैं कम से कम जन सामान्य का ध्यान इस विकृति की ओर आकर्षित करने में सफल रहा। 

फिर अन्य कई मुद्दे और उठाने शुरू किये। आप उनके बारे में सब जानते हैं। ये मुद्दे सरकार या किसी व्यक्ति की आलोचना के उद्देश्य से नहीं उठाये गए। चाहे आज कुछ लोग ऐसा सोचते हैं। २८ जनवरी २०१५ से ‘सामाजिक मुद्दों की सक्रियता’ का दौर आरम्भ हुआ। इन मुद्दों को उठाते-उठाते, पिछले ६ माह में लोगो का इतना प्यार व समर्थन मिला कि मैं आत्मविभोर हूँ। इस दौरान मैंने दो जनपदों फैजाबाद व अम्बेडकरनगर के ‘प्रभारी प्रमुख सचिव’ का स्वेच्छा से काम देखना शुरू किया। एक प्रमुख सचिव को केवल एक ही जिला ‘प्रभारी’ के रूप में दिया जाता है , परन्तु मैंने स्वेच्छा से दो जनपद मांगे, क्यों कि ‘सार्वजनिक उद्यम विभाग’ में काम कम था और मैं अपने को व्यस्त रखना चाहता था। 

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वस्तुतः मैं इन जनपदों में ‘बालिका-कुपोषण’ कार्यक्रम चलाना चाहता था। यह विषय मेरे हृदय के काफी करीब है। मैंने पिछले ६ माह से निजी खर्चे पर सार्वजनिक/निजी अवकाश लेकर ४८ जनपदों का भ्रमण कर ‘जन-समस्याओं’ को महसूस किया और उठाया भी। प्रदेश की टूटी सड़कें देखी हैं। टूटी सड़कों पर चलकर कमर तोड़ी। बड़े नेता तो ‘हेलीकाप्टर’ में उड़कर सड़क देखते हैं। मैंने ग्रामीण क्षेत्र में घोर ‘बाल-कुपोषण’ देखा, ओला वृष्टि में किसानों को मरते देखा, उनके परिवारों को रोते बिलखते देखा। प्रदेश का कोई वरिष्ठ अधिकारी या मंत्रीगण पीड़ित किसान के घर तक नहीं गया। लाख चीत्कार के बाद भी। आज तक मुआवजा नहीं बंटा है। सत्तर प्रतिशत बिजली मूल्य की बढ़ोत्तरी व लोकसेवा आयोग में अनिल यादव के कदाचार का अपने तरीके से विरोध किया, आदि आदि |

फिर जब, ये सभी अति गंभीर सार्वजनिक मुद्दे उठाते-उठाते सत्ता शीर्ष के अहंकार को चोट पहुंची तो मदद के लिए मैं कई बड़े अखबारों के संपादकों से संपर्क किया और उनमें से कई ने मदद का भरोसा भी दिलाया और अधिकांश का साथ आज मिल भी रहा है। कई मीडिया के दोस्त आज मेरे मुद्दों के साथ अडिग खड़े भी हैं। मैं उनका हृदय से आभारी हूँ परन्तु कई ने निराश भी किया है। कई कभी-कभार अपने अहंकार में बीच-बीच में फँस जाते हैं, जो स्वाभाविक भी है। मैं उन्हें प्रेम-स्नेह के सिवाय दे ही क्या सकता हूँ। तब मुझे पता चला कि सत्ता ‘शक्ति’ कितनी बलशाली है। सब कुछ मैनेज हो जाता है। कॉर्पोरेट घराने भारत या प्रदेश में चाहे कोई भी सत्ता में हो, नजदीक हो ही जाते हैं। नेता और नौकरशाहों से घालमेल कर उत्तर प्रदेश जैसे गरीब राज्य के जल, जमीन और जंगल का शोषण-दोहन करते रहते हैं और करते रहेगें। जनमानस से उनको क्या सरोकार। जनता को तो दो-जून रोटी की ही पड़ी रहती है। यदि कोई ‘कस्बाई’ पत्रकार किसी शोषण के खिलाफ आवाज उठाता भी है तो प्रदेश का नया कानून/न्याय व्यवस्था उसे जलाकर मार डालती है |

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इस दौरान कुछ नेतागण को यह अटपटा लगा कि जहां ज्यादातर नौकरशाह आत्मसम्मान खो ‘गुलाम’ बनकर जी हजूरी करते हैं,वही मुझ जैसे ‘अदने’ से जनसेवक द्वारा टीवी या जनता के बीच जाकर उनके ‘झूठ  पोल’ कैसे खोलनी शुरू कर दी, उनके अहंकार को ठेस पहुंची और उन्होंने हमें ‘इस्तीफा’ देकर राजनीति में आने की चुनौती दे डाली।  जैसे कि ये नौकरी उन्होंने ही हमे दी हो। फोन पर गाली गलौज करायी जाने लगी, घर पर गुंडे भेज दिए गए, उससे भी बात नहीं बनी तो डराने व कलिंकित करने के हथकंडे के रूप में ‘नोटिस/चार्जशीट’ की धमकी अख़बारों में छपवानी शुरू कर दी। 

अब आप ही बताइए, क्या ऐसे वातावरण में मैं पद से चिपका रहूं और ये सब सहता रहूँ। जो मुद्दे मैंने उठाये हैं, क्या उनसे पीछे हट जाऊँ ? क्या कोई ‘नौकरी या पद’ आत्मसम्मान से बड़ा है, क्या मैं पद से चिपककर प्रताड़ना झेलूं या फिर मन लगाकर शांति से जन-समस्याओं को उठाऊं? जानने वाले मेरे साथी-संगी जानते हैं कि व्यवस्था में रहकर मैंने अपनी पूरी नौकरी में संघर्ष किया है अर्थात यह सब केवल आज ही नहीं कर रहा हूँ और न ही ये सब आज किसी राजनैतिक उद्देश्य के लिए कर रहा हूँ। विश्वास करिए कि यदि आज मैं किसी व्यस्त विभाग में होता तो शायद यह सब करने का समय ही नहीं मिलता। मैं विभागीय काम करते-करते दिसम्बर, २०१५ में चुपचाप नियतिवश सेवा निवृत हो जाता। अमेरिका वापिस चला जाता। ऐसी उच्च शिक्षा के बाद प्रोफेसर या अन्य कोई नौकरी कर भारत में भी शांति से रहता और यह अभी भी कर सकता हूँ।

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कई लोग कयास लगा रहे हैं कि मैं २०१७ के चुनाव/राजनैतिक उद्देश्य के लिए यह सब कर रहा हूँ। मैं साफ़ कह चुका हूँ, अभी ऐसा कोई विचार नहीं। मुझे आगे नहीं पता, मेरी नियति में क्या लिखा है ? क्या बताऊँ, आदमी को अपने एक दिन का तो पता नहीं, २०१७ के बारे में कैसे बता दूं। साथ ही, मैं यह भी पूछता हूँ कि क्या राजनीति का अर्थ केवल चोर- उच्चकों, अपराधियों, फर्जी डिग्री धारकों, भूमाफिया से है? क्यों न पढ़े लिखे, साफ़ छवि के योग्य, कर्मठ, निष्ठावान युवा, पत्रकार, वकील, छात्र, अध्यापक, प्रोफेसर, सेवा निवृत जन-सेवक-कर्मचारी चुनाव लड़ें ताकि राजनिति से जातिवाद, परिवारवाद, अपराधवाद, दबंगई, धन-बाहुबल, जैसी गन्दगी का सफाया हो सके, जैसा विकसित देशों में होता है।

यदि ऐसा ही चलता रहा तो, यह लोकतंत्र जो ‘चोर-तंत्र’ में तब्दील हो चुका है, के कारण उत्तर प्रदेश जैसे पिछड़े राज्य को रसातल में जाने से कोई रोक नहीं सकता। अनिल यादव जैसे चोर, भर्ती आयोगों में मेधावी युवाओं के साथ जात-पांत के आधार पर घृणा फैला कर अन्याय करते रहेंगे, बेरोजगार युवा प्रताड़ित होते रहेंगे, बिना जुगाड़ के कोई नौकरी नहीं मिलेगी, कोई काम नहीं होगा। बिजली चोरी रोकने के बजाय ७०% मूल्य वृद्धि होती रहेगी, क्षेत्रवाद व भूमाफिया के लाभार्थ एक्सप्रेस-वे बनते रहेंगे, चीनी मिलें निजी लाभार्थ बिकती रहेंगी, गन्ना किसान, युवा, गरीब किसान पिसता रहेगा, माँ-बेटियों की इज्जत लुटती रहेगी, विरोध करने पर बलात्कार के प्रयास में असफल होने पर पुलिस थाने में जला कर मारी जाती रहेंगी,  सत्ता पक्ष के गुंडों द्वारा बेटी की छेड़खानी की शिकायत पर पुलिस द्वारा कार्रवाई न होने पर बेटियां आत्महत्या करती रहेंगी, जैसा हमीरपुर में हुआ।

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मित्रों, मैंने स्वैछिक सेवा निवृति मांग कर, हार नहीं मानी है बल्कि अपने सिर का भार उतारा है। मैं पदमुक्त होकर आपके साथ आपकी पीड़ा बांटते हुए जनसामान्य के दर्द की बात ऐसे ही उठाता रहूँगा। पहले ‘सिस्टम में रहकर’, अब ‘सिस्टम के बाहर’ से लड़ाई जारी रहेगी। दिक्कत यह है कि हमने अपने अन्दर बसे आत्मा रुपी ईश्वर-अल्लाह की कही हुई बातें सुनना बिलकुल बंद कर दिया है। हम सब जीवन संघर्ष, झंझावात में इस कदर फंसे हैं कि हमें कुछ रास्ता दिखाई नहीं पड़ता। रास्ता दिखाना तो दूर, यदि कोई संघर्ष भी करता है तो उसपर विश्वास नहीं होता। इतने धोखे जो खाए हैं, हम संघर्ष करने वाले को ही पागल घोषित कर देते हैं। मेरे भी दिमाग का स्क्रू ढीला बता दिया, क्या करूं, जबकि मैं तो अपने को एक अदना सा व्यक्ति मानता हूँ।

ऐसी परिस्थिति मैं भी बताइए, क्या मेरा निर्णय आपको अभी भी गलत लगता है। मानता हूँ कि इतनी बड़ी नौकरी का एक भी दिन छोड़ना आसान नहीं। DGP जैसे पद के तीन-३ माह के सेवा विस्तार को लोग एड़ी-चोटी का जोरे लगा देते हैं। कुछ लोग अज्ञानतावश समझते हैं कि मैं कार्रवाई से बचने के लिए ऐसा कर रहा हूँ। आज भी कितने नौकरशाहों पर कार्रवाई हो रही है, क्या वे कार्रवाई से बचने के लिए सेवा निवृति ले लेंगे ? मेरा ३४ साल का ‘बेदाग़’ ट्रैक-रिकॉर्ड है। चलो अपनी-अपनी सोच है। उनकी सोच पर हमारा क्या जोर चलता है। भगवान सबको सद्बुधि दे।….चलो जन-मानस को उसकी शक्ति की याद दिलाएं !

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वरिष्ठ आईएएस सूर्य प्रताप सिंह के एफबी वाल से

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0 Comments

  1. Gopalji

    July 27, 2015 at 8:35 pm

    जन-मानस को उसकी शक्ति की याद दिलाने और जागरूक करने में आपके सार्थक प्रयासों हेतु आपको साधुवाद।
    ‘स्वच्छ भारत का पुनर्जन्म’ अर्थात ‘वसुधैव कुटम्बकम्’ परिलक्षित करने में मील का पत्थर आपका प्रयास और यह आत्म-दर्शन, वास्तव में सराहनीय क़दम है।

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