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सुख-दुख

जलाकर मारे गये पत्रकार जगेंद्र और संदीप की हत्या का ज़िम्मेदार कौन?

उत्तर प्रदेश में एक पत्रकार की जलने के बाद हुई मौत से ठीक पहले पत्रकार के अंतिम बयान में यह कहा जाना कि “मुझको गिरफ्तार करना था… तो कर लेते मगर पीटा क्यों ? और आग क्यों लगा दी?”, इतने सवालों को खड़ा कर देता है कि न तो उत्तर प्रदेश सरकार उनका जवाब दे पाएगी न ही पत्रकारिता जगत के दिग्गज! अभी ये मामला ठंडा भी नहीं पड़ा था, कि मध्य प्रदेश में भाजपा शासित सरकार की नाकामी के तौर पर एक पत्रकार की जली हुई लाश बरामद हुई, जिसके बारे में कहा जा रहा है कि खनन माफिया ने पहले पत्रकार का अपहरण किया और बाद में जलाकर मारा और लाश को दबा दिया। सरकार सपा की हो या बीजेपी की, पत्रकार कहां सुरक्षित है..? ये समझ में नहीं आ रहा ! और इसके लिए दोषी कौन है..? ये भी साफ नहीं हो रहा है !

<p>उत्तर प्रदेश में एक पत्रकार की जलने के बाद हुई मौत से ठीक पहले पत्रकार के अंतिम बयान में यह कहा जाना कि “मुझको गिरफ्तार करना था… तो कर लेते मगर पीटा क्यों ? और आग क्यों लगा दी?”, इतने सवालों को खड़ा कर देता है कि न तो उत्तर प्रदेश सरकार उनका जवाब दे पाएगी न ही पत्रकारिता जगत के दिग्गज! अभी ये मामला ठंडा भी नहीं पड़ा था, कि मध्य प्रदेश में भाजपा शासित सरकार की नाकामी के तौर पर एक पत्रकार की जली हुई लाश बरामद हुई, जिसके बारे में कहा जा रहा है कि खनन माफिया ने पहले पत्रकार का अपहरण किया और बाद में जलाकर मारा और लाश को दबा दिया। सरकार सपा की हो या बीजेपी की, पत्रकार कहां सुरक्षित है..? ये समझ में नहीं आ रहा ! और इसके लिए दोषी कौन है..? ये भी साफ नहीं हो रहा है !</p>

उत्तर प्रदेश में एक पत्रकार की जलने के बाद हुई मौत से ठीक पहले पत्रकार के अंतिम बयान में यह कहा जाना कि “मुझको गिरफ्तार करना था… तो कर लेते मगर पीटा क्यों ? और आग क्यों लगा दी?”, इतने सवालों को खड़ा कर देता है कि न तो उत्तर प्रदेश सरकार उनका जवाब दे पाएगी न ही पत्रकारिता जगत के दिग्गज! अभी ये मामला ठंडा भी नहीं पड़ा था, कि मध्य प्रदेश में भाजपा शासित सरकार की नाकामी के तौर पर एक पत्रकार की जली हुई लाश बरामद हुई, जिसके बारे में कहा जा रहा है कि खनन माफिया ने पहले पत्रकार का अपहरण किया और बाद में जलाकर मारा और लाश को दबा दिया। सरकार सपा की हो या बीजेपी की, पत्रकार कहां सुरक्षित है..? ये समझ में नहीं आ रहा ! और इसके लिए दोषी कौन है..? ये भी साफ नहीं हो रहा है !

सच्चे मन से सोचा जाए और सुनने की ताक़त हो तो इस सबके लिए सिर्फ हम सभी पत्रकार किसी हद तक दोषी हैं! बात तल्ख़ है लेकिन अगर किसी के पास पत्रकारों के ऊपर होने वाले ज़ुल्म की कोई दूसरी वजह हो तो बेधड़क बता सकता है?

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टेलीविजन की पत्रकारिता और कई बड़े चैनलों में बड़े पदों पर रहते हुए लगभग 17 साल हो गये। कई चैनलों पर हमारे प्रोमो तक चले मगर आज भी कई ऐसे पत्रकारों को देखकर खुद से शर्म आती है जो कभी न तो किसी चैनल के पे रोल पर रहे और न ही कभी कोई ख़बर के नाम पर कारनामा अंजाम दिया और जिनकी न सिर्फ महंगी कार, महंगा स्टेटस और मंहगे मोबाइल मुंह चिढ़ा रहे होते हैं, बल्कि जिनका पुलिस और प्रशासन में रुतबा बड़े बड़ों से ज्यादा दिखाई देता है। लेकिन जब गहराई में जाते हैं तो शर्म आती है। उन कथित पत्रकारों पर जो प्रशासन और पुलिस के सिर्फ इसलिए चहेते बने हुए हैं कि उनको उनके लिए बतौर ढाल काम करना है और पुलिस प्रशासन के काले कारनामों पर न सिर्फ परदा डालना है बल्कि प्रेस कांफ्रेस में भी पुलिस और प्रशासन के प्रवक्ता के तौर पर सवाल जवाब करना और पत्रकारों के सावलों को काटना होता हैं।

इसी सब के दम पर चहेते बने ये लोग न सिर्फ अपने शहर में दलाली को अंजाम देते हैं, बल्कि पुलिस प्रशासन में ट्रांसफर और पोस्टिंग का धंधा जमाए बैठे हैं। किसी भी चैनल या अखबार में काम करने वाले पत्रकार ऑफिस जाकर मीटिंग और ख़बरों के दबाव को झेलने को जिस तरह मजबूर होते हैं, ठीक उसके उलट ये कथित पत्रकार सुबह ही नहा धोकर एसएसपी से लेकर थानेदार तक या डीएम से लेकर एसडीएम या तहसीलदार तक के ऑफिस की चौखटों के सलाम बजाने में लग जाते हैं। पत्रकारिता के यही झोला छाप पुलिस प्रशासन और सरकार का एक ऐसा टूल हैं जिनके होते हुए असली पत्रकारिता कभी पनप ही नहीं सकती। दरअसल इनके पनपने की एक वजह ये भी है कि इन लोगों को पोषित करने वाले और इनके दम पर अपने छोटे मोटे काम निकालने वाले कुछ लोग लोग हर संस्थान के कार्यालय में भी मौजूद हैं।

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हो सकता है कि कुछ लोगों को मेरी बात तल्ख लगी हो तो इसमें कोई ताज्जुब नहीं क्योंकि बात है ही तल्ख। शाहजहांपुर का शहीद पत्रकार जगेंद्र सिंह हो या फिर मध्य प्रदेश का संदीप, इनकी हत्या पर घड़ियाली आंसू बहाने वाले अपने पत्रकार साथियों से मैं आज यह पूछना चाहता हूं कि उनको अपनी तिकड़मबाजी और शाम ढलते ही शराब और कबाब की महफिल से फुरसत मिलेगी तो बहुत होगा कि कैंडल मार्च ऑरग्नाइज़ करने के अलावा वो और क्या कर सकते हैं। सच बताऊं, कई लोग तो कैंडल मार्च भी सिर्फ खुद को चमकाने और खुद माइलेज देने के लिए करना चाहते हैं। नहीं तो बताएं कि कितनों में ये साहस है कि एक पत्रकार पर जुल्म हो तो दूसरा खड़ा मिले?  

दरअसल वर्ष 2011 में उत्तर प्रदेश सरकार के कई अफसरों और मशीनरी के कई काले कारनामे उजागर करते हुए सबसे पहले मेरे ही कई पत्रकार साथियों ने मुझको समझाने और मोटे कमाई के एवज़ समझौता कराने की कोशिश की। लेकिन जब बात न बनी तो प्रशासन ने सीधे मुख्यालय पर बुलाकर धमकाने और पुचकारने का मिला जुला खेल खेला। और इस सबके दौरान भी एक दो दल्ले किस्म के कथित पत्रकार वहां मौजूद रहे। लेकिन जब प्रशासन और सरकार को लगा कि इसके हाथ लगे सबूत हमको फंसा सकते हैं तो उन्होने न सिर्फ चंद मिनट के अंदर कई थानों में कई एफआईआर मेरे और मेरे परिवार के खिलाफ दर्ज कर दीं बल्कि कई जीपों में भर कर आई पुलिस घर और ऑफिस से काफी कागजात भी भर कर ले गई। लगभग एक महीने तक घर की बिजली और पानी तक काट दिया गया। जो बाद में हाइकोर्ट के आदेश के बाद प्रशासन को मजबूरन जोड़ना पड़ा।

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इस मामले में मानसिक रूप में मैं किसी भी हद कर लड़ाई के लिए तैयार था। लेकिन सबसे मुश्किल काम था परिवार को समझाना। मेरा भाई जिसका को पुलिस ने एक दिन कर अवैध हिरासत में रखा। इस पूरे मामले में मैंने न तो तोई समझौता किया और न ही किसी के सामने झुका। हाइकोर्ट का दरवाज़ा खटखटाने के बाद प्रशासन की मंशा पर पानी फिर गया और आज तक मामला अदालत में लंबित है। दिलचस्प बात ये है कि झूठी एफआईआर कराने वाले दो अफसरों के वांरट जारी किये गये और एक शख्स दो बार जेल भेजा जा चुका है। और कई का तो इससे से भी बुरा हुआ।   

इस मामले में मेरे कई पत्रकार और मेरे साथियों का इतना सहयोग मिला कि उसका एहसान उतारना मेरे लिए नामुमकिन है। कई साथी कंधे से कंधा मिलाकर साथ देते रहे और इस मामले पर सीना तान कर सबसे पहले खड़ा होने वाला यशवंत सिंह और उनका संस्थान भड़ास फॉर मीडिया जीवन भर मुझको अपने एहसान तले दबा चुका है। लेकिन कुछ ऐसे भी निकले जिनके अंदर इतनी भी हिम्मत नहीं हुई कि वो प्रशासन और सरकार के खिलाफ तो क्या लिखते बल्कि सिर्फ सच्चाई तक सामने लाने की सोच भी नहीं सके। इस दौरान मैंने “ख़बर हर क़ीमत पर वाले” आईबीएन-7 के आशुतोष, आजतक के कई लोगों समेत कई दिग्गजों से बात की, मैंने उनको कहा कि अगर पूरे देश में कोई एक भी इंसान अपने बच्चे के सिर पर हाथ रखकर ये कह दे कि मैने या मेरे किसी आदमी ने कोई लेनेदेने या कोई समझौता किया है तो मेरा साथ न देना। लेकिन शायद उनकी या उनकी कंपनी की पॉलिसी के लिए कंपनी की कमाई पत्रकारों की मदद से ऊपर थी।

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बहरहाल सवाल आज फिर वही है कि क्या सबसे तेज़ या ख़बर हर क़ीमत या किसी बड़े स्लोगन या ढिंढोरे वाले किसी भी चैनल को दो पत्रकारों को जलाकर माल डालने वाली ख़बर में भी इतना दम नहीं दिख रहा कि उसको मुहिम बनाया जा सके। बिग बी के ज़ुकाम पर या एश्वर्या के हनीमून के बैड की शीट का रंग बताने या अराध्या के एक भी मूवमेंट को लाइव दिखाने की होड़ वाले लोग आज भला क्यों चुप हैं। हम जानते हैं कि पिछले कई साल से जिन सवालों को हम उठा रहे हैं उसका अंजाम अच्छा नहीं होगा।

देश का किसान भूख से और आत्महत्या से त़ड़पता रहा देश का मीडिया कारोबार करता रहा। आज पत्रकारों पर ही खतरा मंडरा रहा है। मीडिया का एक बड़ा वर्ग उनसे खुद को अलग और सुरक्षित मानते हुए बेफिक्र सा लग रहा है। जगेंद्र या संदीप कोई एक दिन में नहीं मार डाले गये। एक लंबी प्रक्रिया है। पहले समझाओ, फिर लालच दो, फिर धमकी दो, फिर सरकारी मशीनरी और पुलिस के दम पर झूठे मामलों में फंसा दो, फिर भी न माने तो कहीं नौकरी न करने दो, और अगर तब भी न माने तो जो हुआ वो सबके सामने है।

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बस एक बात और। जो लोग पानी के जहाज़ में तीसरी मंज़िल पर बैठ कर तली में होने वाले सुराख़ को देखकर नीचे के मंज़िल पर वालों पर हंस रहे हैं, उनको एक बार तो अपनी समझ और अक़्ल का भी मुआयना कर लेना होगा, या फिर कम से कम आईना तो देख ही लें कि इतने दाग़ लेकर चेहरा किस किस को दिखाएंगे? साथ ही अब इतना तो तय है कि मीडिया का विस्तार हो चुका है, सोशल मीडिया, भड़ास और सौवीर, अमिताभ ठाकुर यशवंत और जैसे अड़ियल मौजूद हैं यानि अब मामला एकतरफा तो नहीं रहेगा।

लेखक आज़ाद ख़ालिद सहारा समय, इंडिया टीवी, साधना न्यूज, इंडिया न्यूज़ और कई चैनलों में कार्य कर चुके हैं फिलहाल एक हिंदी दैनिक और वेब पोर्टल http://www.oppositionnews.com में बतौर संपादक कार्यरत, संपर्क : [email protected]

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