शाहजहांपुर के जगेंद्र सिंह हत्याकांड से थोड़ा हटकर, मौजूदा पूरे मीडिया परिवेश पर सोचें तो साफ साफ लगता है कि टकराव पत्रकारिता और सियासत के बीच नहीं, बल्कि दो जरायम वर्गों के बीच है। भ्रष्ट सत्ता-पोषित मीडिया खबर की धौंस में यदि राजनेताओं या उनकी पार्टियों की लूट में हिस्सेदारी के बूते अपना कारपोरेट चेहरा चमकाना चाहता है और पत्रकारों का एक बड़ा तबका पुलिस, प्रशासन, नेता, माफिया ठिकानों पर चौथ-कर्मकांडों से उपकृत होते रहना चाहता है, तो मान लेना चाहिए कि इस टकराव की जड़ें कहीं और हैं। स्थितियां बहुत ही भयानक हैं। जगेंद्र हत्याकांड में तो उसकी मद्धिम सी आहट भर सुनाई देती है।
इस नजरिये से आज के पूरे हालात पर नजर दौड़ाएं तो मीडिया से एक नेता, एक माफिया, एक भ्रष्ट अफसर का सवाल उभरता है- ‘विज्ञापन या चौथ के बहाने, फ्लैट या लाइसेंस के बहाने तुम हमारी लूट में हिस्सा चाहते हो तो क्या तुम भी मेरे बराबर के अपराधी नहीं हो? तुम भी उन घपलों-घोटालों, उन समस्त प्रकार के राजनीतिक-प्रशासनिक भ्रष्टाचार के दोषी हो, जिसके माध्यम से हमने गलत आय का अंबार खड़ा किया है। तुम तो मुझसे भी ज्यादा खतरनाक अपराधी हो कि पत्रकारिता की नकाब ओढ़कर खबरें बेचने और विज्ञापन के बहाने माफिया कमाई में हिस्सा चाहने की उम्मीद रखते हो। तुम और तुम्हारे लोग, हमसे जितने प्रकार की अवैध सुविधाएं और शक्तियां अर्जित करते हैं, उसके बदले तुम सब खबरें छिपाकर समाज के सामने महान बने रहना चाहते हो। तो अब ऐसा नहीं चलेगा। सियासत गंदी है, शासन-प्रशासन भ्रष्ट है, जनता असहाय है तो इसके लिए तुम भी बराबर के जिम्मेदार हो। जब तुम जनता का पक्ष नहीं, हमारी गलत आय के हिस्सेदार हो तो, या तो खुद को भी ऐसा मान कर चलो अथवा सरेआम हमारे लात-जूते खाओ।’
अब कुछ व्यक्तिगत किस्म के प्रश्नों पर नजर डालते हैं। एक क्राइम रिपोर्टर अपने स्टॉफ के बाकी लोगों से कम या उनके बराबर वेतन पाकर भी साल-दो-साल की नौकरी में गाड़ी बंगले कहां से खरीद लेता है? धूर्त संपादक, मालिक की बेपनाह चापलूसी के साथ ही अवैध कमाई करने वाले स्टॉफ के उन चेले-चपाटियों को जानबूझकर अधिक महत्व क्यों देता है, जो भ्रष्ट अफसरों, नेताओं, माफिया तत्वों, अपराधियों की दलाली में दिन-रात लिप्त रहते हैं?
जगेंद्र सिंह या वैसे उन तमाम ईमानदार पत्रकारों के बारे में नहीं सोचा जाना चाहिए, जो भ्रष्ट कारपोरेट मीडिया से कहीं अकेले-अकेले, कहीं सांगठिनक दम पर जूझ रहे हैं और इस अंधेरगर्दी में अल्पसंख्यक हो गए हैं। सच कहें तो किसी समुदाय या वर्ग के कुछ गिने-चुने खराब लोगों की वजह से ही बाकी सब लोग बदमान होते हैं, तरह-तरह के आक्रमण का उन्हें सामना करना पड़ता है। मैंने ऐसे तमाम पत्रकारों को बहुत नजदीक से देखा-जाना है, जो निजी आचरण में गुंडे-मवालियों से भी गए-गुजरे रहे हैं। अपराधियों से, भ्रष्ट अफसरों और बदनाम नेताओं से उनका चोली-दामन का संबंध रहा है। पेशा पत्रकारिता का, करतूतें कुख्यात दबंगों जैसी। इस तरह के कथित पत्रकारों (‘कथित’ इसलिए कि वे पत्रकार हैं ही नहीं, संस्थान का चेहरा ओढ़कर चौथ वसूलने वाले गुंडे) के तौर-तरीके आम लोगों के साथ भी निहायत बदतमजी भरे होते हैं। उनकी हर सुबह किसी न किसी के खिलाफ खुन्नस से शुरू होती है और देर शाम तक तो वो बहुत कुछ कर-गुजर चुके होते हैं।
जब पत्रकारिता की ऐसी असहाय स्थितियों पर बात चलती है तो एक और जटिल-अप्रिय प्रश्न परेशान करने लगता है। जब कोई सरकार या शासन लेखक, पत्रकार, साहित्यकार अथवा किसी भी आम आदमी के साथ किसी तरह की ज्यादतियां करे तो क्या उन गुनाहों के लिए वे खामोश शख्सियतें भी जिम्मेदार नहीं मानी जानी चाहिए, जो उस अत्याचारी सरकार या शासन से पोषित होती हैं ? जब मैंने इस प्रश्न को फेसबुक मित्रों से भी साझा किया तो लगभग सबकी राय एक जैसी थी कि वे सब सरकार के चेहरे पर नैतिकता का मुलम्मा चढ़ाने वाले उतने ही जिम्मेदार होते हैं, जितना कि जगेंद्र सिंह की हत्या में शामिल शाहजहांपुर का कोतवाली प्रभारी और मंत्री। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार यदि कुछ गलत करती है, निश्चित रूप से उसमें वरिष्ठ कथाकार मैत्रेयी पुष्पा की भी मौन असहमति से इनकार नहीं किया जा सकता है। केंद्र सरकार महंगाई, बेरोजगारी, किसानों की आत्महत्याओं पर प्रवंचना का रवैया अपनाती है तो उसका वह समस्त बौद्धिक परिवार भी कुसूरवार माना जाना चाहिए, जो उसकी सुविधाओं से पोषित होता है।
इसी तरह का एक प्रश्न देश के उन मानवाधिकार संगठनों से भी बनता है, जो देश भर में फैले हुए हैं। गौरतलब होगा कि उत्तर प्रदेश में पत्रकारों पर हमले के मामले में शायद ही किसी ऐसे संगठन ने सत्ता के खिलाफ कोई पहलकदमी की हो। ये शाब्दिक उक्ति-वैचित्र्य भी कुछ कम विचारणीय नहीं कि जिस प्रदेश के शीर्ष नेता का नाम मुलायम सिंह हो, उसके राज में पत्रकारों के साथ इतना क्रूरतापूर्ण रवैया अख्तियार किया जाए। क्या इसलिए शेक्सपियर ने कहा था कि नाम में क्या रखा है ? नाम का कोई अर्थ नहीं होता।
पत्रकारों पर हमले होना ऐसे समय में एकदम स्वाभाविक है, जबकि पूरा-का-पूरा मीडिया कारपोरेट सत्ता पोषित है। हर समय राज्य के टुकड़ों पर वह लार टपकाता रहता है। आज आर्थिक प्रभुवर्ग प्रतिष्ठानी मीडिया की लाइफ लाइन है। यह किंचित भी मिशनवादी नहीं, शुद्ध ‘व्यावसायिक’ है। इसके संरक्षक राज्य के साथ गाढ़े संबंध बनाकर भूमाफिया, बिल्डर बन जाते हैं। शराब, फोरेस्ट्री के धंधे में घुस जाते हैं। यह मुनाफाखोर मीडिया का समय है। इसका पहला और अंतिम लक्ष्य ‘मुनाफाखोरी’ है। मीडिया और संचार माध्यम इसके लिए केवल ‘प्रॉडक्ट’ या ‘उत्पाद’ हैं। इसे काली नगदी से भी परहेज नहीं।
कारपोरेट मीडिया का अर्थशास्त्र बहुत साफ है। यह उस राज्य का प्रतिनिधि है, जिसकी सीमा में एक ओर गोरखपुर के पांच सौ बच्चे जापानी बुखार से दम तोड़ रहे होते हैं और उसी समय नोएडा में फार्मूला-1 रेस पर 20 अरब रुपये पानी की तरह बहा दिये जाते हैं। मंहगाई के सवाल पर संघर्षशील जनता के ‘भारतबंद’ पर कारपोरेट मीडिया के एंकर से लेकर टॉक शो में शामिल भाड़े के विचारक तक नाक-भौंह नचाते हैं। महंगाई से पिस रहे बंद समर्थकों को जनविरोधी करार देते हैं। घिनौने तर्क देते हैं कि बंद से क्या मंहगाई कम हो जाएगी? वस्तुतः अपनी मूल प्रकृति में वह अ-जनतांत्रिक है। उसके लिए श्रमशील वर्ग की समस्याएं खबर नहीं होती हैं। उसकी व्याख्या में श्रमिक मनुष्य नहीं है। उसकी रोजी-रोटी, उसके बच्चे की पढ़ाई-लिखाई की मुश्किलें उसके लिए इस समाज की चिंताएं नहीं हैं। यूनियन नेताओं की छवि को खलनायकों की तरह पेश किया जाता है। उनके प्रामाणिक बयानों और तथ्यों को छिपाया जाता है। इसके उलट कारपोरेट मीडिया दुनिया भर की मुनाफाखोर कंपनियों की फेहरिस्त बांचता-परोसता रहता है। तेल-राजनीति पर अमेरिकी हित में घृणा का माहौल बनाने के लिए इसके ग्लोबल साथी-संघाती विस्तारवादी, आतंकवादी मध्य-पूर्व नीतियों के समर्थन में इस्लाम को बर्बर धर्म के रूप में प्रचारित करते हैं। मध्य-पूर्व के संकट के लिए मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराते हैं। जबकि इथोपिया, सोमालिया, अल्जीरिया, मोरक्को आदि, और जो मुस्लिम राष्ट्र अमरीका समर्थक हैं, के कई बड़े मसलों पर निरपेक्ष-तटस्थ रुख रखते हैं।
आवारा पूंजी से नाभि-नालबद्ध कारपोरेट मिडिया जिस उच्चवर्ग के हितों की वकालत करता है, उसके पास संस्कृति के नाम पर सिर्फ लूट का ‘पैसा’ है, बाकी सब अनैतिक और जनता का हथियाया-खसोटा हुआ। इन दोनो के लिए ‘जनता’ शब्द फालतू है अथवा मर चुका है जबकि उसी (उपभोक्ता) के भरोसे उच्च वर्ग सफेद दांत दिखाता है और उसका मीडिया ‘रियलिटी शो’ (वाश बेसिन) परोसता है। उसने अपनी जनता को बांट लिया है। वह उच्चवर्ग की ‘प्रसारण संहिता’ से अनुशासित होता है। उसके लिए ‘राष्ट्र-राज्य’ मात्र सांस्कृतिक-आर्थिक अराजकता का संरक्षक€ है। उसका जूरी छ: साल की मासूम की फूहड़ भंगिमाओं पर ‘वाह्-वाह्’ करता है। ‘बिग बॉस’ और ‘राखी का इंसाफ’ जैसे प्रोग्राम पूरे वर्ग की मानसिक विकृतियों के उदाहरण हैं। इसी तरह अमेरिकी मीडिया सौ लोगों से सहवास का कीर्तिमान बनाने वाली जेन जुस्का को सेलिब्रिटी बना देता है। वरिष्ठ आलोचक डॉ. निर्मला जैन के शब्दों में यह बाजारू मीडिया है। इस पर ‘सेंशेसनलिज्म’ हावी है। नैतिकता दिखाने वाले संपादकों को मालिक कान पकड़कर बाहर कर देता है। मीडिया विशेषज्ञ प्रो. जवरीमल्ल पारख कहते हैं कि यह विचारहीन भाषाभासी मुनाफा केंद्रित मीडिया है। मुनाफा पाठकों से नहीं, विज्ञापनदाताओं से होता है। ऐसे में स्वाभाविक है कि ईमानदार पत्रकारों और संगठनों के साथ राज्य का रवैया कैसा हो सकता है।
जयप्रकाश त्रिपाठी
arvind sharma guddu
June 3, 2016 at 11:00 am
बहुत दिनों बाद पढ़ा, रूह को गिजा मिल गयी। सत्य विश्लेषण।