‘शोले’ के इस कालजयी डायलॉग से शायद ही कोई अंजान हो! फ़िल्म में नायक धर्मेन्द्र का ये संवाद सम्बोधित तो था नायिका हेमामालिनी के लिए लेकिन इंगित था खलनायक गब्बर यानी अमज़द ख़ान और उसके गुर्गों के लिए…! ये संवाद आज भी बेहद मौजू है क्योंकि इसमें नायिका की जिस सुचिता (purity) का वास्ता दिया गया है वो सामाजिक बुराइयों के आगे घुटने नहीं टेकने का है!
अब ज़रा इस संवाद को देश के टीवी मीडिया में पसरे आलम के साथ जोड़कर देखिए। जिसमें ‘मीडिया मालिक और उनके CEO Type चॉकलेटी चेहरे और बेईमान-रीढ़हीन सम्पादक’ — गब्बर और उसके गुर्गों का मुखौटा ओढ़कर खड़े हैं। धर्मेन्द्र की भूमिका में ‘पत्रकारिता’ है, हेमामालिनी का किरदार ‘पत्रकारों’ के पास है!
अगला शॉट भी फ़िल्म की तरह ही सटीक है! पत्रकारिता की ख़ातिर हर मान-सम्मान से समझौता करके पत्रकार अपनी लेखनी, कौशल और सूझ-बूझ को ताक़ पर रख नाचने लगता है और नेपथ्य से गाना बज रहा होता है… “हाँ, जब तक जाँ, जान-ए-जहाँ, मैं नाचूँगी…”
पत्रकारिता का चेहरा भी आज ऐसा ही विद्रूप हो चुका है! ख़बरनबीसी करने वालों से आज मीडिया मालिक उनका बुनियादी काम करवाने के बजाय दलाली करवाना चाहता है! जो जितना बड़ा दलाल और सेटिंगबाज़ है वो उतने बड़े ओहदे पर बैठा है। बीट रिपोर्टरों को इस क़दर निकम्मा बना दिया गया है कि वो ‘लाला’ के दलाली एजेंटभर बनकर रह गये हैं। ट्रांसफ़र-पोस्टिंग के लिए लाइजेनिंग करते फिरना मानों उनका असली काम रह गया है।
डेस्क पर तैनात पत्रकार उन ख़बरों को ‘तानकर’ अपनी आजीविका कमा रहे हैं जो डेढ़-दो मिनट की स्टोरी होनी चाहिए। इसी पर उन्हें आधा घंटे का शो बनाना होता है। लिहाज़ा, जो जितना बड़ा लफ्फ़ाज़ है वो उतनी बड़ी जगह पर बैठा है। इन सबका मुखिया मुख़्तार ऐसा शख़्स वहाँ ‘सम्पादक’ बना बैठा है जो ख़ुद लिखने-पढ़ने में सफ़ाचट रहा है! इसलिए सम्पादकीय संस्था ध्वस्त हो गयी है। हो भी क्यों नहीं… ‘लाला’ को अब सम्पादक नहीं बल्कि पेड-न्यूज़ का धुरन्धर चाहिए! जो उसे किसी भी तरह से पैसा लाकर दे दे! भले ही इस अनैतिक पैसे का बड़ा हिस्सा वो ख़ुद भी ढकार जाए! इसीलिए, सम्पादक आज सफ़ेदपोश दलाल बन चुका है।
‘लाला’ अब मीडिया से रसूख़ नहीं बल्कि पैसा कमाना चाहता है वो भी येन-केन-प्रकारेण! उसे तरह-तरह के ठेकों और ग़ैरक़ानूनी धन्धों के लिए मीडिया का कवच चाहिए! मीडिया के माध्यम से समाज में अपना सकारात्मक योगदान देने का ज़ज्बा अब एतिहासिक हो चुका है।
कल तक जो साबुन-शैम्पू बेचते थे वो अब कंटेंट बेचने के महारथी बनकर मीडिया की दुनिया में CEO बने दिख रहे हैं। इनकी MBA की डिग्री और आये दिन मीटिंगों के लिए बनने वाले पावर प्वाइंट प्रेजेंटेशन सिर्फ़ परसेंटेज का आँकड़ा समझते हैं! फ़लाँ फ़ीसदी मार्केट शेयर गिरा या चढ़ा, फ़लाँ टाइम बैंड पर फ़लाँ आइटम ही चलेगा क्योंकि फ़लाँ चैनल का वही चल रहा है…! इस तरह के जुमलों के बीच उनकी ‘नौकरी’ मीडिया में दो-ढ़ाई साल का कार्यकाल पूरा कर लेती है और उसके बाद लाला उनको निकाल बाहर करता है या वो लाला को लात मारकर किसी और डाल पर जा बैठते हैं!
किसी को इसकी फ़िक्र नहीं है कि कंटेंट में क्या होना चाहिए और क्यों…! कैसे होगा वो और कैसे उसे ही बेचना होगा? किसी के पास कंटेंट में ऐसा पैनापन नहीं है जिससे पत्रकारिता या समाज का कोई सरोकार स्थापित हो सके!
उसूल और सिद्धान्त की सारी बातें काग़ज़ी हो चुकी हैं। मुट्ठीभर ही सच्चे पत्रकार बचे हैं। इनमें से ज़्यादातर पिछली पीढ़ी वाले हैं। इनकी थाती किसी काम की नहीं रही। इन्हें 45 की उम्र में बूढ़ा और थका-मांदा का तमका दे दिया जा रहा है…! इनके डेथ वारंट पर लाला उन बेईमानों से दस्तख़त करवा रहा है जो ख़ुद जगज़ाहिर तौर पर पतित, क़मीना, परस्त्रीगमनबाज़, रिश्वतख़ोर, दलाल, सेटिंगबाज़ और तमाम विकृतियों से सुसज्जित है! सिवाय पत्रकारीय कौशल के उसके पास कलियुग के सभी कुकर्मों का प्रमाणित सर्टिफ़िकेट है। जो उसे चोर कहने की हिम्मत दिखाएगा उसका तो ये फ़ौरन क्रियाकर्म करने पर आमादा हो जाएँगे!
स्वनामधन्य पत्रकारों की ऐसी ही मौजूदा फ़ौज नेताओं और अफ़सरों को भाती है। सत्ता की दलाली में बेशर्मी जैसा कुछ नहीं है! ज़िले के संवाददाताओं का महीना तो कब का बँध चुका है। अब बाइट लेने के लिए भी सौदा किया जाता है। चैनलों पर होने वाली चर्चाओं में ‘मुझे बुलाना’ वाली इच्छा रखने वाले सम्पादकों और उनके गेस्ट कोआर्डिनेटर तक थैलियाँ भिजवा रहे हैं!
चैनल मालिक सत्तासीन पार्टी का अघोषित प्रचार सरगना बन चुका है। वो अपने आक़ाओं के इशारे पर कठपुतली जैसा बर्ताव करता है। नहीं करेगा तो मानों उसकी भी ख़ैर नहीं…! सेबी, ईडी, सीवीसी, सीबीआई जैसों के ज़रिये उसके भी होश ठिकाने लगा दिये जाएँगे!
बड़े कारपोरेट घरानों ने बड़े मीडिया हाउसेस में अपने शेयर ख़रीद रखे हैं। ऐसे में क्या मज़ाल कि कोई उनकी ओर आँख उठाकर भी देख ले! ये घराने जब जिसकी बजाना चाहते हैं, बजा देते हैं। ख़ासकर अपनी प्रतिद्वन्दी कम्पनियों का हाज़मा तो वो जब चाहे ख़राब करवा दें! बड़े पैमाने पर अब सिर्फ़ ख़बरें प्लांट हो रही हैं।
बड़े-बड़े और कथित तौर पर प्रतिष्ठित मीडिया घराने निजी अस्पतालों, स्कूलों-कॉलेजों, बिल्डरों के ख़िलाफ़ कभी कोई सच्ची ख़बर नहीं दिखाएँगे क्योंकि सबसे या तो विज्ञापनों के रूप में थैलियाँ पहुँचती हैं या विशेष समारोही कवरेज़ के स्पांसरशिप का पैसा आता है! सरेआम ब्लैकमेलिंग का नंगानाच चल रहा है और ये सब ‘पत्रकारों’ की बदौलत किया और करवाया जा रहा है!
किसी से कुछ नहीं छिपा है। बाज़ार और धन्धे के सिर पर चढ़कर सिर्फ़ यही बोल गूँज रहे हैं… “हाँ, जब तक जाँ, जान-ए-जहाँ, मैं नाचूँगी…”
जिसने सुर में सुर नहीं मिलाया उसे मौत के घाट उतार देने के पीछे का कथानक भी उपरोक्त बातों में समाहित हो चुका है। ‘पीपली लाइव’ की स्टोरी को याद कीजिए और समझिए कि अब पत्रकार किसी उसूल की ख़ातिर जीने-मरने वाले किरदार का नाम नहीं रहा! इसीलिए फ़िल्में अब पत्रकारिता को संजीदगी से नहीं लेतीं बल्कि ‘पत्रकार’ अब रूपहले पर्दे पर मसख़रे और दलाल के रूप में उकेरे जाते हैं। फ़िल्में भी समाज का आईना हैं और आईना झूठ नहीं बोलता!
इसलिए ऐसे मीडिया मालिकों के जन्म लेने के लिए व्रत-उपवास कीजिए जो चीख़कर कह सके — “बसन्ती, इन कुत्तों के आगे मच नाचना”… फ़िलहाल, तो बसन्ती नाच रही है!