Connect with us

Hi, what are you looking for?

सुख-दुख

झाबुआ में चिकित्सा-विमर्श : मीडिया को मेडिकल से क्या काम, सेहत से खेल रहे अस्पताल

झाबुआ : कंठ तक भ्रष्टाचार में डूबी देश की चिकित्सा व्यवस्था और उसके प्रति नितांत अगंभीर कारपोरेट मीडिया घरानों ने करोड़ो-करोड़ परेशानहाल लोगों से अपनी चिंताएं पूरी तरह हटा ली हैं। संसाधनहीन लोगों और गरीबों के प्रति जैसी उदासीनता सरकारी और प्राइवेट चिकित्सा संस्थान बरत रहे हैं, वही हाल खुद को चौथा खंभा कहने वाला मीडिया का भी है। प्रायः लगता है कि जैसे, देश की पूरी चिकित्सा व्यवस्था पैसे के भूखे इन गिरोहबाजों के चंगुल में फंस गई है। मीडिया घराने चिकित्सा क्षेत्र के विज्ञापनों को लेकर जितने आकुल-व्याकुल दिखते हैं, काश उतना आग्रह परेशान और असहाय मरीजों की मुश्किलों पर भी होता।  

झाबुआ : कंठ तक भ्रष्टाचार में डूबी देश की चिकित्सा व्यवस्था और उसके प्रति नितांत अगंभीर कारपोरेट मीडिया घरानों ने करोड़ो-करोड़ परेशानहाल लोगों से अपनी चिंताएं पूरी तरह हटा ली हैं। संसाधनहीन लोगों और गरीबों के प्रति जैसी उदासीनता सरकारी और प्राइवेट चिकित्सा संस्थान बरत रहे हैं, वही हाल खुद को चौथा खंभा कहने वाला मीडिया का भी है। प्रायः लगता है कि जैसे, देश की पूरी चिकित्सा व्यवस्था पैसे के भूखे इन गिरोहबाजों के चंगुल में फंस गई है। मीडिया घराने चिकित्सा क्षेत्र के विज्ञापनों को लेकर जितने आकुल-व्याकुल दिखते हैं, काश उतना आग्रह परेशान और असहाय मरीजों की मुश्किलों पर भी होता।  

चाहे पश्चिमी जगत हो अथवा पूर्वी (भारत), दोनों में माना गया कि स्वास्थ्य सर्वोपरि है। मसलन पश्चिम कहता है कि ‘हेल्थ इज वेल्थ’, तो पूर्वी समाज कहता है कि ‘पहला सुख निरोगी काया’, लेकिन बदली वैश्विक परिस्थतियों में यह मुद्दा ज्वलंत हो उठा है। सैकड़ों तरह की नई बीमारियां मानव जाति पर आक्रमण करने को आतुर हैं। इनमे कुछ ऐसी हैं जिनसे बचने के उपाय ही नहीं हैं, तो कुछ इतनी खर्चीली कि आम आदमी बिना इलाज के दम तोड़े दे रहा है और कुछ बीमारियों को नियोजित तरीके से यों फैलाया गया है, ताकि दवा कंपनियां डॉक्टरों के मार्फत भय दिखाकर माल बना सकें। इन्हीं ज्वलंत सवालों पर विमर्श, सामजिक चेतना फैलाने, सरकार पर दबाव बनाने और मीडिया इसमें क्या भूमिका अदा कर सकता पर चिंता और चिंतन के बरक्स भोपाल की ‘विकास संवाद’ संस्था ने अपना तीन दिवसीय ‘9वां राष्ट्रीय मीडिया संवाद’ झाबुआ नगर में आयोजित किया, जिसमें देश भर से प्रबुद्ध पत्रकार, सम्पादक, प्रोफेसर, समाजिक कार्यकर्ताओं और डॉक्टरों ने शिरकत की।

Advertisement. Scroll to continue reading.

पहले दिन 17 जुलाई को प्रो. के के त्रिवेदी ने झाबुआ का रोचक परिचय यहां के इतिहास के साथ दिया, जिसके बाद बीज वक्तव्य के लिए जेएनयू में प्रोफेसर डॉ. ऋतु प्रिया ने स्वास्थ्य समस्याओं पर इसके उपचार एवं विडम्बना पर विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने सरकार की स्वास्थ्य नीति पर कटाक्ष करते हुए कहा कि ‘कहने को देश से पोलियो का उन्मूलन हो चुका है, मगर यूपी, बिहार में बीते वर्ष ऐसे कई प्रकरण आए जिनमें बच्चों में भले पोलियो वायरस न पाया गया हो, पर वे लकवाग्रस्त हुए हैं। यानि चिकित्सा में सैद्धांतिक उपचार एक पक्ष और व्यवहारिक पहलू दूसरा पक्ष है। 

‘जन स्वास्थ अभियान’ के राष्ट्रीय संयोजक डॉ. अमित सेन गुप्ता ने भारत में दवा कंपनियों की स्थापना और उनके कारोबार के विस्तार का काला चिट्ठा खोला। उन्होंने बताया कि भारत में दवाओं का बाजार 60 से 70 हजार करोड़ का वार्षिक है और यह विश्व का महज एक प्रतिशत है। उन्होंने ने भारत में दवा कंपनियों के इतिहास को रेखांकित करते हुए बताया कि पहली बार जर्मन के सहयोग से भारत के ऋषिकेश में ‘आईपीडीएल’ नाम से दवा कंपनी स्थापित की गई जो अब खण्डहर है। बाद के वर्षों में अमेरिकी बाजार का भारत में प्रसार बढ़ा और वे देश में छा गईं। लेकिन महंगी दवाईयों के मद्देनजर संसद की ‘हाथी कमेटी’ की रिपोर्ट पर 1978 में नई दवा नीति बनाई गई जिसमें तय हुआ कि हिन्दुस्तान की कंपनियों को सपोर्ट किया जाए और विदेशी कंपनियों को बाहर रखा जाए। सस्ती दवाओं के बनने के बाद भारत को ‘गरीब देशों की दवा की दुकान’ कहा जाने लगा क्योंकि यहां से एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिकी देशों में सस्ती दवाएं उपलब्ध कराई जा रही हैं। 

Advertisement. Scroll to continue reading.

विडम्बना है कि हमारे ही देश का 60 फीसदी तबका दवाओं से वंचित है। अब तो बदले हालातों में भारतीय कंपनियां दवाओं के निर्माण की बजाय सिर्फ ट्रेडिंग में मशगूल हैं जिससे चीन का दवा बाजार पर कब्जा बढ़ा है। इसलिए इस पर सरकार को पुनर्विचार करना होगा कि हमारी स्वास्थ नीति का डॉक्यूमेंट कैसा हो? स्वास्थ्य ज्ञान की राजनीति का विकास होना चाहिए। स्वास्थ सेवाओं में सेवा सुश्रुषा की भावना हो। यानि चिकित्सा की कोई भी ‘पैथी’ कोई भी हो उसमें ‘सिम्पैथी’ का स्थान सबसे ऊपर है। जनसत्ता के लतांत प्रसून और सुधीर जैन ने स्वास्थ पर रिपोर्टिंग के पहलुओं को रेखांकित करते हुए अपने अनुभव बांटे। 

वरिष्ठ पत्रकार अरुण त्रिपाठी से सवालों के जरिए संवाद करते हुए विकास संवाद के सचिन जैन ने जनस्वास्थ के उन महीन पक्षों पर चर्चा की जिनको आमतौर पर उपेक्षित कर दिया जाता है। कार्यक्रम के संचालक चिन्मय मिश्र ने संचाालन के बीच-बीच में देश में स्वास्थ और चिकित्सा की दुर्दशा और इसमें हो रही लूट पर प्रकाश डाला। 

Advertisement. Scroll to continue reading.

दिल्ली से आए भड़ास4मीडिया के संपादक यशवंत सिंह ने दो बातों पर जोर दिया। एक- मीडिया में स्वास्थ्य रिपोर्टिंग का सारा ध्यान सरकारी अस्पताल की खामियों और उसकी खिल्ली उड़ाने तक सीमित है, जबकि प्राइवेट अस्पतालों में जो लूट और खामियां हैं, उस पर कोई बात नहीं होती। इससे चिकित्सकों और मीडिया घरानों में जो दुरभिसंधि है, उसकी बू आती है। दूसरा- मीडिया कर्मियों के स्वास्थ्य का पक्ष उपेक्षित है। यह लापरवाही कामकाज के हालात को लेकर मालिकानों और स्वयं मीडिया कर्मियों (नशापत्ती) दोनों स्तर पर नमूदार होती है। 

महिला पत्रकारों में ‘आउट लुक’ की भाषा सिंह और मनीषा भल्ला ने स्वास्थ रिपोर्टिंग की कठिनाईयों पर पक्ष रखते हुए इस पर संवेदनशीलता से डटे रहने की जरूरत बताई। ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ की श्रावणी सरकार ने बताया कि खबरों का नजरिया लोगों के लिए भिन्न-भिन्न होता है। मसलन कोई खबर इसलिए लिखी जाती है कि उससे सरकार की हेल्थ पॉलिसी में सकारात्मक बदलाव के लिए दबाव बनाया जा सके, तो कोई खबर इसलिए कि स्थानीय स्तर पर नकारात्मकता को रोका जा सके। 

Advertisement. Scroll to continue reading.

देश भर से आए पत्रकार, संपादकों और समामजिक कार्यकत्ताओं ने अपनी दृष्टि स्वास्थ और मीडिया विषय पर रखी जिससे यहां आये मीडिया कर्मियों और पत्रकारिता पढ़ रहे छात्रों की समझ बढ़ी। संदीप नाईक और कुमुद सिंह ने महिला स्वास्थ्य और इसको लेकर हो रही भौंडी रिपोर्टिंग पर अखबारों की खिंचाई की। चरैवेति के सम्पादक जयराम शुक्ल ने ‘रोटी शराब और पेट्रोल’ शीर्षक से स्वयं का आलेख पढ़कर व्यवस्था की विडम्बना को रेखांकित किया। झाबुआ में अक्षय की मौत से व्यापमं मसले की अनुगूंज भी रही जिसके खुलासे के लिए हमने अपने प्रथम प्रयास को रेखांकित किया।

कार्यक्रम के शुरुआत में चिन्मय मिश्र ने चंद्रकांत देवताले की कविता को पढ़ा, जिसका शीर्षक ‘खुद पर निगरानी रखने का वक्त’ अपने आप बड़ा संदेश है और कार्यक्रम का समापन नमिता शुक्ला के एक जनगीत और राकेश मालवीय के आभार प्रदर्शन से हुआ। निश्चत तौर पर विकास संवाद द्बारा विभिन्न विषयों पर हर वर्ष हो रहे राष्ट्रीय मीडिया संवाद के जरिए नई दृष्टि न सिर्फ बन रही है, बल्कि स्थापित भी हो रही है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

सतना ‘जनसंदेश’ के वरिष्ठ पत्रकार श्रीश पांडेय से संपर्क : [email protected]

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement