उत्तराखण्ड के 15 साल बता रहे हैं कि उसे अपना समझने की हिमाकत न तो राज्य सत्ता ने की है और न ही नौकरशाहों ने। सब ने उसे खाला का घर बना दिया है। जहां, जब तक डट सकते हो, डटे रहो। एक मुख्य सचिव बी आर एस के नाम पर सूचना आयुक्त बन 5 साल का जुगाड़ कर लेता है, तब दूसरा आता है और फिर तीसरा, संघर्ष और शहादतों से लिए राज्य में ये तमाशा क्या है?
हर एक के लिए, अपने परायों के लिए जुगाड़ करते नेता-नौकरशाह भूल गये हैं कि इस प्रदेश में लिए जाने वाले निर्णय प्रदेश की दशा-दिशा तय करते हैं। शराब माफिया पोंटी चढ्ढा के फांर्म हाउस में गैंगवार के समय राकेश शर्मा की उपस्थिति के मायने क्या थे और ऐसा भ्रष्ट अधिकारी यदि मुख्य सचिव बने तो राज्य की दशा जो बद से बदतर और उसे ऐसा बनाने में वर्तमान सत्ता-विपक्ष के साथ मौज उड़ा चुके और उड़ा रहे नौकरशाहों की महती भूमिका है, जिसे हम प्रदेश का मीडिया कहते हैं वह हमेशा सरकार का पिछलग्गू रहा है। चाहे किसी पार्टी या व्यक्ति की सरकार में भागीदारी हो, क्षेत्रीय मीडिया ने आखिरी दिन तक उसका गुणगान किया है और दूसरे दिन पाला बदल जाता है। तब चैथ वसूलने वाला चैथा स्तंभ क्या राह दिखा सकता है? स्थानीय मीडिया जो जनता की आवाज बनने का प्रयत्न करता है उसे वह समर्थन और विश्वास नहीं मिलता कि अपने पैरों पर खड़ा हो सके और राज्य की दशा-दिशा को परिभाषित कर रास्ता दिखा सके।
हम शहीद श्रीदेव सुमन को कितना सम्मान देते हैं, यह इस तथ्य से साबित होता है कि हमने रिकार्ड समय तक उन्हें यातना देने वालों को भारत की संसद में भेजा है और वही पार्टियां हमारी आराध्य हैं। हमें याद करना चाहिए कि वीर चन्द्रसिंह गढवाली को संसद में न जाने देने के लिए किन पार्टियों ने क्या हथकण्डे नहीं अपनाये?
हम आज भी बदलाव की राजनीति पर कितनी बहस करें लेकिन जनता के लिए लड़ने वाली जुझारु शख्सियत कुछ सौ या हजार वोट तक सिमट जाती है। ऐसा केवल संसद या विधान सभा के स्तर तब नहीं अपितु जिला, विकास खण्ड और गांव के स्तर पर भी है। सन् 1994 के उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन के बाद हुए चुनावों में हमने देखा कि आन्दोलन में सक्रिय लोग चुनाव हारे। हां, बात नौकरशाहों को खपाने को लेकर हो रही थी, राज्य में छह सूचना आयुक्तों की क्या सचमुच जरुरत है? सवा करोड़ की आबादी में कुछ हजार आर टी आई के लिए इतना खर्च संसाधन विहिन और हर बात के लिए केन्द्र का मुंह ताकने वाले उत्तराखण्ड के लिए बड़ा खर्चीला है। क्या इस संख्या को एक या दो तक सीमित नहीं किया जा सकता? यदि एक सूचना आयुक्त हो तो उसका कार्यालय गैरसैंण बना देना चाहिए और यदि दो तो एक को वर्तमान कार्यालय में और दूसरे को नैनीताल, हलद्वानी अथवा अल्मोड़ा। तब नौकरशहों के लिए बड़ा क्रेज नहीं रहेगा और जनता की गाढ़ी कमाई भी बच सकेगी।
एक किस्सा है- एक बादशाह के शासन काल में कोई भ्रष्ट नौकर था, उसके भ्रष्टाचार की शिकायत बादशाह तक पहुंची और बादशाह ने उसके काम छीन कर नदी की लहरें गिनने का काम दे दिया। एक दो दिन ठीक रहा, तीसरे दिन एक युवक अपनी धुन में जा रहा था कि उसने कोई कंकड नदी में उछाल दिया। क्या था, लहर गिनने वाले भ्रष्ट को मौका मिल गया, उसने युवक को पकड़ा और बोला- चल बादशाह के पास, मैं लहर गिन रहा हूं और तुमने उसे गड़बड़ा दिया। युवक गिड़गिड़ाया और छोड़ने की प्रार्थना की। सब समझ सकते हैं कि युवक को भ्रष्टाचारी ने कैसा छोड़ा होगा।
अमर उजाला के वरिष्ठ पत्रकार रह चुके लेखक पुरुषोत्तम असनोड़ा से संपर्क : [email protected]