Paramendra Mohan : भ्रष्टाचार सर्वत्र व्याप्त है, सब जानते हैं, लेकिन सीबीआई में भ्रष्टाचार का मौजूदा खुलासा वाकई देश की आंखें खोलने वाला है। भ्रष्टाचार की जांच करने वाली जांच एजेंसी का खुद हद दर्जे की भ्रष्टाचारी होना एक हिला देने वाला खुलासा है। ऐसा पहली बार हुआ है, जब खुद सीबीआई निदेशक और स्पेशल निदेशक ने इस सबसे बड़ी जांच एजेंसी में होने वाली रिश्वतखोरी, पैसे लेकर मामलों के सेटलमेंट, फैब्रिकेटेड रिपोर्ट बनाने के आरोपों पर मुहर लगाई है।
भले ही ये सच दो सबसे ऊंचे पदों पर बैठे अफसरों की लड़ाई की वजह से सामने आया है, लेकिन सच का पर्दे से बाहर आना जरूरी था, क्योंकि अगर कोई बाहरी यही आरोप लगाता तो सवाल उठते कि देखिए अब तो सीबीआई पर भी उंगली उठ रही है।
अब हर कोई ये आसानी से समझ सकता है कि क्यों बड़े-बड़े मामले सीबीआई बिना नतीजे पर पहुंचे फाइल क्लोज्ड करके जमा करती रही है? कैसे वर्षों तक मामलों को लंबित रखा जाता है और मामलों की जांच में तेज़ी लाने या लटकाए जाने का काम किया जाता है? पूरा तमाशा हो चुकने के बाद नए सीबीआई डायरेक्टर (अंतरिम) की नियुक्ति की गई है, हालांकि इस तमाशे में इस संस्था का जो बदनुमा चेहरा सामने आ चुका है, उस पर फिर से ईमानदारी और पारदर्शिता का मुखौटा चढ़ा पाना आसान नहीं होगा, फिर भी आलोक वर्मा बनाम राकेश अस्थाना की जंग पर विराम लगाने की कोशिश का स्वागत होना चाहिए।
नए निदेशक के सामने चुनौती बड़ी है, देखिए किस हद तक डैमेज कंट्रोल कर पाते हैं? अब दोनों शक्ति विहीन हो चुके हैं तो तीसरी शक्ति सुलह कराने में जुटेगी और फिर भ्रष्टाचार को दो अफसरों के विवाद से उपजी गलतफहमी और महज आरोप बताकर अंत भला तो सब भला कर दिया जा सकता है। राजनीति के लिए इसके पीछे दोनों पार्टियां अपने अपने विरोधियों का हाथ होने का शिगूफा छोड़ सकती हैं।
किसी को नहीं पता कि भ्रष्ट आलोक वर्मा हैं या राकेश अस्थाना या दोनों या इनमें से कोई नहीं, लेकिन हर कोई पूर्वाग्रह के आधार पर अपनी दलीय प्रतिबद्धता के मुताबिक फैसला सुनाने पर आमादा नज़र आ रहा है। कोई अस्थाना को क्लीन चिट देने पर तुला है तो कोई आलोक वर्मा को अस्थाना पर कार्रवाई के लिए बलि का बकरा बनाए जाने की दलील देने में लगा है।
अस्थाना की शक्तियां तो पहले ही पद पर रहने के दौरान और एफआईआर होने के बाद आलोक वर्मा ने सीज़ कर दी थी, ऐसे में उनके छुट्टी पर भेजे जाने का कोई मतलब ही नहीं बनता, मतलब बनता है आलोक वर्मा को छुट्टी पर भेजे जाने से। सीबीआई भ्रष्ट संस्था और सरकारी तोता है, ये तो सर्वविदित है, लेकिन इसमें इस कदर अनुशासनहीनता भी है, ये खुलासा भी पहली बार हुआ है।
किसी भी संस्था में एक क्रम होता है, दो समान पदों पर बैठे अफसरों में जंग भी आम होती है, लेकिन एक स्पेशल डायरेक्टर अगर अनुशासन की तमाम सीमाएं लांघकर चीफ डायरेक्टर के होते हुए खुद को चीफ समझने लगे तो फिर पहली कार्रवाई स्पेशल डायरेक्टर पर स्वाभाविक रूप से बनती है।
अस्थाना आखिर किसकी शह पर और किस हैसियत से सीबीआई चीफ के खिलाफ न सिर्फ मोर्चा खोले हुए थे, बल्कि सार्वजनिक रूप से विरोध कर रहे थे, ये सवाल तो उनपर बनता ही है। जिन 14 अफसरों के तबादले हुए हैं, बताया जाता है कि उनमें अधिकतर वो हैं, जो अस्थाना रिश्वत और भ्रष्टाचार मामले की जांच कर रहे थे।
आलोक वर्मा के बारे में बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी का बयान गौर करने लायक हैं, जिन्होंने कहा है कि वर्मा बेहद ईमानदार हैं, उनकी छवि साफ-सुथरी है, उन्होंने सीबीआई निदेशक से पहले दिल्ली पुलिस आयुक्त के पद पर भी ईमानदारी के साथ काम किया है। स्वामी ने चिदंबरम के मामले का खास जिक्र करते हुए ये भी कहा है कि अस्थाना ने तो उनकी फाइल लटका रखी थी, वर्मा ने ही चार्जशीट फाइल कराई।
स्वामी बीजेपी नेता हैं, किसी कांग्रेसी ने ये बात कही होती तो उसमें सियासत तलाशी जाती, केस-मुकदमों के मामले में स्वामी कागजात के धनी माने जाते हैं, अगर वो खुद अस्थाना पर उंगली उठा रहे हैं और वर्मा की छुट्टी पर सवाल उठा रहे हैं तो मामले की गंभीरता को समझा जा सकता है।
ये मामला सिर्फ अभी के लिए गंभीर मामला नहीं है, बल्कि इसे भविष्य में इस जैसे मामलों के सामने आने की आशंका को देखते हुए भी सुलझाए जाने की जरूरत है। ये किसी भी संस्था के लिए अच्छा नहीं होगा कि एक कनिष्ठ पद पर बैठा अफसर अपने शीर्ष पद पर बैठे अफसर के खिलाफ पद पर रहते हुए मोर्चाबंदी करे, राजनीति करे और फिर सवाल उठाए।
कल को चुनाव आयुक्त इसी तरह मुख्य चुनाव आयुक्त के खिलाफ मोर्चा खोले, राज्यमंत्री कैबिनेट मंत्री के खिलाफ बयानबाजी करे तो स्थिति बिल्कुल वैसी ही बन जाएगी जैसी सुप्रीम कोर्ट के जजों के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ मोर्चाबंदी से बनी थी या फिर अस्थाना के वर्मा के खिलाफ अनुशासनहीनता से बनी है। संवेदनशील मसला है, समाधान समुचित होना जरूरी है ताकि जो थोड़ी-बहुत इज्जत सीबीआई नाम की संस्था की देश में बची हुई है, वो बची रह जाए।
निजी तौर पर मेरा मानना है कि सीबीआई अफसरों को या किसी भी संस्था, विभाग के अफसरों को संस्था या विभाग प्रमुख के पद का सम्मान करना आना चाहिए, अगर उन्हें ये लगता है कि चीफ अपने पद पर बने रहने योग्य नहीं है तो उसके खिलाफ तय प्रावधान के मुताबिक कनिष्ठ कदम उठा सकते हैं, लेकिन खुले तौर पर कनिष्ठों का इस तरह चीफ के खिलाफ अनुशासनहीनता से एक गलत संदेश बाहर आता है, जिसे रोका जाना चाहिए था। रही बात इस पर हो रही राजनीति की, तो बड़ा मामला है तो बयानबाजी भी बड़ी होनी ही है
पत्रकार प्रमेंद्र मोहन की एफबी वॉल से.