मिथिला में होली खेलने की बहुत पुरानी परंपरा है। यहां की निराली होली के कहने ही क्या ! रंग और उमंग में पूरा मिथिलांचल सराबोर हो जाता है। मिथिला नरेश की इस धरती पर राम को याद किए बिना, उनके साथ रंग अबीर उड़ाए बिना सीता के मायके की होली भला कैसे पूरी हो सकती है। इस दिन हर घर, दरवाजे पर लोग पारंपरिक होली गीत गाने जाते हैं और वो भी ढ़ोल और नगाड़े के साथ।
यहां बसंत पंचमी के बाद से ही गांवों में फाग गीत गाने के लिए डंफा (एक वाद्य यंत्र) की मरम्मत करा ली जाती है। शाम को प्रतिदिन अलग-अलग दरवाजों पर फाग गीत गाने के लिए लोग जमा होने लगते हैं। पहले लोग जमकर भांग का शर्बत पीते हैं, फिर डंफे की धुन पर जमकर फाग गीत गाते हैं, जिसे जोगीरा कहा जाता है। जोगीरा सरररररर……इसकी तुकबंदियों के तो कहने ही क्या! जोगीरासारा सा..रा..रा..रा.. रंगों की फुहारों से भींगता तन-मन और उड़ते गुलाल से खिलता घर-आंगन। प्रेम के रंगों में हर कोई तर हो जाता है।
होली से एक दिन पहले होलिका दहन का जोश तो देखते ही बनता है। इसके लिए सबसे ज्यादा उत्साह बच्चों में होता है। होलिका को काफी ऊंचा बनाने के लिए लोग तरह-तरह से तिकड़म करते हैं, गालियां सुनते हैं लेकिन कोई इन गालियों का बुरा नहीं मानता। होली है…सब चलता है, कहकर लोग आगे बढ़ जाते हैं। शाम को होलिका दहन होता है और फिर अगली सुबह से ही लोग रंगों में सराबोर होने लगते हैं। यहां दोपहर तक रंगों की होली खेली जाती है। क्या बच्चे, क्या जवान, बूढ़े सभी भांग का शर्बत, लस्सी, ठंडाई, खोआ वाला भांग का पेड़ा, भांग मिला हुआ पान खाकर होली के रंग में डूब जाते हैं। इस अवसर पर हर घर में मालपुआ बनाया जाता है। लोग एक-दूसरे के घर झुंडों में जाते हैं और होली खेलने के साथ-साथ स्वादिष्ट मालपुआ खाते हैं। यहां कि होली की एक और खास विशेषता है। होली खेलते वक्त लड़कों के झुंड में एक-दूसरे का कुर्ता फाड़ देने की पुरानी परंपरा है। और इस परंपरा को आजकल “कुर्ताफाड़” होली के नाम से जाना जाने लगा है। जबतक कुर्ते न फटे…होली खेलने का मजा क्या!
दोपहर ढलने के साथ रंगों की होली का पटाक्षेप होता है और लोग नए कपड़े पहनकर गुलाल और अबीर की होली खेलने में रंग जाते हैं। जमकर गुलाल उड़ाया जाता है। गुलाल की होली खेलते वक्त रीति रिवाजों का पालन होता है। सभी अपनों से बड़ों का चरण स्पर्श करते हैं और चरण में ही गुलाल लगाते हैं। हमउम्र के साथ तो जमकर गुलाल उड़ाया जाता है, जबकि छोटों के माथे पर और गाल में गुलाल मलते हैं। मिथिला में रहनेवाले जानते हैं कि गिने चुने दिन ही उन्हें मांस खाने का मौका मिलता है। होली मिथिलावासी के लिए उसी में से एक है। लोग बड़ी उम्मीद लगाए रहते हैं। बकरा न मिलने का डर हर किसी को रहता है। मांस छागर का ही होना चाहिए।
समय के साथ होली खेलने के अंदाज में भी बदलाव हुआ है। अब खुशियां पहले जैसी नहीं मिलती हैं। लोगों का बड़े शहरों की ओर पलायनभी होली के रंगों को थोड़ा फिका कर चुका है। फिर भी एेसे लोगों की कमी नहीं, जो दूर दूसरे शहरों से होली के मौके पर अपने गांव, घर पहुंचते हैं और रंगों के इस उल्लासपूर्ण त्योहार का जमकर लुत्फ उठाते हैं। हम भी आपसे सिर्फ इतना कहेंगे। जमाने के गम को भूलकर रंगों की खुशी से अपने आपको सराबोर कीजिए और बोलिए….होलिया में उड़े रे गुलाल….जोगीरा सरररररर….
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