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नौकरी नहीं दी, तो आत्महत्या कर लूंगा…!!!

‘माननीय सर, मुझे उम्मीद है कि मेरे शब्द आपको आहत नहीं करेंगे. आप मेरी स्थिति से भली भांति परिचित हैं. मैं आपको पिछले एक साल से लगातार इसके बारे में बता रहा हूं. आपका मानव संसाधन विभाग आपके कहने पर मेरे बारे में अवश्य विचार करेगा. महोदय मैं और मेरा परिवार भूखे मरने की स्थिति में आ गया है. यदि आपने मुझे नौकरी नहीं दी तो मैं अपने परिवार समेत आत्महत्या कर लूंगा.

अल सुबह मेरे मोबाइल फोन पर आये एक एसएमएस का यह हिंदी तर्जुमा है.

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सुबह सुबह इस मैसेज को पढ़कर बहुत गुस्सा आया. ये नौकरी मांगने का कौनसा तरीका है? कल ऐसा न हो कि कोई कनपटी पर पिस्तौल रखकर नौकरी मांगने लगे. भूखे मर जाएंगे, आत्महत्या कर लेंगे लेकिन नौकरी मीडिया में ही करेंगे. क्या हम संकीर्णता के मनोरोग से ग्रसित तो नहीं हो गए हैं जहां हमें एक अदद नौकरी के अलावा जिंदगी जीने का कोई और तरीका नहीं दिखता? ऐसा नहीं कि मैं आजीविका की आवश्यकता और बेरोजगारी की प्रताड़ना से वाकिफ नहीं हूं. एक बार तो अपने एक लेख में किसी चैनल के बंद होने पर मीडिया साथियों के लिए अपनी संवेदनाएं प्रकट करना भी भारी पड़ गया था. एक परम ज्ञानी मित्र ने सार्वजनिक तौर पर लिखा था कि जाके पैर न फटी बिवांई…आगे आप जानते ही हैं. मैंने प्रत्युत्तर दिया कि मेरे पैरों कि बिवाईं की गांरटी आप क्यूं लेते हैं? आप मेरे जीवन से परिचित भी नहीं और मेरे वर्तमान संघर्षों से भी नहीं, फिर क्यूं मेरे दुख को और बढ़ाते हैं. हो सकता है मैं आपके दर्द में अपने दर्द को भी महसूस कर रहा हूं. ये बात और है कि उन्होंने उस वक्त इन बातों को समझा था और उसी सार्वजनिक मंच पर माफी भी मांगी थी.

आज इन बातों को यहां लिखने की आवश्यक्ता इसीलिए महसूस हुई क्यूंकि मीडिया में नौकरी मांगने वाली दो जमातों का एक बड़ा फर्क महसूस हो रहा है. एक जमात वो है जो उम्मीदों से भरी है मीडिया कि चकाचौंध से प्रभावित है और कुछ कर गुजरने के सपने संजोए हुए है. तो एक जमात वो है जो कुछ समय तक मीडिया में काम कर चुकी है, इसकी चुनौतियों और सीमाओं से वाकिफ है और अपने लिए एक सुरक्षित जगह कि तलाश कर रही है.ज्यादातर जगहों पर एक पूरा का पूरा कबीला टेक ओवर करता है और एक पूरा का पूरा कबीला निकाल दिया जाता है. मजदूर वर्ग अप्रभावित सा टुकुर टुकुर ये सब देखता है और अपनी गनीमत भगवान से चाहता रहता है. मीडिया कर्मियों को अपने करियर के विषय में अधिक गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है. हमें बदलते वक्त में मीडिया कि सीमाओं के प्रति भी सजग रहना होगा नहीं तो अचानक वो स्थिति हमारे सामने होगी जब मीडिया में नौकरी नहीं होगी और दूसरा काम हमें आता नहीं होगा. फेस बुक पर सैंकड़ों ऐसी धमकी भरी गुजारिशें मेरे मैसेज बॉक्स में पड़ी रहती हैं. एक सज्जन ने तो मुझे एक के बाद एक कई मैसेज किए और जवाब नहीं देने पर प्रश्न पूछा. आप जवाब देना पसंद नहीं करते हैं क्या?

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ये प्रश्न भी अनुत्तरित ही रखा तो कुछ दिन बाद उनका मैसेज आया, हद कर दी आपनें? मन में तो मैंने सोचा कि हद मैंने कर दी या आपने, लेकिन फिर उनकी व्यग्रता से अपने चित्त को अछूता ही रखते हुए इस बात का भी जवाब नहीं दिया. दो तीन दिन बाद फिर उनका मैसेज मिला. आप क्या समझेंगे कि संघर्ष क्या होता है. आप तो चांदी कि चम्मच मुंह में लिए पैदा हुए होंगे. ये बात थोड़ी दिल को लगी. हंसी भी आ रही थी. अपने गुजरे दिनों को भी याद कर रहा था. अपने स्कूल जीवन में ही मैंने काम करना शुरू कर दिया था. अपनी आर्थिक परिस्थितियों पर रौशनी डालने का मंच मैं इस लेख को नहीं मानता लेकिन जो थोड़ी जानकारी उस मित्र को दी वो जरूर यहां लिख रहा हूं. मैंने उसे बताया कि मैं 14 वर्ष की उम्र में एक कपड़े की दुकान पर झाड़ू पोछे का काम कर चुका हूं, नमकीन बनाने के कारखाने में काम किया, किराने की दुकानों पर भी बैठा हूं. एक मजदूर का बेटा होने के नाते dignity of labour का पाठ मुझे बहुत छोटी उम्र से पढ़ाया गया.

इन सारे अनुभवों ने मेरे आत्मविश्वास को बढ़ाया. विदेशों में सेना में सेवाएं देने की अनिवार्य व्यवस्था की जाती है. इसकी वजह है संघर्ष और देश प्रेम को समझना. देशप्रेम का तो नहीं पता लेकिन जीवन जीने का ये संघर्ष हमारे देश में जीवन की शुरूआत से ही ज्यादातर बच्चों को मिल जाता है. संघर्ष की कमी हमारी कमियों को दूर करने के बजाय हमारी निर्भरता को बढ़ाती है और हम अपनी असफलता का जिम्मेदार दूसरों को मानने लगते हैं. अधिकतर मौकों पर बेचारा भाग्य हमारा पंचिंग बैग बन जाता है. अपने इस भाई को मैंने अंत में ये भी समझाया कि मैंने सारे संघर्ष किए लेकिन जिस अंदाज में तुमने नौकरी मांगी, उसकी हिम्मत कभी न हो पाई. उसका कोई जवाब तो मेरे पास नहीं आया लेकिन मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि वो इस सुंदर जीवन की शक्ति और संघर्ष के सही मायने समझ पाए.

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मीडिया में काम करने वालों की स्थिति बहुत दुखद बनती जा रही है. अखबारों में काम करने वाले तो कई पुराने, अनुभवी और अपने जमाने में पहचान रखने वाले पत्रकार भी बुरी स्थिति में हैं. मैं ये बात इसीलिए कह रहा हूं क्यूंकि ऐसे कई पत्रकारों को भी नौकरी की जरूरत महसूस होती है. नई जमात आती जा रही है पुरानी की कोई व्यवस्था नहीं है. उस पर चैनल के चैनल, अखबार के अखबार बंद हो जाते हैं तो सालों से काम कर रहे पत्रकारों की एक बड़ी जमात सड़क पर आ जाती है. पत्रकार के हुनर भी बहुत सीमित हैं. हल बक्खर तो हांक नहीं सकता. लिख सकता है पढ़ सकता है. इन कामों के लिए भी उसे किसी इस्तेमाल करने वाले की जरूरत होती है. इन पत्रकारीय गुणों को स्वयं धनोपार्जन का तरीका नहीं बना पाते हैं किसी के कार्य में इसकी आवश्यक्ता होती है तो कुछ बात बन जाती है. फिर कॉलेजों में पढ़ाने का विकल्प सूझता है तो पढ़ाना भी मीडिया की पढ़ाई तक सीमित है.

फ्री लांस काम करने वालों कि अपनी इंडस्ट्री होती है उसमें कोई ताजा ताजा बेरोजगार यूं ही जगह नहीं बना पाता है. ये व्यवहारिक समस्याएं इसीलिए बता रहा हूं क्यूंकि पत्रकारों को अपने दायरे का विस्तार करना होगा. या तो राजनैतिक गलियारों में दखल रखने वाले दलालों की जमात है या फिर एक दम मजदूर क्लास का पत्रकार है. इस करियर का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व ही नहीं दिखाई पड़ता. कई बुजुर्ग पत्रकारों को तो अब टेलीविजन पर एक्सपर्ट के तौर पर बैठने का मौका मिल गया. महीने का चैक आ जाता है, अखबारों में आर्टिकल छप जाते हैं, कुछ कार्यक्रमों में सम्मान आदि से भी नाम चर्चा में बना रहता है. लेकिन इस वर्ग में भी बहुत सीमित पत्रकार ही आते हैं.ये कोई ऐसा उद्योग नहीं जिसके उत्पाद के बिना जीवन नहीं चल सकता. खदानें, कृषि क्षेत्र, आइटी इंडस्ट्री, अन्य कई उद्योगों की तरह मीडिया इंडस्ट्री का उत्पाद समाज की अनिवार्य जरूरत नहीं है. न ही मनोरंजन इंडस्ट्री की तरह ही हमारी इंडस्ट्री को लिया जा सकता है, हांलाकि ये बात और है कि ज्यादातर चैनल अब उसी दिशा में दौड़ रहे हैं. इसकी चकाचौंध के साथ इसकी संभावनाओं को भी ठीक से समझना होगा. मैंने इंदौर में बड़ी तादाद में मिलों के बंद होने के बाद कई परिवारों के बेरोजगार होने की विभीषिका को देखा है और महसूस किया है. ये बात में मीडिया छात्रों को हतोत्साहित करने के लिए नहीं लिख रहा बल्कि उन्हें मीडिया में कदम रखने से पहले अच्छी तैयारी करने के मकसद से कह रहा हूं. एक सज्जन मुझे मैसेज भेजते हैं कि मैं नौकरी के लिए आपसे संपर्क नहीं कर रहा हूं, बस एक बेहतर मौका चाहता हूं. इसका मतलब मुझे समझ नहीं आया इसीलिए जस का तस इसे यहां रख दिया है. एक भाई कहते हैं कि उन्होंने वर्तमान काम को पारिवारिक दिक्कतों के चलते छोड़ दिया है और अब वे हमसे जुड़ना चाहते हैं. पता नहीं उनकी पारिवारिक दिक्कतें अब कहां काफूर हो गईं. कई मित्र अपने साधारण और गरीब परिवार का होने का भी हवाला देते हैं.

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पहले पहल मीडिया को अपने जीवन का मकसद मानकर कुछ कर गुजरने का जुनून रखने वाले पत्रकारों की हालत कितनी दयनीय हो रही है कि वे बहाने बाजी पर उतर आए हैं. हो सकता है ये बहाने न हों, तो भी क्या मजबूरी का दूसरा नाम पत्रकारिता बना देना जरूरी है? ज्यादातर लोग किसी कंपनी में सैलरी नहीं मिलने को नई नौकरी की जरूरत बताते हैं. वे एक दो नहीं बल्कि छह छह महीने से सैलरी आने या नई नौकरी मिलने का इंतजार कर रहे हैं. मुझ नहीं पता उन्हें क्या करना चाहिए, लेकिन ये जरूर है कि वे जो कर रहे हैं सिर्फ वही रास्ता शेष रह गया हो ऐसा भी नहीं है. कई पत्रकार तो कुंठाग्रस्त होकर दूसरों पर कीचड़ उछालने के अलावा और कोई काम ही नहीं कर रहे हैं. वे नकारात्मकता को बढ़ाने का काम कर रहे हैं. मैं खुद गाहे बगाहे इसका शिकार होता रहता हूं. फिर बहुत सारे ऐसे ही कुंठित लोग मिलकर परनिंदा, परचर्चा में जीवन का आनंद लेने लगते हैं. कुछ देर के लिए तो ये उनकी तकलीफों को भुला देगा लेकिन असली दर्द अंदर पनपता रहेगा. अपनी संभावनाओँ को विकसित करते रहना और अन्य विधाओं का ज्ञान होना बहुत जरूरी है. मैंने अपने करियर के दौरान कई ऐसे मित्रों को भी देखा है जिन्होंने मीडिया छोड़ने के बाद अन्य कई कार्य क्षेत्रों में ज्यादा बेहतर काम किया और वे अपेक्षाकृत सुखद और वैभवपूर्ण जीवन जी रहे हैं. नौकरी मिलना, आगे बढ़ना, पदोन्नति आदि आपके काम का हिस्सा हैं. इनके बिना आपका जीवन नष्ट हो जाएगा या आप कुछ नहीं कर पाएंगे कि धारणा आपके लिए घातक सिद्ध हो सकती है. ये मेरे निजी अनुभव है और जीवन का अनुसंधान सतत जारी है. ऐसा नहीं कहा जा सकता कि मैं किसी विषय पर कोई विशेषज्ञ टिप्पणी कर सकता हूं. मैंने अपने मन की बात स्वतंत्रता से लिखी है और स्वतंत्रता से साझा कर रहा हूं. इसे बहस का विषय न बनाएं. कुछ अच्छा लगे तो स्वीकार करें नहीं तो ध्यान नहीं देने की स्वतंत्रता तो पाठक को है ही.

लेखक- डा. प्रवीण तिवारी, लाइव इंडिया मैगजीन एवं प्रजातंत्र लाइव समाचार पत्र के प्रधान संपादक हैं.

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0 Comments

  1. shrikant

    January 18, 2015 at 7:12 am

    आपने अच्छा लिखा है लेकिन कुछ तथ्य अभी छूट गए हैं। पहला आपने कहा कि पत्रकार को अब जरूरत है कि वो दूसरी जगह भी तलाश जारी रखें पत्रकारिता एकमात्र जीविका का साधन नहीं। मैं खुद कई बार ऐसे रास्ते अपनाने की कोशिश कर चुका हूं। लेकिन जब एक एयरलाईन से कुछ लोग निकालें जाते हैं तो मीडिया हल्ला मचाने लगता है।लेकिन आग जब अपने घर पर लगी है तो हम शांत क्यों हैं मेरा पहला सवाल। दूसरा कि क्यों नहीं एम्स की तर्ज पर पत्रकारिता का पूरे भारत में केवल एक या दो यूनिवर्सिटी में कोर्स करवाया जाता और कुछ सिटें ही इनके लिए निश्चिंत की जाती। क्यों आज मीडिया की हर गली कौनों में दुकानें खुलने लगी है जो एक मोटी फीस लेकर (300,000 ऱुपये) लेकर उनका भविष्य खराब कर रही है। उसमें आपसब अनुभवी लोग भी जिम्मेदार हैं जो इन दुकानों के विरूद्ध एक भी खबर नहीं दिखाते। जब एक बच्चा तीन से पांच लाख खराब कर देता है 4 से 5 साल खराब करता है तो क्या फिर उसका पत्रकारिता छोड़ना आसान होगा? अब तो कई चैनल भी कोर्स के बाद सौ प्रतिशत जॉब का दावा करते हैं जबकि एकसाल की जॉब देकर फिर उन्हें सड़क पर ला देते हैं फिर दुसरे बैच की जिंदगी खराब करते है इस तरह अपनी दुकान जमाते हैं। आप उनका विरोध क्यों नहीं करते आप तो पत्रकार हैं। हर असत्य और अनैतिक कार्य का विरोध आपकी जिम्मेदारी है। जब एक मीडिया संस्थान कोई दूसरा व्यापार करता है तो वहां वो अपने कर्मचारियों का वेतन अच्छा और समय पर देता है लेकिन चैनल अच्छा चलते हुए भी वो मीडियाकर्मियों को वेतन क्यों नहीं दे पाता। क्यों एक टीम जाकर दूसरी टीम को निकलवाती है और कहती है हम सस्ते मजदूल लाकर देेंगे। क्या आपने कभी इसके विरूद्ध आंदोलन की कोशिश की हैै?

  2. shrikant

    January 18, 2015 at 7:15 am

    shrikant 2015-01-18 12:42
    आपने अच्छा लिखा है लेकिन कुछ तथ्य अभी छूट गए हैं। पहला आपने कहा कि पत्रकार को अब जरूरत है कि वो दूसरी जगह भी तलाश जारी रखें पत्रकारिता एकमात्र जीविका का साधन नहीं। मैं खुद कई बार ऐसे रास्ते अपनाने की कोशिश कर चुका हूं। लेकिन जब एक एयरलाईन से कुछ लोग निकालें जाते हैं तो मीडिया हल्ला मचाने लगता है।लेकिन आग जब अपने घर पर लगी है तो हम शांत क्यों हैं मेरा पहला सवाल। दूसरा कि क्यों नहीं एम्स की तर्ज पर पत्रकारिता का पूरे भारत में केवल एक या दो यूनिवर्सिटी में कोर्स करवाया जाता और कुछ सिटें ही इनके लिए निश्चिंत की जाती। क्यों आज मीडिया की हर गली कौनों में दुकानें खुलने लगी है जो एक मोटी फीस लेकर (300,000 ऱुपये) लेकर उनका भविष्य खराब कर रही है। उसमें आपसब अनुभवी लोग भी जिम्मेदार हैं जो इन दुकानों के विरूद्ध एक भी खबर नहीं दिखाते। जब एक बच्चा तीन से पांच लाख खराब कर देता है 4 से 5 साल खराब करता है तो क्या फिर उसका पत्रकारिता छोड़ना आसान होगा? अब तो कई चैनल भी कोर्स के बाद सौ प्रतिशत जॉब का दावा करते हैं जबकि एकसाल की जॉब देकर फिर उन्हें सड़क पर ला देते हैं फिर दूसरे बैच की जिंदगी खराब करते है इस तरह अपनी दुकान जमाते हैं। आप उनका विरोध क्यों नहीं करते आप तो पत्रकार हैं। हर असत्य और अनैतिक कार्य का विरोध आपकी जिम्मेदारी है। जब एक मीडिया संस्थान कोई दूसरा व्यापार करता है तो वहां वो अपने कर्मचारियों का वेतन अच्छा और समय पर देता है लेकिन चैनल अच्छा चलते हुए भी वो मीडियाकर्मियों को वेतन क्यों नहीं दे पाता। क्यों एक टीम जाकर दूसरी टीम को निकलवाती है और कहती है हम सस्ते मजदूर लाकर देेंगे। क्या आपने कभी इसके विरूद्ध आंदोलन की कोशिश की हैै?

  3. Kant sharan

    March 7, 2015 at 3:55 pm

    media field ki sachhai yahi hai ki is field me aane ka salah kisi ko mat do..yaha log naganay me chamkate hai baki muflisi or ghutan me jite hai..

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