अनिल यादव-
मैने अरूण सिंह को साफ और ऊंचा इसलिए बोलने को कहा था क्योंकि मुझे लगा कि वह नोटबंदी पर मेरे एक लेख “सोनम गुप्ता बेवफा नहीं है” के बारे में कुछ कहना चाह रहे हैं. मैने तद्भव के संपादक, अखिलेश जी के बारे में फेसबुक पर जो पोस्ट लगाई थी, उस पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने लिखा था- ‘बढ़िया अनिल भाई, सोनम गुप्ता टाइप में कतरन लगा ही दिए’.
मुझे लगा हो सकता है, वह इसी नाम की किताब के बारे में कुछ कहना चाह रहे होंगे जिसे कथेतर वर्ग में 2018 का अमर उजाला शब्द सम्मान मिला था. यह पिछले बीस साल में मेरे लिखे स्तंभों और टिप्पणियों का संग्रह है.
अपनी वाल पर तीन दिन बाद उन्होंने मुझे संबोधित करके साफ और ऊंचा बोला. तब पता चला कि न उन्होंने लेख पढ़ा है न किताब से कोई लेनादेना है. वे खुद किसी पत्रिका के संपादक हैं इस नाते मुझे जी भर के कोसना चाहते थे जो उन्होंने कर डाला है.
सिर्फ एक पत्रिका या अखबार का रजिस्ट्रेशन करा लेने और अपना नाम छाप देने से कोई संपादक नहीं हो जाता (ऐसे हजारों संपादक सरकारों के सूचना विभागों में क्लर्कों के आगे, सेठों की गद्दियों पर, कचहरियों में विज्ञापनों के लिए घात लगाए बैठे मिलते हैं. वे अक्सर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इस्तेमाल जीवनयापन के लिए करते हैं. उन्हें हद से हद छोटे व्यवसायी या सफल-विफल इन्टरप्रेन्योर कहा जा सकता है. ऐसा करके वे कोई अपराध नहीं करते. इनमें से कुछ ने अच्छा काम भी किया है)
बुरा काम करने वाले सुधीर चौधरी जैसे लोग हैं जो संपादक की हैसियत से ही उद्योगपति जिंदल को धमकाने के बाद तिहाड़ जेल पहुंच जाते हैं या नहीं भी जाते हैं.
पत्रकारिता हो या साहित्य, संपादक की प्रतिष्ठा पाने के लिए पढ़ने-लिखने-विचार-विमर्श का सुदीर्घ अनुभव, सौंदर्यबोध और विद्यानुराग जरूरी है जो तद्भव के संपादक, अखिलेश में भरपूर है. सिर्फ नाम के आगे संपादक लगा लेने के कारण आपको अखिलेश की ओट में छिपकर मुझे कोसने की वैधता नहीं मिल जाती.
बंधु, अगर इसे ही साफ और ऊंचा बोलना कहते हैं तो ‘लबरापन’ किसे कहेंगे. सोशल मीडिया पर हैजे की तरह फैली इस प्रवृत्ति में होता यह है कि बात आम पर शुरू होती है लेकिन इमली से होते हुए लेत्तेरे के-देत्तेरे के भवसागर में चली जाती है. असली मुद्दा वहीं का वहीं रह जाता है.
तद्भव के संपादक, अखिलेश से मेरी मुख्य शिकायत यह है कि मेरी रचना के बारे में उनका रवैया अलोकतांत्रिक था. पांच महीने के काल में उन्हें रचना के छापने या खारिज करने के निर्णय के बारे में मुझे बता देना चाहिए था.
यह एक नई चीज है जो पत्रिका का राजस्व अप्रत्याशित रूप से बढ़ने, चंद चापलूसों और लेखकीय पहचान खरीदने वालों का छोटा सा दायरा बनने के बाद यह प्रवृत्ति उनमें दिखने लगी है. साहित्यिक बिरादरी में यह कोई छिपी बात भी नहीं है. वे अपनी पुरानी साख के नुकसान को पहचान कर खुद को दुरुस्त कर लेंगे तो मुझे बहुत खुशी होगी.
पहले लेखकों और संपादकों के बीच जो पत्रव्यवहार (जिनमें से अधिकांश प्रकाशित है) हुआ करता था उसमें रचना का मर्म, कमियों और खूबियों, रचना के मूल्यांकन के तरीकों और नए विचारों की ही तो बातें हुआ करती थीं. इसी से हिंदी का लोकतंत्र (जैसा भी हो) निर्मित हुआ है.
मैने ऐसा ही एक पत्रव्यवहार सार्वजनिक किया ताकि नए लेखक और संपादक उस लोकतांत्रिक परंपरा को भूल न जाएं. कुछ भी न सहन करने लगें. इसके उलट जो भी अलोकतांत्रिक, असुविधाजनक और रचना विरोधी है उस पर खुलकर बात करें. तभी हमारी उर्जा कुंठित होने के बजाय नया आकाश पा सकेगी.
अरुण सिंह की मूल पोस्ट ये है-
https://www.bhadas4media.com/tadbhav-akhilesh-anil-yadav-controversy-arun-article/