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दिल्ली

भाजपा की खूबी को अरविंद केजरीवाल ने अपनी चतुराई से खामी में बदल डाला!

पी. के. खुराना

एग्ज़िट पोल पहले ही कह रहे थे कि दिल्ली में मोदी-शाह की तिकड़म नहीं चलेगी लेकिन शायद यह अंदाज़ा किसी को भी नहीं था कि आम आदमी पार्टी फिर से तीन-चौथाई बहुमत ले जाएगी और भाजपा की हार इतनी बुरी होगी। सत्तर में से 62 सीटें जीत कर अरविंद केजरीवाल ने लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने का रिकार्ड बनाकर दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के रिकार्ड की बराबरी की है।

भारतवर्ष में राष्ट्रपति प्रणाली के पैरोकारों में से एक, “दिव्य हिमाचल” के चेयरमैन तथा “ह्वाई इंडिया नीड‍्स दि प्रेजिडेंशियल सिस्टम” के सुप्रसिद्ध लेखक भानु धमीजा तो हमेशा से ही कहते आ रहे हैं कि राज्यों में वही पार्टी जीतेगी जो स्थानीय मुद्दों पर ध्यान देगी। भाजपा जहां राम मंदिर, पाकिस्तान, हिंदू-मुस्लिम के राम अलापती रही वहीं आम आदमी पार्टी ने मोहल्ला क्लीनिक, स्कूल और शिक्षा तथा बिजली-पानी-सड़क आदि की बात की। कांग्रेस न तो चुनाव के लिए तैयार थी और न ही कांग्रेस हाईकमान में दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए कोई जोश था। एक ओर जहां कांग्रेस को अपनी चुप्पी का खामियाज़ा भुगतना पड़ा कि उसके 67 उम्मीदवारों की ज़मानतें तक ज़ब्त हो गईं, वहीं भाजपा ने अत्यधिक शोर मचाने, और वह भी अप्रासंगिक, का खामियाज़ा भुगता।

दरअसल, मोदी और शाह चूंकि अपने उस फार्मूले पर खुद ही फिदा थे कि राष्ट्रवाद, पाकिस्तान, हिंदू-मुस्लिम और राम मंदिर से जनता को भरमाया जा सकता है और मंत्रियों व कार्यकर्ताओं की फौज से जनमत बदला जा सकता है। दरअसल, भाजपा की ओर से उनके संदेश का “वन-वे ट्रैफिक” जैसा था क्योंकि यह मतदाताओं का मत जानने की प्रक्रिया के बजाए उन पर अपना “नैरेटिव” थोपने की कोशिश थी, जो असफल हो गई। यह उनकी भारी भूल थी कि उन्होंने कार्यकर्ताओं को मतदाताओं की राय जानने के बजाए पार्टी का संदेश देने का निर्देश दिया।

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भाजपा आत्मविश्वास की अधिकता में राज्य पर राज्य खोती चल रही है। मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, पंजाब और महाराष्ट्र के बाद अब दिल्ली में फिर से भाजपा को धूल चाटनी पड़ी है। यह सच है कि मोदी आज भी सर्वाधिक लोकप्रिय नेता हैं, यह भी सही है कि उनकी वाक‍्-पटुता का कोई सानी नहीं है, सही है कि उनके पास साधनों की बहुतायत है, लेकिन भाजपा की इसी खूबी को अरविंद केजरीवाल ने अपनी चतुराई से खामी में बदल डाला। केजरीवाल ने बार-बार दोहराया, भाजपा के पास साधन हैं, धन है, मंत्रियों और कार्यकर्ताओं की फौज है जबकि वे अकेले हैं। यह एक शक्तिशाली सम्राट और एक अकेले वीर योद्धा के मुकाबले जैसी लड़ाई बन गई और जनता की सहानुभूति केजरीवाल के साथ हो गई।

अरविंद केजरीवाल की इस ऐतिहासिक विजय के कई कारण हैं लेकिन 2015 के मुकाबले 5 सीटें कम जीतने के बावजूद उनकी यह विजय पिछली विजय से भी बड़ी है। पिछली बार मोदी के दस-लखे सूट और किरण बेदी के अहंकारी व्यवहार की वजह से भाजपा हारी थी तो इस बार अति आत्मविश्वास, अहंकार और जनता की भावनाओं और स्थानीय समस्याओं की अनदेखी ने भाजपा को हार की कड़वी घुट्टी दी है। आम आदमी पार्टी ने जहां दिल्ली में भाजपा की तमाम गलतियों के बावजूद नगर निगम चुनावों में हार का मुंह देखा था और लोकसभा चुनावों में तीसरे स्थान पर खिसक गई थी, वहीं कुछ ही महीनों में उसने जनता का विश्वास फिर से जीत कर जीत का परचम फहराया है तो इसके कई कारण हैं।

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स्थानीय मुद्दों की उपेक्षा, अपनी ही बात कहने की उत्कंठा, विपक्षियों और स्वयं से असहमत हर व्यक्ति को देशद्रोही कहना, आदि भाजपा को भारी पड़ा। यह कहना गलत होगा कि अरविंद केजरीवाल ने गलतियां नहीं कीं, लेकिन इस बार उन्होंने उन कमियों को लेकर खुद पर काम किया, स्थानीय मुद्दों की बात की, हर चुनाव क्षेत्र में घूमे, हिंदू-मुस्लिम विवाद, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय और शाहीन बाग विवाद से दूर रहे, हिंदुत्व की बात किये बिना, एक टीवी चैनल पर हनुमान चालीसा पढ़कर वस्तुत: खुद को हिंदू साबित करने की कोशिश की। मोदी की आलोचना करना बंद करके उन्होंने मोदी को कमजोर कर दिया।

अरविंद केजरीवाल ने 2018 से ही जनसंपर्क का कार्य शुरू कर दिया था, यही कारण था कि आम आदमी पार्टी सचमुच आम आदमी के साथ जुड़ सकी। भाजपा को उम्मीद थी कि जेएनयू और शाहीन बाग के विरोध के कारण उसे हिंदू वोट एकमुश्त पड़ेंगे, लेकिन बहुत से भाजपा समर्थकों ने भी आम आदमी पार्टी को वोट दिया है। अब विद्वजनों में नई बहस चल रही है कि क्या दिल्ली विधानसभा चुनावों में कोई ध्रुवीकरण हुआ ? अलग-अलग विद्वानों ने इस पर भिन्न-भिन्न मत दिये हैं। कोई कहता है कि भाजपा ने हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण की कोशिश की लेकिन वह असफल रही। कोई कहता है कि शाहीन बाग विरोध चला ही इसलिए क्योंकि भाजपा इसके माध्यम से हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण चाहती थी।

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कोई कहता है कि भाजपा के अत्यधिक आक्रामक प्रचार के कारण मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण हुआ। ध्रुवीकरण को लेकर भाजपा समर्थक हिंदुओं पर आरोप लगा रहे हैं कि वे मुफ्त बिजली-पानी के लालच में “बिक” गये। ध्रुवीकरण हुआ या नहीं हुआ, हुआ तो कहां हुआ, इस सवाल का जवाब लेने से पहले यह समझना आवश्यक है कि भाजपा और उसके समर्थक इस हद तक गये कि उन्होंने खुद से असहमत हर व्यक्ति को देशद्रोही कहने का रिवाज़ पाल लिया है। भाजपा के शब्दकोष में अब असहमति के लिए कोई जगह नहीं है। जो सहमत है वह राष्ट्रवादी है, देशभक्त है और जो असहमत है वह देशद्रोही है, पाकिस्तान समर्थक है। मैं समझता हूं कि दिल्ली में भाजपा की हार के चार मुख्य कारण हैं। पहला, अपनी हर गलती पर पर्दा डालने के लिए झूठ पर झूठ बोलना, आंकड़ों में हेराफेरी करना। दूसरा, हर संवैधानिक संस्था को सिस्टेमैटिक ढंग से कमज़ोर करते चलना। तीसरा, खुद से असहमत हर व्यक्ति को देशद्रोही बताना। चौथा, स्थानीय मुद्दों को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ करना।

भाजपा की हार का चौथा कारण फिर उस सवाल का जवाब है कि यदि देश में राष्ट्रपति प्रणाली लागू होती तो कोई भी दल स्थानीय मुद्दों की अवहेलना कर ही न पाता। हमारे देश में लागू संसदीय प्रणाली की यही खामी है कि इसमें संवैधानिक संस्थाओं को कमज़ोर कर पाना संभव है और राजनीतिक दल अपने अहंकार में स्थानीय मुद्दों की अनदेखी करके भी विजय पा सकते हैं जैसा कि उत्तर प्रदेश में हुआ। यह कहना अतिशयोक्ति होगी कि राष्ट्रपति प्रणाली में कोई खामी नहीं है, लेकिन यह तो कई तरीकों से सिद्ध हो चुका है कि भारतवर्ष में लागू संसदीय प्रणाली ने हमारे संविधान की हत्या कर दी है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत के बाद शायद इस पर फिर चर्चा हो कि स्थानीय मुद्दों की अनदेखी रोकने के लिए राष्ट्रपति प्रणाली को आजमाया जाना चाहिए। यदि ऐसा हो सका तो मैं कहूंगा कि आप आई, बहार आई।

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लेखक पीके खुराना वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और राजनीतिक रणनीतिकार हैं.

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