असगर वजाहत : ‘हंस’ पत्रिका द्वारा आयोजित ‘राजनीति की सांस्कृतिक चेतना’ विषय पर गत दिनो आयोजित गोष्ठी में बोलते हुए हिन्दी के वरिष्ठ कवि और कला समीक्षक अशोक वाजपेयी ने कहा कि हमारे देश या कम से कम उत्तर भारत में भाषाएँ, साहित्य, ललित कलाएं, संगीत आदि सांस्कृतिक रूपों की स्थिति बहुत चिंताजनक है. इसके बिलकुल विपरीत भाजापा और आर.एस.एस के नेता तरुण विजय ने कहा की भारतीय संस्कृतिक आगे बढ़ रही है. उन्होंने मानसरोवर यात्रा और अक्षरधाम मंदिर का हवाला देते हुए कहा कि भरतीय संस्कृतिक का विकास हो रहा है.
यह स्पष्ट है की दोनों सज्जनों की संस्कृति संबंधी परिभाषाएं अलग –अलग हैं. क्या यह प्रश्न पूछा जा सकता इनमें से कौन सही है और कौन ग़लत है? लेकिन क्या लोकतंत्र में सही ग़लत का निर्णय बहुमत ही करता है? यदि ऐसा है तो क्या तरुण विजय ने भारतीय संस्कृतिक की जो परिभाषा दी है वह सही है?
पंडित आनंद नारायण ‘मुल्ला’ का शेर है – इस अवामी दौर में ‘मुल्ला’ वही दाना ( बुद्धिमान) है आज, जिसके हक़ (पक्ष) में कुछ सिवा(अधिक) अंधों की रायें हो गयीं
मेरे ख्याल से इसका ये अर्थ नहीं है कि लोकतंत्र के स्थान पर तानाशाही अच्छी होती है, बल्कि यह है कि अपनी ‘परिभाषा’ को जनता तक ले जाना बहुत ही ज़रूरी है. तरुण विजय अपनी ‘परिभाषा’ को जनता तक ले गए, उस पर जनता की ‘मोहर’ लगवा ली और अशोक वाजपेयी और उनके जैसे लोग, नहीं ले जा पाए.
प्रसिद्ध लेखक असगर वजाहत के एफबी वाल से