Tabish Siddiqui : पहले हमारे यहाँ ब्लैक एंड वाइट टीवी होता था “बेलटेक” कंपनी का जिसमे लकड़ी का शटर लगा होता था जिसे टीवी देखने के बाद बंद कर दिया जाता था.. चार फ़ीट के लकड़ी के बक्से में होता था वो छोटा टीवी.. शटर बंद करने के बाद उसके ऊपर से एक पर्दा और डाला जाता था क्रोशिया से बुना हुवा.. लोगों के यहाँ फ्रिज टीवी और हर उस क़ीमती चीज़ पर पर्दा डाल के रखा जाता था जो उन्हें लगता था कि धूल और गर्मी से खराब हो जाएगा.. बाद में जब बिना शटर के टीवी आया तो वो मुझे बहुत अजीब सा नंगा नंगा दिखता था.. क्यूंकि मुझे उसी शटर में बंद टीवी की आदात थी.. फ्रीज़ से कपड़ा हट जाता तो वो भी नंगा दिखने लगता था…
खाड़ी देशों की मजबूरी थी अपनी सुंदर औरतों को ढांकना.. क्यूंकि अगर ढंकते न तो जानलेवा धूप और गर्मी से उनकी त्वचा झुलस जाती.. औरतें भी अपनी सुंदरता को बचाने के लिए अपनी त्वचा और पूरे बदन को लपेट कर ही बाहर निकलती थीं.. बहार लपेटकर निकलने का मतलब ही होता है कि आप धूप और धूल से बचाव कर रहे हो अपने आपका.. समय के साथ साथ उनके मर्दों की आदत पड़ गयी ढकी हुई स्त्रियों को देखना और अगर कोई उन्हें गलती से बिना ढकी स्त्री दिखा जाती तो वो कामोत्तेजक हो जाते थे.. सभी नहीं.. मगर ज़्यादातर…
ये ढंकना उनकी संस्कृति बन गयी धीरे धीरे और औरतें भी एक कवच के बिना खुद को नंगा महसूस करने लगीं.. इसी तरह का ओढ़ना मिस्र से लेकर सीरिया तक भी चलन में था.. मगर जब समय बदला और घर और सार्वजनिक स्थान वातानुकूलित होने लगे तो अपने आपको इतना ढंकना समझदार लोगों को बेवकूफ़ी लगने लगा.. मिस्र से लेकर अन्य खाड़ी के देशों में औरतों ने इस ढंकने का विद्रोह करना शुरू किया.. और मर्दों को समझाना शुरू किया कि जिस “तम्बू” को आप लोगों ने संस्कृति समझना शुरू कर दिया था वो दरअसल एक बचाव था हमारी त्वचा और सेहत का.. मगर अब हम विकसित हैं.. हमारे पास पुलिस है, सेना है, क़ानून है हमारी हिफाज़त के लिए.. त्वचा के लिए “सन स्क्रीन लोशन”… जिस बुर्के को आप लोगों ने हमारी हिफाज़त समझ के रखा था अब उसकी कोई ज़रूरत नहीं है.. ये सातवी शताब्दी नहीं ये इक्कीसवीं शताब्दी है…
मिस्री लेखक लायला अहमद और उन जैसी अन्य ने पूरा अभियान चलाया अपने मर्दों को समझाने के लिए कि जिस “तम्बू” को तुम इस्लाम समझ कर हम औरतों पर लपेटते हो वो दरअसल वहां की संस्कृति है.. क्यूंकि अरब के उस दौर में ग़ुलाम भी होते थे, गुलामों की मंडियां लगती थी, गुलाम औरतें अपने स्तन खोलकर चलती थीं घरों में अपने मालिक और उनके मिलने जुलने वालों के सामने.. कुरआन इसीलिए “हिजाब” वाली आयत में “स्तन” ढंकने को बोल रहा है.. लायला अहमद और उन जैसी अन्य क्रांतिकारी स्त्रियों की बात धीरे धीरे वहां के मर्द समझने लगे और बहुत हद तक औरतों को आज़ादी मिलनी शुरू हुई…
जिनके यहाँ दुपट्टा ओढ़ा जाता है उन्हें टी शर्ट पहने हुवे औरत “अजीब” और भौंडी दिखती है.. जिनके यहाँ घूंघट का रिवाज है उन्हें बिना घूंघट की औरतें बेशर्म दिखती हैं.. अरबों और उन जैसे अन्य को जो औरत “लबादा” न ओढ़े नंगी दिखती है.. मगर भारत के लोगों की क्या मजबूरी है? उनकी संस्कृति अपना लो और मर्द भी चोगा पहनना शुरू कर दें तो कुछ दिन बाद बिना चोगे के नंगा और भौंडा महसूस करने लगेंगे.. जो लोग कुछ दिन दाढ़ी रख के कटवा देते हैं वो भी शरमाते हुवे घुमते हैं क्यूंकि दूसरों को “अजीब” लगता है उनका लुक…
अब LED का ज़माना है.. वातानिकूलित और ऐसे घर होते हैं हमारे जहाँ धूल और धुप का इतना असर नहीं होता है और अब LED और वातुनुकूलित घरों में ढँक के रखने की कोई ज़रूरत नहीं है.. क़ानून भी अब मज़बूत है जहाँ आपको ये भी सोचने की ज़रूरत नहीं है कि किसी गलत निगाह वाले “चोर” ने हमारा टीवी देख लिया तो उठा ले जाएगा.. पहले लोग कंप्यूटर रूम में भी जूता चप्पल उतार के जाते थे ताकि खराब न हो जाए.. क्या वहां जूता चप्पल उतार के जाना धर्म का हिस्सा था? संस्कृति और धर्म में अंतर करना समझिये.. समझदार बनिए…
फेसबुक के चर्चित लेखक ताबिश सिद्दीकी के वॉल से.
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बुद्ध के ऊपर जान का ख़तरा नहीं था जबकि मुहम्मद को अपनी जान बचाने के लिए जूझते रहना पड़ा
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AbhiKumar1
September 1, 2016 at 5:50 am
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