..पत्रकार कर रहे दो जून की रोटी का संघर्ष… लेकिन उनका दर्द किसी को नहीं दिख रहा… अगर न्यूज चैनलों के नाम ‘आया राम‘ और ‘गया राम‘ हो जाये और इनकी टैग लाइन भ्रष्टाचार, अनियमितता, ‘ब्लैक मेलिंग के बादशाह‘ या फिर ‘लूटने के लिए ही बैठे हैं’…. हो जाये तो आश्चर्य मत कीजियेगा… क्योंकि न्यूज़ चैनल इस रूप में सामने आने भी लगे हैं.. वो भी बिल्कुल कम कपड़ों के साथ, जिसमें उसका काला तन साफ नजर आ रहा है… कोई चैनल बीजेपी समर्थित तो कोई कांग्रेस, तो कोई बाबाओं की चरणों की धूल खाकर जिंदा है। सभी चैनल लगभग अपने उद्योगपति आकावों की जी हुजरी में लगे हैं।
आका का जैसा हुकम होता है वैसा ही चैनल पर चलने लगता है ओर रही सही कसर डीपीआर पूरी कर देता है। सरकार के खिलाफ ये नहीं चलेगा, मंत्री के खिलाफ ये लगाना है कि नहीं, पैनल में किससे क्या पूछना है? किस मंत्री या विधायक की तारीफ करनी है? ये पीछे बैठे पैसों के दलाल तय कर लेते हैं और इनपुट पर संदेश आते ही खबर की हत्या हो जाती है। ऐसे में जो दिख रहा है या दिखाया जा रहा है वो सच है, ये मान लेना बेवकूफी हो सकती है।
अब गुरमीत राम रहीम का ही केस ले लीजिये। 2002 से एक दर्द की कहानी बयां करता एक पत्र आई-गई सरकार और मीडिया संस्थाओं के बाजार में घूमता रहा। इस पर मीडिया जमकर खेल सकता था लेकिन बाबा की गुफा से आ रहे पैसों ने इनकी आंखों पर पट्टी बांध दी ओर सभी मीडिया संस्थान मनमोहन सिंह की ही तरह मौन हो गए। सजा का ऐलान हुआ और बाबा को नपता देख मीडिया ने तुरंत पाला चेंज कर बीजेपी ओर कांग्रेस के नेताओं के साथ-साथ बाबा के कई सारे वीडियो और फोटो चलाने के साथ ही बाबा के डेरे में हथियारों के प्रशिक्षण के साथ कई ऐसी चीजों को दिखाने लगे मानो मीडिया चैनलों ने सच्चे मन से बाबा के खिलाफ सब कुछ दिखाया था जिसके चलते उसे जेल हो गई… लेकिन इन बुड़बकों को कौन समझाये कि साहब, आप लोगों ने तो बाबा की फिल्म आने पर सुबह से शाम तक फिल्म और बाबा के इंटरव्यू एक्सलूसिव तारीफ के साथ ऐसे दिखाया कि शहद भी क्या मीठा होता होगा! पैसा बरसता गया, बाबा का प्रमोशन होता गया…
ना जाने ऐसे कितने बाबा और उद्योगपति हैं जिसके किस्से कहानी मीडिया ऐसे ही आए दिन सुनाता आ रहा है… कब वो अपना पाला बदल ले, कहते नहीं बनता। ऐसे में एक कहावत याद आती है कि पुलिस वाले किसी के नहीं होते… ना इनकी दोस्ती अच्छी ना दुश्मनी… बस ये कहावत आज के मीडिया पर भी फिट बैठती है। आप रूपए बरसाते जाओ और तमाशा देखते रहो। खैर, बाबा कई आये कई गए और चैनल भी कई आएंगे और जाएंगे, लेकिन इन सब के बीच दो जून की रोटी के लिए संघर्ष करते कई पत्रकार दम तोड़ रहे हैं। समय पर सैलरी नहीं। काम के अनुसार नहीं। गधा हम्माली अलग। न ही समय पर छोड़ने की बात। और, हैरानी जब होती है जब जाने-माने पत्रकार चाहे वो नेशनल के हों या प्रदेश के, जिन्होंने अपना जीवन पत्रकारिता में खपा दिया और अब जब वो दर दर की ठोकर खाते दिखते हैं तो पत्रकारिता से विश्वास उठ जाता है।
अब पत्रकार सिर्फ एक चैनल से दूसरे में, दूसरे से तीसरे और तीसरे से दसवें चैनल में जा जा कर केवल नौकरी बचाने में लगा दिखता है। कई तो नाम बना रहे, इसलिए फ्री में भी ड्यूटी बजा रहे हैं। दलाली में भी लगे कई पत्रकार तो ऐसे हैं जो घर बैठे-बैठे रूपए कमा रहे हैं और वहीं दूसरी और आफिस में दिनभर सिर फोड़ने वाले अगले माह की सैलरी के लिए राह देखता नजर आता है। ऐसे में आने वाले नए दौर की पत्रकारिता में किस तरफ और किसकी ओर देखा जाए, ये समझ से परे है। ना जाने इंतजार किसका है और किसका रहेगा… लेकिन इंतजार ये जारी रहेगा कि काश पत्रकारिता में उजाला आ जाए…
हेमंत मालवीय
hemant malviya
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rohit chedwal
August 29, 2017 at 10:07 am
ek no. sir.. apke sath beth kar kaam karna saubhagya hai hamara.
नीरज
August 28, 2017 at 1:23 pm
yahi aajkal ka satya ha