Sanjay Kumar Singh-
दलित का खाना, पीना, पाना और पाबंदी
बच्चा लाल उन्मेष की यह कविता इंस्टाग्राम पर आई और आधे घंटे में हटा ली गई। Priya Darshan ने उस कविता पर टिप्पणी लिखते हुए पूरी कविता ही बारी बारी से उद्धृत कर दी है। पढ़िए, एक दमदार कविता और उस पर उम्दा टिप्पणी, एक साथ।
कौन जात हो भाई?
“दलित हैं साब!”
नहीं मतलब किसमें आते हो?
आपकी गाली में आते हैं
गन्दी नाली में आते हैं
और अलग की हुई थाली में आते हैं साब!
मुझे लगा हिन्दू में आते हो!
आता हूँ न साब! पर आपके चुनाव में।
जब कोई जान जाता है कि वह हमारी गाली, नाली और अलग की हुई थाली में आता है और इसे बड़ी सहजता से कह देता है तो क्या होता है? हमारे भीतर हमारी सोई हुई शर्म कुछ देर के लिए जाग जाती है। अपने-आप से आंख मिलाते हुए कुछ देर के लिए असुविधा होती है। एक दलित पीड़ा जैसे सवर्ण अहंकार या विनम्रता दोनों से अपना हिसाब मांगने लगती है, दोनों को कठघरे में खड़ा कर डालती है। लेकिन जिन पंक्तियों से यह टिप्पणी शुरू हुई है, उनका इस चुनावी दौर में एक राजनीतिक आशय भी निकल आता है- कि हिंदू हितों की बात करने वाले लोग दलितों को तभी हिंदू मानते हैं जब चुनाव आते हैं।
यहीं से यह सच ख़तरनाक हो उठता है। इस पर कुछ लोगों को पाबंदी ज़रूरी लगती है। इस कविता को रोकने का काम शुरू हो जाता है। दरअसल इस कविता का उल्लेख करने की ज़रूरत इसलिए है कि इसे इंस्टाग्राम पेज पर डाला गया था और फिर आधे घंटे के भीतर इसे हटा लिया गया। किसी ने इसकी शिकायत कर डाली। यह जानकारी देते हुए हमारे प्रबुद्ध मित्र महेश मिश्र ने यह पूरी कविता भेजी।
ये पंक्तियां एक नामालूम से युवा दलित कवि बच्चा लाल ‘उन्मेष’ की हैं। पूरी कविता का नाम है ‘छिछले प्रश्न गहरे उत्तर’। बच्चा लाल ‘उन्मेष’ इतने नामालूम हैं कि पहले यह जानने की ज़रूरत महसूस हुई कि यह कवि है कौन। इसके लिए मैंने बाक़ायदा अनिता भारती और रजनी अनुरागी जैसी सुख्यात लेखिकाओं से संपर्क किया।
कविता निस्संदेह हमें छीलती है। समाज में जिस अमानवाीय अन्याय का हम सदियों से पोषण कर रहे हैं, उसे यह कविता बिल्कुल सामने ला देती है। कविता की अगली पंक्तियां हैं-
क्या खाते हो भाई?
“जो एक दलित खाता है साब!”
नहीं मतलब क्या-क्या खाते हो?
आपसे मार खाता हूँ
कर्ज़ का भार खाता हूँ
और तंगी में नून तो कभी अचार खाता हूँ साब!
नहीं मुझे लगा कि मुर्गा खाते हो!
खाता हूँ न साब! पर आपके चुनाव में।
यह सिर्फ शब्दों का खेल नहीं है। कविता शब्दों का खेल होती भी नहीं। इसमें सदियों की हूक है, उपेक्षा का अनुभव है, शोषण की स्मृति है और कमाल यह है कि यह सब कुछ इस तरह कहा गया है जैसे कवि इस पूरी पीड़ा से निकल कर एक आईना खोज लाया है जिसमें हमारी सभ्यता का बेडौल-विरूप चेहरा दिखाई पड़ रहा है। यह वर्चस्ववाद के ख़िलाफ़ एक कार्रवाई है और इस लिहाज से जुर्म है। इसे निषिद्ध किया जाना है। यह लोकतंत्र के उस चुनावी खेल पर भी चोट करती है जिसमें दमन के सामाजिक यथार्थ पर प्रलोभन का राजनीतिक लेप चढ़ाया जाता है। कविता आगे कहती है-
क्या पीते हो भाई?
“जो एक दलित पीता है साब!
नहीं मतलब क्या-क्या पीते हो?
छुआ-छूत का गम
टूटे अरमानों का दम
और नंगी आँखों से देखा गया सारा भरम साब!
मुझे लगा शराब पीते हो!
पीता हूँ न साब! पर आपके चुनाव में।
असल पेच यहां खुलता है। नंगी आंखें अब भरम देखने में सक्षम हैं। होने-खाने-पीने के बेहद मामूली लगते सवालों के ये गैरमामूली लगते जवाब फिर से हमारा और हमारी तथाकथित सभ्यता का मज़ाक उड़ाते हैं- हमारे राजनीतिक पाखंड का भी। कविता चुनाव पर भी चोट करती है। फिर इस पर रोक तो लगेगी ही। अब आगे देखिए- कविता के अगले सवाल-जवाब-
क्या मिला है भाई
“जो दलितों को मिलता है साब!
नहीं मतलब क्या-क्या मिला है?
ज़िल्लत भरी जिंदगी
आपकी छोड़ी हुई गंदगी
और तिस पर भी आप जैसे परजीवियों की बंदगी साब!
मुझे लगा वादे मिले हैं!
मिलते हैं न साब! पर आपके चुनाव में।
यहां से हमला तीखा होता जाता है। उनकी जिल्लत भरी ज़िंदगी में हमारे हिस्से की गंदगी भी शामिल है और हमारी परजीविता भी। चाहें तो आप इसे एक समाजशास्त्रीय सच्चाई की तरह पढ़ सकते हैं। याद कर सकते हैं कि इस देश के जो सबसे ज़रूरी काम हैं- बिल्कुल बुनियादी स्तर के- हर तरह की साफ-सफ़ाई के- वे अब तक उनके भरोसे चल रहे हैं। और उनके सामने ये हक़ीक़त खुली हुई है। कविता का अंतिम हिस्सा इसी काम पर है-
क्या किया है भाई?
“जो दलित करता है साब!
नहीं मतलब क्या-क्या किया है?
सौ दिन तालाब में काम किया
पसीने से तर सुबह को शाम किया
और आते जाते ठाकुरों को सलाम किया साब!
मुझे लगा कोई बड़ा काम किया!
किया है न साब! आपके चुनाव का प्रचार..।
फिर पूछने की इच्छा होती है कि क्या इस कविता पर पाबंदी लगनी चाहिए? और यह जानने की ज़रूरत महसूस होती है कि इस कविता की शिकायत किन लोगों ने की होगी? क्या सोशल मीडिया की भी कथित लोकतांत्रिकता पर उन्हीं वर्चस्ववादी ताक़तों ने क़ब्ज़ा कर लिया है जिनकी ठकुरसुहाती को कभी हर शाम सलाम चाहिए होता था?
यह वह राजनीतिक समय है जब हर कोई अंबेडकर का नाम लेता है- वे भाजपाई भी जिन्हें पता नहीं है कि अंबेडकर ने हिंदुओं को बहुत सख़्ती से बीमार समुदाय की संज्ञा दी थी और कहा था कि उनकी बीमारी देश के दूसरे समुदायों की भी सेहत और खुशहाली पर असर डाल रही है। यह वह सामाजिक समय है जो सदियों के पाखंड को अब भी ढोता है। इस समय में अपनी राजनीतिक मजबूरियों का मारा कोई रविकिशन दलितों के घर खाना खाने जाता है और बाद में उनके पसीने को याद कर भन्नाता है। इसका भी वीडियो इन्हीं दिनों वायरल है।
बच्चालाल ‘उन्मेष’ की कविता पर पाबंदी ज़रूरी है। यह हमारे शिष्ट आस्वाद पर चोट करती है। यह उस लोकतांत्रिक सहमति को ख़ारिज करती है जिसके नाम पर पिछड़ों और दलितों की राजनीति की जाती है। और सबसे ख़तरनाक बात- यह दलितों को याद दिलाती है कि उन्होंने क्या-क्या झेला है और किनके हाथों झेला है। जिस समय इस देश की अदालत सुझाव देती है कि दलित शब्द का इस्तेमाल करने से बचना चाहिए, उस समय यह दलित संज्ञा एक चुनौती की तरह हमारे सामने आती है। सोशल मीडिया ऐसी चुनौतियों से निबटने का तरीक़ा जानता है। लेकिन वह यह नहीं जानता कि पाबंदियां रचनाओं को अतिरिक्त शोहरत दे देती हैं, कि सच्चाइयां फिर भी बाहर निकलने का रास्ता तलाश लेती हैं।
Jagjeet sethi
January 31, 2022 at 12:57 am
Very touching & real happenings in our country. We should change our attitude now after 75 years of freedom
Bachche Lal Yadav
March 15, 2023 at 12:54 am
भैया मैं बच्चा लाल जी के बुक लेना चाहता हूं कहा से मिलेगा मैं एक कलाकार को देखे थे पढ़ते हुए तो हमे भी मर कर रहा था पढ़ने का चार दिन सर्च किया तो आज मिला इनका लिखा पुरा बुक चाहिए
Neeraj Kumar
March 19, 2023 at 10:19 pm
Ha sir bilkul chaiye aor mujhe nhi aor logon ko bhi
Col RK Joshi
February 3, 2022 at 3:26 pm
It is my belief that Hinduism will be wiped out unless and until we do away with caste system۔ We all are humans and need to be treated equally۔
Why you care
February 8, 2022 at 9:41 pm
What a powerful articulation . Simple words and that’s what allows truth to disseminate faster and therefore simple words can scare crap out of people in power and in this case the upper caste domination. As discussed last time, first thing does tyrant does is suppress freedoms of speech, reverse is true too. One who suppress freedoms of speech is the signal that they will become tyrant. Thanks Vilas for finding and sharing this gem.