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सियासत

एक दीवाना आदमी यानी बेचैन बिहारी, कृष्ण बिहारी

krishn bihari

दीवानों की तो बातें दीवाने जानते हैं, जलने में क्या मज़ा है, परवाने जानते हैं ! मेरे कुछ बहुत थोड़े से मित्रों में एक ऐसा ही दीवाना आदमी  है । किसी वंदनवार की तरह दीवानावार । जैसे अपने गले में दीवानगी की माला पहने वह घूमता है । अपनी भावुकता में , अपनी झख और अपनी  सनक में सन कर वह कब किस बात पर किस का दीवाना हो जाए शायद उसे खुद कुछ पता नहीं होता । सैकड़ों , हज़ारों लोगों का वह एक दीवाना, मेरा भी दीवाना कब बन गया , यह मुझे भी नहीं पता चला ।  बेवतन है  ।  पेशे से मास्टर । हिंदी का मास्टर। लेकिन रुपए खर्च कर हर साल भारत आने की दीवानगी । देश भर में फैले मित्रों से मिलने की दीवानगी । सब को अपना बना लेने की दीवानगी। उस की दीवानगी देख कर गाने को मन करता है, ‘ दीवानों की तो बातें दीवाने जानते हैं, जलने में क्या मज़ा है, परवाने जानते हैं !’  इस दीवाने और परवाने का नाम है कृष्ण बिहारी तिवारी। कृष्ण बिहारी रहते तो  हैं आबूधाबी में पर अपनी आत्मकथा में वह लिखते हैं कि  मेरे सीने में अभी भी अर्मापुर धड़कता है । अर्मापुर कानपुर का एक छोटा सा टुकड़ा है जहां आर्डिनेंस फैक्ट्री है और कि वहां काम करने वाले कर्मचारियों की आवासीय कालोनियां भी ।  तो कृष्ण बिहारी तिवारी के पिता आर्डिनेंस फैक्ट्री में काम करते थे और अर्मापुर में रहते थे तो कृष्ण बिहारी कहां जाते भला ? यहीं पढ़े-लिखे । गंगटोक भी गए हिंदी  पढ़ाने  । फिर लौट आए कानपुर । पत्रकारिता करने लगे ।

krishn bihari

krishn bihari

दीवानों की तो बातें दीवाने जानते हैं, जलने में क्या मज़ा है, परवाने जानते हैं ! मेरे कुछ बहुत थोड़े से मित्रों में एक ऐसा ही दीवाना आदमी  है । किसी वंदनवार की तरह दीवानावार । जैसे अपने गले में दीवानगी की माला पहने वह घूमता है । अपनी भावुकता में , अपनी झख और अपनी  सनक में सन कर वह कब किस बात पर किस का दीवाना हो जाए शायद उसे खुद कुछ पता नहीं होता । सैकड़ों , हज़ारों लोगों का वह एक दीवाना, मेरा भी दीवाना कब बन गया , यह मुझे भी नहीं पता चला ।  बेवतन है  ।  पेशे से मास्टर । हिंदी का मास्टर। लेकिन रुपए खर्च कर हर साल भारत आने की दीवानगी । देश भर में फैले मित्रों से मिलने की दीवानगी । सब को अपना बना लेने की दीवानगी। उस की दीवानगी देख कर गाने को मन करता है, ‘ दीवानों की तो बातें दीवाने जानते हैं, जलने में क्या मज़ा है, परवाने जानते हैं !’  इस दीवाने और परवाने का नाम है कृष्ण बिहारी तिवारी। कृष्ण बिहारी रहते तो  हैं आबूधाबी में पर अपनी आत्मकथा में वह लिखते हैं कि  मेरे सीने में अभी भी अर्मापुर धड़कता है । अर्मापुर कानपुर का एक छोटा सा टुकड़ा है जहां आर्डिनेंस फैक्ट्री है और कि वहां काम करने वाले कर्मचारियों की आवासीय कालोनियां भी ।  तो कृष्ण बिहारी तिवारी के पिता आर्डिनेंस फैक्ट्री में काम करते थे और अर्मापुर में रहते थे तो कृष्ण बिहारी कहां जाते भला ? यहीं पढ़े-लिखे । गंगटोक भी गए हिंदी  पढ़ाने  । फिर लौट आए कानपुर । पत्रकारिता करने लगे ।

पर किस्मत में तो जैसे मास्टरी ही दर्ज थी तो चले गए आबूधाबी हिंदी पढ़ाने । ढाई दशक से वहीं हैं । पत्नी भी वहीं पढ़ाती  हैं तो बच्चे भी वहीं रहे और पढ़े । वह हर साल बेकरार हो कर भारत आते हैं और उसी अर्मापुर को धुरी बना कर यहां -वहां खानाबदोशी का शौक़ फ़रमाते फिरते हैं । अर्मापुर में उन के दो  छोटे भाई और मां अभी भी उन का दिल धड़काने के लिए उपस्थित मिलते हैं । मुझे याद  है कि एक बार आबूधाबी में उन का बेटा बीमार हो गया था । पीलिया हो गया था । सो वह भारत नहीं आ पाए थे  उस साल । तो जैसे चिट्ठी लिख-लिख कर अपने भारत न आ पाने का क्षोभ भारत भेजते रहे थे । लिखते थे कि हर कोई भारत जा रहा है और मैं यहां बैठा हुआ हूं । वह बेटे की तीमारदारी में थे । बेटा था कि उबला-सुबला खाने को कुछ तैयार ही नहीं होता था । यह विपदा भी वह उसी भारत न आ पाने की यातना में लपेट कर चिट्ठियों में जब-तब भेजते ही रहते थे । जाने क्यों देखता हूं कि  कृष्ण बिहारी को उबलने के लिए, अपने आप से उलझने के लिए कुछ न कुछ चाहिए ही होता है । लेकिन यह मुद्दे स्थाई नहीं होते । न ही वह इन की गांती बांध कर घूमते हैं । वह उबलने के लिए जैसे कोई न कोई मुद्दा पा ही जाते हैं । नहीं कुछ पाएंगे तो टी वी पर कोई न्यूज ही देख कर उबल पड़ते हैं । एक बार टी वी पर उन्हों ने एक खबर देखी कि  दिल्ली में बहुत ठंड है । उन का बड़ा बेटा उन दिनों दिल्ली में पढ़ाई के सिलसिले में था । उन्हों ने खबर देखी और उसे फ़ोन किया कि  ठंड बहुत है बचा कर रहना । संभल कर रहना । बेटे ने बेपरवाही में जवाब दिया कि, ‘ कहीं कोई ठंड नहीं है , आप बेवजह परेशान हैं !’ अब जनाब इसी पर तबाह । और लखनऊ में मुझे फ़ोन कर ठंड का जायजा  ले रहे हैं कि  वहां कैसी ठंड है ? वह  स्टार्ट हैं  कि बताइए कि ठंड है और  मैं यहां परेशान हूं और साहबजादे फरमा रहे हैं कि  कहीं कोई ठंड वंड नहीं है । आप बेवजह परेशान हैं । पहले के दिनों में जब फेसबुक का बहुत चलन नहीं था तो वह चिट्ठी लिख कर या फ़ोन कर के अपना उबाल उतार लेते थे । अब वह फेसबुक पर ही ज़्यादातर उबाल गांठ कर मुक्त हो लेते हैं । जब बहुत हो जाता है तो फ़ोन  भी कभी कभार कर लेते हैं । उन का फ़ोन कभी-कभार किसी राजनीतिक मसले पर भी आ जाता है तो तुलसी दास की किसी चौपाई पर भी , कभी गोरखपुर के किसी मामूली मसले पर भी । जैसे कि  वह आबूधाबी में रह कर भी यहां की सर्दी और और बरसात को बात-बात में जी लेना चाहते हैं, समेट लेना चाहते हैं हर किसी बात को । वह लिख कर बताते ज़रूर हैं अपनी आत्मकथा में कि उन के दिल में अर्मापुर अब भी धड़कता है । वैसे गोरखपुर में उन का गांव और मेरा गांव दोनों ही एक ही तहसील बांसगांव में पड़ता है । तो हमारी उन की आमद-रफ्त  की एक भावुक  ज़मीन यह भी है कहीं न कहीं । तो माटी बोलती है । बस एक दूसरे से कहते भर नहीं हैं । तो मैं पाता  हूं कि उन के दिल में अर्मापुर से ज़्यादा गोरखपुर में उन का वह गांव धड़कता है ।

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अपनी चाची को ले कर जो कहानी उन्हों ने लिखी है इंतज़ार शीर्षक से वह बिना दिल धड़के लिखी ही नहीं जा सकती । बताइए कि  एक औरत व्याह कर बालपन में आती है । पति पढ़ने में कमजोर है । घर के लोग उस के बार-बार फेल हो जाने से परेशान  हैं । पढ़ाना बंद कर देते हैं । और यह औरत कहती है कि  मैं पढ़ाऊंगी  अपने पति को । और पढ़ाई का खर्च वह चरखा पर सूत कात कर निकालती है । चरखा पर सूत कात  कर मन को नियंत्रित करना , देश की आज़ादी की लड़ाई  में स्वाभिमान का प्रतीक बनते तो सुना और पढ़ा बहुत था । बल्कि एक जगह तो गांधी नज़रबंद हैं और एक अंग्रेज पत्रकार के सामने चरखा काटते हुए वह कहते हैं कि मेरा चरखा कातना यहां बहुत खर्चीला पड़ता है । पर चरखा कात  कर एक सुदूर गांव में कोई स्त्री अपने फेलियर पति को पढ़ाने का वीणा भी उठा सकती है वह भी घर के सारे काम करने के बाद के समय में । वह कब सोती होगी और कब चरखा कातती होगी, वही जानती होगी । और तो और वह पति फिर भी फेल होना नहीं छोड़ता । और अंतत: घर छोड़ कर भाग लेता है । स्त्री जवान से बूढ़ी हो जाती है पर पति का इंतज़ार खत्म नहीं होता कि  वह एक दिन लौटेगा । तो ऐसा इंतज़ार बिना कुछ धड़के लिखा जा सकता है क्या ?

बहुत मुश्किल है ।

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निकट उन की ज़िंदगी का नया उन्वान है । लेकिन निकट में भी आप पाएंगे कि  भीतर भले कुछ हो पर कवर पर तो गांव ही है , गांव  के ही प्रतीक हैं । तो गोरखपुर , कानपुर, अर्मापुर सब एक साथ उन के दिल में धड़कता दिखता है । क्या पता जब वह भारत में होते हैं हर साल महीने-डेढ़ महीने के लिए तो उन दिनों में उन के भीतर आबूधाबी भी धड़कने लगता हो ! और यहां वह इस का इजहार न करते हों । या फिर फेसबुक पर या चिट्ठी में वहां के दोस्तों के साथ धड़काते हों !

क्या पता !

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आखिर वहां पानी से भी सस्ता पेट्रोल मिलता है और कृष्ण बिहारी रोज खाना खाने के बाद 30 – 35 किलोमीटर कार चलाने की चर्चा तो करते रहते  हैं । तो क्या बेवजह ?

हां उन के दिल में मैं ने दो व्यक्तियों को भी बहुत तेज़ धड़कते देखा है। संयोग से यह दोनों एक ही नामधारी हैं । एक राजेंद्र यादव और दूसरे राजेंद्र राव । इन दोनों के प्रति कृष्ण बिहारी की आसक्ति अदभुत है । इन दोनों की ही वह राधा हैं । या कहिए कि  यह दोनों ही इन के कृष्ण हैं । कोई भी बात करेंगे तो इन दिनों के बिना कृष्ण बिहारी की बात शुरू नहीं होती , इन दोनों के बिना खत्म नहीं होती  । यह  ज़रूर हो सकता है कि वह एक से शुरू करें , एक से खत्म करें । या दोनों से ही शुरू करें और दोनों पर ही खत्म करें । पर करेंगे ज़रूर । दोनों का नाम कृष्ण बिहारी की जुबान पर क्या आता है , उन के नथुने जैसे फड़कने लगते हैं , मारे शान और गुरुर के उन की छाती जैसे फूलने लगती है। चौड़ी होने लगती है । जैसे इन दोनों के बिना कृष्ण बिहारी का कोई अस्तित्व ही नहीं है । और कि वह इस को कभी छुपाते भी नहीं हैं । उन का जीना-मरना इन्हीं के साथ होता है । गोया यह दोनों लोग इन के घर की वंदनवार हों । इन की आक्सीजन हों । अब तो राजेंद्र यादव नहीं हैं पर जब थे तो जैसे जुलाई में वह भारत उन्हीं के लिए आते थे । हंस के 31 जुलाई के कार्यक्रम का साक्षी बनना तो बस बहाना ही होता था । इस के आगे पीछे वह औरों से भी मिलने का भौकाली कार्यक्रम बनाए होते और कई ऐसे लोगों से भी वह मिलने में जाने क्यों खुशी महसूस करते थे जो साहित्य में ठेकेदारी प्रथा के पैरोकार हैं और बिचौलिया बन कर उपस्थित हैं । लेकिन लौट कर कृष्ण बिहारी इन फर्जी लोगों से भी मुलाक़ात का ऐसा वितान तानते कि  देख कर तकलीफ होती और मैं उन से यह तकलीफ बराबर जताता रहा हूं  और बताता रहा हूं कि साहित्य में आलोचना और संपादन  के नाम पर इन कलंक और रैकेटियरों से आप क्यों मिलते हैं ? मिलते हैं तो मिलते हैं लेकिन लौट कर इन मूर्खों  का गुणगान भी क्यों करते फिरते हैं ? क्या यह लोग आप को अमर कर देंगे ? जिन की लताएं फासिज्म, फ्राड और चार सौ बीसी के बरगद पर चढ़ी हुई हैं , इन का ही जीवन कितना है , जानते हैं आप? जो आप को अमर कर देंगे ? पर कृष्ण बिहारी इस बात पर कतरा जाते रहे हैं । बहुत बोलने वाले लोग अकसर झूठ बहुत बोलते हैं । कृष्ण बिहारी भी  बोलते बहुत हैं पर झूठ नहीं बोलते हैं । बहुत करते हैं तो कतरा जाते हैं उस बात से । बहस में नहीं पड़ते । पर राजेंद्र यादव और राजेंद्र राव के लिए वह भिड़ जाते हैं ।  राजेंद्र राव को तो खैर वह अपनी प्रेरणा ही मानते हैं और कहते नहीं अघाते कि राजेंद्र राव को देख कर ही उन्हों ने यह तय किया कि वह लेखक बनेंगे । राजेंद्र यादव ने उन की कहानियां ही  नहीं छापी हैं बल्कि उन को साहित्य में अकेले होते जाने से भी बचाया है । अब अलग बात है कि  राजेंद्र यादव आख़िरी समय में खुद बहुत अकेले हो गए थे । लेकिन जब दो औरतें कहानी छापी राजेंद्र यादव ने तो कृष्ण बिहारी का जलवा हो गया । देवेंद्र राज अंकुर ने इस का मंचन शुरू कर दिया। फिर तो कृष्ण बिहारी ने अपनी नाल जैसे राजेंद्र यादव से जोड़ ली । बात-बात में राजेंद्र यादव ! सुबह-शाम राजेंद्र यादव । लेकिन जैसे राजेंद्र यादव विवाद प्रिय आदमी थे पर कृष्ण बिहारी विवाद से उतना ही भागते हैं ।

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कृष्ण बिहारी की एक और नाल है जो अपने विद्यार्थियों से जुडी है । अपने विद्यार्थियों को ले कर कई कहानियां भी लिखी हैं उन्हों ने । कोई दो दर्जन कहानियां । यादगार कहानियां ।   अपने  विद्यार्थियों को ले कर वह बहुत ही भावुक हो जाते हैं जब-तब! और आज कल तो वह अपने अध्यापकों को ले कर भी कई प्रसंग ले कर अपने विद्यार्थी दिनों की याद में गोता मार रहे हैं , डुबकी लगा-लगा बता रहे हैं उन दिनों के बारे में । हिंदी के साथ सफर में अपनी पुरानी यादों को तरतीब दे रहे हैं और इस तरतीब की खुशबू और उस खुशबू की चाशनी  में लिपट-लिपट कर खुद को खोज रहे हैं उस धुंध में । अपनी आत्मकथा के भी दो खंड भी वह पढ़वा चुके हैं । और अपने जीवन से ज़्यादा अपने एक कुत्ते को ले कर काफी हो-हल्ला मचा चुके हैं । भावुकता की हद तक ।

कृष्ण बिहारी की यह भी एक अदा है कि  अपनी भावुकता में वह लोगों से बहुत जल्दी जुड़ जाते हैं , बहुत जल्दी सब पर भरोसा कर लेते हैं । और जल्दी ही मुंह की खा जाते हैं । खाते ही रहते हैं। कदम-कदम पर छले जाना जैसे अपनी  किस्मत में वह लिखवा कर आए हैं । लेकिन फिर भी वह बाज नहीं आते । कृष्ण बिहारी की एक अदा और बड़ी जालिमाना है । वह यह कि  वह अपनी ज़िंदगी के जिए हर क्षण को रचना में ढाल देने को बेकरार रहते हैं और चाहते हैं कि उन की हर रचना को लोग अमर मान लें । एक समय जैसे यह अदा उन की ज़िंदगी में इस कदर चूर थी और कि अब भी तारी  है कि  बस मत पूछिए । कई बार उन को लगता है कि वह हिंदी के लिए इतनी दूर से प्राण दिए जा रहे हैं और लोग हैं कि उन की नोटिस ही नहीं ले रहे ! उन को लगता है कि अगर वह हिंदुस्तान में होते तो उन के पौ बारह होते । और ऐसा नहीं है कि  इस समस्या से सिर्फ कृष्ण बिहारी ही जूझ रहे हैं । बल्कि कई अप्रवासी रचनाकारों की बीमारी है यह । जैसे कि  सुविधा के तौर पर एक नाम है तेजेंद्र शर्मा का । वह भी इस ग्रंथि में गड़े जाते हैं कई बार । तब जब कि तेजेंद्र शर्मा अपनी पत्नी इंदु शर्मा के नाम एक प्रतिष्ठित पुरस्कार भी हर साल बांटते हैं । और कि  लोग उन की परिक्रमा भी खूब करते हैं । लेकिन तेजेंद्र शर्मा की प्राथमिकता में हैं कौन लोग ? विभूति नारायन राय , जो  रचना के लिए नहीं अपनी पुलिसिया हेकड़ी और रैकेटबाजी के लिए जाने जाते हैं । महुआ माजी, जिन पर रचना चोरी का आरोप सिद्ध हो चुका है । पंकज सुबीर जो बीते साल जंगल में मंगल के लिए खूब ख्याति बटोर चुके हैं । और तो और प्रमोद कुमार तिवारी ! जिन की योग्यता आई ए  एस होना ही है, रचना का तो कोई नाम  नहीं है । फिर यह आई ए एस , आई पी एस अफसर या ऐसी औरतें ही आप को पुरस्कृत करने लायक क्यों मिलते हैं ? अगले पुरस्कार के लिए भी एक सुंदरी की चर्चा चल पडी है । तो मित्र आप पद को पुरस्कृत कर रहे होते हैं कि  रचनाकार को ? बशीर बद्र का एक शेर है :

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घरों पे नाम थे, नामों के साथ ओहदे थे
बहुत तलाश किया कोई आदमी ना मिला।

तो हुजूर रचनाकार ढूंढिए । ओहदेदार नहीं । सुंदरियां नहीं ।

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खैर अपने कृष्ण बिहारी जी  का भी यही हाल है । उन का भी मित्रों का चयन कुछ इसी तरह का है । तब जब कि  तेजेंद्र शर्मा भी अच्छे रचनाकार हैं और कृष्ण बिहारी भी । इन दोनों रचनाकारों की कहानियों की तासीर और ताप तो  बस पूछिए मत । कहानियां तो इन की जैसे कैद कर लेती हैं अपने पाठकों को । पर यह लोग क्यों और कैसे नकली लोगों की कैद में आ जाते हैं और बार-बार आ जाते हैं तो यह देख कर तकलीफ होती है । आत्म-मुग्धता और लोकप्रिय होने की चाह, अमर हो जाने की बीमारी बहुत से रचनाकारों में कहीं गहरे घर कर गई  है । वह चाहे देश में रह रहे हों या परदेस में । और व्यवसाई संपादकों , फासिस्ट आलोचकों ने इन बीमारों को अमर बनाने की ‘सुविधा’ का जाल बिछा  कर यह सपना घना कर दिया है । ऐसे जैसे ई सुविधा हो । कि  हर कोई काम एक ही जगह । कुछ लघु पत्रिकाओं के संपादकों ने अपने  रैकेट का पैकेज इस कदर चमकीला बना दिया है कि बड़े-बड़े लोग कीट -पतंगों  की तरह उन की गोद  में मरने चले जा रहे हैं । अपनी जान भर अमर होने खातिर । यह लोग अपनी साध में यह भी नहीं सोचते कि  हज़ार पांच सौ या अधिक से अधिक दो हज़ार छपने वाली यह पत्रिकाएं उन को किस तरह अमर बना देंगी ? और कि  कुछ बनना -बनाना रचना के हाथ होता है किसी संपादक या आलोचक के हाथ नहीं । और फिर हंस जैसी पत्रिका भी बारह हजार से ज़्यादा नहीं छपती । देश में सवा अरब की आबादी में यह ऊंट के मुंह में जीरा भी तो नहीं है। माफ़ कीजिए मित्रों और कि  इसे मेरी आत्म-मुग्धता भी नहीं माना जाए बल्कि सत्य और तथ्य माना जाए कि इस से कहीं ज़्यादा क्या इस से बहुत बहुत-बहुत ज़्यादा तो मेरा ब्लॉग सरोकारनामा  पढ़ा जाता है । सो मैं तो संपादकों की टेक बर्दाश्त नहीं करता । आप होंगे संपादक तो अपने अहंकार और अपने रैकेट के साथ रहिए अपने दड़बे में। मुझे तो  विपुल पाठक संसार मिल गया है दुनिया भर में बरास्ता सरोकारनामा ! मुझे बहुत प्यार करने वाले अनगिनत पाठक मित्र हैं मेरे ।

फ़िलहाल तो आलम यह है कि रचना छोड़ कर ,  पाठक छोड़ कर फासिस्ट, अहंकारी  और रैकेटियर संपादकों की अगुवानी, अफसरों की ठकुरसुहाती, प्रकाशकों की चरणवंदना, फर्जी आलोचकों को कोर्निश बजाना और चोरी की रचना या अधकचरी रचना की मालकिनों  को पालने में झुलाना और कि इन को जैसे सर पर बिठा लेना,  हिंदी लेखक समाज की यह नई प्रवृत्ति, यह नई आग सामने आई है ।  इस प्रवृत्ति और इस आग की लपट में बड़े-बड़े झुलसते दिख रहे हैं । मैत्रेयी पुष्पा अनायास ही नहीं कह रही हैं कि, ‘ इन दिनों समीक्षकों की योग्यता क्या है, दोस्ती और दुश्मनी की दलबंदी। पाठकों में यह दुर्गुण नहीं होता। दोस्त समीक्षक पीठ ठोकें और पाठक अपना माथा पीटें तो हमारी रचना की जगह कूड़ेदान में होनी चाहिए।’ वैसे यह विमर्श बहुत समय मांगता है और कि यह विषय भी अंतहीन है । तो भी इस बात पर गौर किया जाना बहुत ज़रूरी है ।

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खैर , बात कृष्ण बिहारी की हो रही है यहां और वह भी निकट के संपादक हैं । आज कल वह भी  संपादन के नाम पर चयन छापने में प्राण दे रहे हैं । उन को कोई यह बताने वाला नहीं है कि  संपादन  और चयन दोनों दो बात है। सारिका कहानी की एक  समय बहुत अच्छी पत्रिका थी । लेकिन जब उस के अंतिम दिन आए तो वह जैसे भभकने लगी देह कथा विशेषांक, यह  विशेषांक , वह विशेषांक   निकाल -निकाल कर। रवींद्र कालिया एक समय अच्छे संपादक थे। लेकिन वह भी पहले वागर्थ और फिर ज्ञानोदय में भी  जब अपठनीय और नकली कहानीकारों की एक लंबी फौज खड़ी कर हांफने लगे तो फिर जल्दी ही भभकने भी लगे  तो प्रेम विशेषांक , बेवफाई विशेषांक आदि  के नाम पर चयन छापने में लग गए । साल में बारह अंक में आप पुरानी रचनाओं को बटोर कर जो कि  आसानी से उपलब्ध है हर कहीं , उस को ले कर छ अंक, आठ अंक चयन का निकाल दें और आप कहें कि आप संपादक भी हैं ? अरे आप यह चयन ज्ञानपीठ से किताब के रूप में छाप  दिए होते । ज्ञानोदय में उस का विज्ञापन छाप  दिए होते । और इस बेवफाई में भी विभूति नरायन राय  का वह गैर जिम्मेदाराना इंटरव्यू छाप दिया , लेखिकाओं को छिनार बता दिया , हेकड़ी भी दिखा दी और जब नौकरी पर बन आई तो माफी मांग कर नौकरी भी बचा ली ! उधर विभूति ने भी अपनी वाइस चांसलरी बचाने के लिए माफी मांग ली । गलत कि सही एक स्टैंड भी ठीक से नहीं ले पाए । गज़ब के संपादक हैं भाई ! गोया संपादक नहीं , वाइस चांसलर नहीं कहीं चपरासी हों , बाबू हों कि पेट पालने के लिए नौकरी बचाना ज़रूरी है । यकीन ही नहीं हुआ यह सब देख-सुन कर कि यह वही रवींद्र कालिया हैं जिन को कि हम ग़ालिब छूटी शराब के लिए सैल्यूट करते रहे हैं और  कि उन से  रश्क भी ।  काला रजिस्टर लिखने वाले क्या यह वही कालिया थे जो ज़रा सी बात पर विरोध करने धर्मयुग के संपादक धर्मवीर भारती के  घर पहुंच  गए थे आधी रात ! और कि  दूसरे दिन इस्तीफा दे दिया था धर्मयुग से ! जाहिर है कि  यह कालिया कोई और थे , वह कालिया कोई और ! रही बात विभूति नारायन  राय की तो उन से तो खैर ऐसी ही क्या इस से भी ज़्यादा की  उम्मीद करने न करने की कोई ज़रूरत ही नहीं । वह तो कुछ भी कर सकते हैं और पैसे , सुविधा के जोर पर देश भर के लेखकों को जब चाहे तब टट्टू बना सकते हैं, बंधुआ बना सकते हैं, मुर्गा बना सकते हैं । और लोगों को बनाया भी है बीते दिनों । और कि लोग खुशी-खुशी बनते देखे भी गए। खैर यह भी दूसरा प्रसंग है । और कि पूरा का पूरा बेवफाई का मामला है । और बात यहां वफ़ा की चल रही है । कृष्ण बिहारी की वफ़ाई की ।

सो  यहां अपने कृष्ण बिहारी जी तो अपनी जेब से पैसा खर्च कर, इतनी दूर से अपना खून जला कर संपादन  कर रहे हैं और चयन पर चयन ठोंके जा रहे हैं । यह क्या है कृष्ण बिहारी जी ? अरे संपादन  करिए । नई रचनाएं और नए रचनाकार सामने लाइए । पत्रिका का मतलब यही होता है । और  यह जो चयन का जो शौक है तो संग्रह छापिए , पत्रिका नहीं । होती हैं डाइजेस्ट वाली पत्रिकाएं भी । जैसे सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट , नवनीत हिंदी डाइजेस्ट । मेरा सौभाग्य है कि  अरविंद कुमार जैसे संपादक के साथ सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट में मैं  ने नौकरी की है । सर्वोत्तम ,  रीडर्स डाइजेस्ट का हिंदी संस्करण था ।  दुनिया भर में तब इस के 48 संस्करण थे । कोई 36 भाषाओं में । दुनिया भर की सर्वश्रेष्ठ रचनाएं , विविध विषय पर बटोर कर पूरे शोध और संपादन के बाद छपती थीं । जिन में संकलन की ज़रा भी गंध नहीं होती । वह चाहे साहित्य हो , विज्ञानं हो या कोई और विषय । यह सिलसिला आज भी रीडर्स डाइजेस्ट में जारी है । सभी भाषा के संपादक और संपादक मंडल आपस में पूरा सामंजस्य बना कर रचनाओं का चयन करते हैं । खैर , यह लंबा विषय है और कि  विवरण भी अलग है ।

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तो कृष्ण बिहारी की एक खासियत यह भी है कि  वह बहुत जल्दी किसी को अपना बना लेते हैं और कि टूट कर उसे चाहने लगते हैं । कई लोग तो उन की इस चाह को निभाते भी हैं । पर कुछ लोग उन्हें ऐसे भी मिल जाते हैं जो सिर्फ उन्हें छलते हैं , उन्हें दुहते हैं । जिन से उन का मोहभंग हो ही जाता है । होता ही रहता है । सब के जीवन की यह एक निरंतर प्रक्रिया है । हमारी आप की भी है, कृष्ण बिहारी की भी है । लेकिन इस फेर में वह अकसर मार खाते ही रहते हैं तो भी भूल-भूल जाते हैं और कि मेरी तो छोड़िए वह बशीर बद्र की बात और सलाह को भी नहीं मानते कि :

कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिजाज का शहर है ज़रा फासले से मिला करो ।

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तो कृष्ण बिहारी की यह एक और बुरी लत है कि  वह लोगों से तपाक से ही  गले मिलते हैं । फासले से मिलना जानते ही नहीं । सो जब होता है तो पूरा फासला हो जाता है ।  और कि होता ही रहता है । हालां कि  वह अपनी अध्यापकीय आदत के मुताबिक़ अगले को बिना मांगे भी आशीर्वाद देते फिरते हैं । यह भी उन की फितरत है।  मैं ने देखा है कि  वह कई बार किसी विवाद की चर्चा भी करते हैं और कि उन के मन में पल रहा फोड़ा कभी – कभार फट भी पड़ता है तो भी वह कभी किसी से सीधा मोर्चा नहीं खोलते । कई बार उकसाने पर भी नहीं । जब बहुत कहिए तो वह रास्ता मुड़ जाते हैं । बात बदल लेते हैं । एकाध मौकों पर मैं ने उन्हें डरपोक तक कह डाला है । वह अमूमन फिर भी चुप लगा गए हैं । और जब बहुत पीछे पड़  गया तो वह बोले, ‘ आप बनिए बहादुर, मुझे नहीं बनना । ‘ मैं ने पाया कि घरेलू जीवन में भी वह इसी राह पर चलते हैं । बड़े बेटे ने जब अपने लिए एक दक्षिण भारतीय लड़की पसंद कर ली तो यह भी बिना किसी ना-नुकुर के फ़ौरन राजी हो गए । और शादी करवा दी । इसी तरह छोटा बेटा अब जब बैरागी होने की बात करने लगा तो वह बेटे के बैराग को भी सहर्ष स्वीकार कर लिए । सर्वप्रिया या इंतज़ार जैसी  श्रेष्ठ  कहानियां वैसे ही तो नहीं लिखी गई हैं आखिर ! बहुत गरमी और बरसात में पक कर लिखी गई हैं । तो वह रचना की परिपक्वता जीवन में भी उत्तर ही आती है, जाएगी कहां  भला ? नहीं यह वही कृष्ण बिहारी हैं जिन्हों ने अपने पिता से लंबे समय तक संवादहीनता के दिन भी काटे हैं ।

भारत यात्रा में तमाम जगह वह जाते रहते हैं । उन की लायजनिंग का फंडा कहिए , लोगों से उन की मिलन की ललक कहिए, लालसा कहिए , वह यहां-वहां सब से मिलने में वह  पगलाए घूमते हैं । पर अमूमन उन के तीन-चार  मुख्य पड़ाव  होते हैं । दिल्ली , कानपुर , लखनऊ और गोरखपुर।  दिल्ली में उन के राजेंद्र यादव , कानपुर में उन के राजेंद्र राव, लखनऊ में उन की ससुराल के लोग और गोरखपुर में पैतृक गांव । राजेंद्र यादव अब नहीं हैं तो अब यह देखना दिलचस्प होगा कि राजेंद्र यादव की अनुपस्थिति में दिल्ली अब उन से कैसे मिला करेगी? कानपुर के अर्मापुर में तो उन का दिल ही धड़कता है । यहीं पढ़े-लिखे और जवान हुए हैं । और फिर उन के राजेंद्र राव हैं । अम्मा हैं , दो छोटे भाई और उन के परिवारीजन हैं । उन की फरमाइश पर मैं भी गया हूं  उन के अर्मापुर में उन के  धड़कते  दिल को देखने । और शमा फ़िल्म में सुरैया का गाया  वह गाना याद आ गया है ; ‘ धड़कते दिल की तमन्ना हो मेरा प्यार हो तुम ! मुझे करार नहीं जब से बेकरार हो तुम !’ तो कृष्ण बिहारी की बेकरारी भी देखी है और जो दिल की राह से गुज़री है वो बहार भी देखी है । और याद आई है वो इबारत भी कि , ‘ जहे नसीब अता की जो दर्द की सौगात / वो गम हसीं है, जिस के ज़िम्मेदार हो तुम! / चढ़ाऊं  फूल या आंसू तुम्हारे कदमों में , मेरी वफ़ाओं की उल्फ़त की यादगार हो तुम !’ भोजपुरी बोलने वाली उन की अम्मा को बहुत विह्वल हो कर ममत्व से भर कर उन का कहानी पाठ भी सुनते देखा है।  और राजेंद्र राव को उन का बड़ी बेकली से स्वागत करते हुए भी । और बहुत बेचैन हो कर कृष्ण बिहारी को कहानी पाठ करते हुए भी देखा है । पता नहीं क्या है कि कृष्ण बिहारी के भीतर एक छटपटाहट , एक बेचैनी सर्वदा गश्त करती मिलती है । उन के व्यक्ति में भी और उन की रचनाओ  में भी ।  कि कभी-कभी मन करता है कि उन का नाम ही रख दूं  बेचैन भारत, व्याकुल भारत या बेचैन बिहारी ! तो भी उन की वफाओं की उल्फत और उस की यादों की तफ़सील उन की इस बेचैनी और छटपटाहट पर अनायास भारी पड़ती जाती है ।

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लखनऊ में उन के ससुरालीजन भी रहते हैं । रहने वाले लोग बलिया के हैं पर रम गए हैं लोग लखनऊ में । कृष्ण बिहारी लखनऊ में जब होते हैं तो उन का अड्डा यहीं ससुराल में जमता है । गोमती नगर के विजय खंड में । ससुर जी भी हैं । राजेश तिवारी , एडवोकेट उन के साले हैं । प्रैक्टिस चटकी हुई है । हाईकोर्ट के वकील के पास समय बहुत काम होता है। लेकिन जब कृष्ण बिहारी लखनऊ में होते हैं तो वह उन के लिए समय निकाल ही लेते हैं । अकसर  साले बहनोई की शाम साथ गुज़रती है । बिलकुल दोस्ताना अंदाज़ में। खूब खुल कर बतियाते हुए । जो-जो बात नहीं बतियाते सार-बहनोई आपस में वह भी । हम भी कई बार इस सतसंग में होते हैं । रस-रंजन के बाद भोजन के समय एक बार गज़ब का दृश्य उपस्थित हो गया । जुलाई का महीना था।  सावन अपनी पूरी रवानी पर था । रस-रंजन के बाद माहौल और भी बेतकल्लुफ  हो गया था । बाहर खूब बरसात हो रही थी ।  लेकिन भीतर भी एक बरसात जारी थी । हर्ष की बरसात । और इस हर्ष में भी विभोर होने की बरसात । राजेश जी तो सपत्नीक हमारी सेवा में थे ही । उन का सेवा भाव देख कर मेरे मुंह से निकल गया कि, ‘ भाई साला हो तो ऐसा !’ तो राजेश जी हंसे और चुहुल में बोले , ‘ इस मामले में मैं भी बहुत भाग्यशाली हूं!’

‘वह कैसे ?’

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‘ इन को देख रहे हैं ?’ भोजन परोसने में उन का साथ दे रहे एक व्यक्ति को इंगित कर वह बोले, ‘ यह जनाब कौन हैं , जानते हैं आप? ‘ वह मजा लेते हुए बोले , ‘ यह मेरे साले साहब हैं । और यह  रहीं  मेरी साली साहिबा भी !’ वह भी भोजन परोसने में अपने पति की मदद कर रही थीं ।

‘अच्छा-अच्छा !’ मैं खुश होते हुए बोला । लेकिन कृष्ण बिहारी जी को लगा कि  जैसे मैं  कुछ समझा ही  नहीं । तो उन का अध्यापक जैसे जाग गया। क्लास खुल गई उन की । समझाते हुए बोले, ‘ यह मेरा साला , और साली ! और यह इन का साला और इन की साली !’  और यह दो तीन बार समझाया उन्हों ने । रस रंजन के बाद बहुत लोग अमूमन  भावुक हो जाते हैं । अकसर  मैं भी । पर कृष्ण बिहारी जी उस समय हर्ष में भीग रहे थे, जैसे विभोर हो गए थे । सो बार-बार यह तफसील दे रहे थे ।

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और कृष्ण बिहारी जी के साथ तो यह स्थिति बाज दफ़ा बिना रस रंजन के भी उपस्थित हो जाती है । बस उन को बहाना मिल जाना चाहिए । वह स्टार्ट हो जाते हैं तो बस स्टार्ट हो जाते हैं । फिर तो वह कब और कितने ताजमहल बना डालेंगे, यह वह भी नहीं जानते । तो  मैं ने जो शुरू में ही कहा था कि , ‘ दीवानों की तो बातें दीवाने जानते हैं, जलने में क्या मज़ा है, परवाने जानते हैं !’ तो आप क्या  समझते हैं, वैसे ही मुफ्त में कहा था! जाहिद  न कह बुरी कि हम दीवाने आदमी हैं , तुझ से लिपट पड़ेंगे हम कि मस्ताने आदमी हैं । आखिर हम भी तो वही हैं ! उसी माटी के, उसी मन के ।

 

लेखक दयानंद पांडेय वरिष्ठ पत्रकार और उपन्यासकार हैं. उनसे संपर्क 09415130127, 09335233424 और  [email protected] के जरिए किया जा सकता है। यह लेख उनके ब्‍लॉग सरोकारनामा से साभार लिया गया है।

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0 Comments

  1. kamta prasad

    July 10, 2014 at 6:38 am

    पांडेय जी, आप हर बार अच्छा लिखते हैं पर कई बार लंबाई कुछ ज्यादा हो जाती है।
    रिपोर्टर की तरह भी लिखा करें कभी-कभी सात-आठ सौ शब्दों में।

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