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सुख-दुख

भड़ास4मीडिया के भविष्य को लेकर यशवंत ने क्या लिया फैसला, जानें इस एफबी पोस्ट से

Yashwant Singh : ऐ भाई लोगों, कल हम पूरे 44 के हो जाएंगे. इलाहाबाद में हायर एजुकेशन की पढ़ाई के दौरान ओशो-मार्क्स के साथ-साथ अपन पामोलाजी-न्यूमरोलॉजी की किताब पर भी हाथ आजमाए थे. उस जमाने में हासिल ज्ञान से पता चलता है कि मेरा जन्मांक 8 और मूलांक 9 है. जन्मांक छब्बीस का छह और दो जोड़कर आठ बना इसलिए आठ हुआ. मूलांक तारीख, महीना और साल जोड़कर पता किया जाता है जो मेरा 9 होता है. इस बार जो 26 अगस्त सन 2017 है, इसका योग 8 बैठ रहा. 44 साल का होने के कारण चार प्लस चार यानि आठ हो रहा. मतलब जन्मांक और मूलांक दोनों आठ हो रहा है. ग़ज़ब संयोग या दुर्योग, जो कहिए, बैठ रहा है इस बार. वैसे, अपन तो कई साल पहले लिख चुके हैं कि बोनस लाइफ जी रहा हूं, इसलिए हर दिन जिंदाबाद. 🙂

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अपने एक पत्रकार साथी मृदुल त्यागी, दैनिक जागरण मेरठ के जमाने में ज्योतिषीय ज्ञान-गणना के आधार पर राहु-केतु टाइप के दो खूंखार जीवों / ग्रहों-नक्षत्रों का मुझ पर भयंकर प्रकोप बताया-समझाया करते थे. तब मुझे मन ही मन लगता रहा कि जरूर ये मूलांक 9 वाला अंक राहु है और जन्मांक 8 वाला केतु. अंक ज्योतिष के हिसाब से 8 वाला अंक थोड़ा क्रिएटिव पर्सनाल्टी डेवलप करता है और 9 वाला दुस्साहसी / खाड़कू / दबंग टाइप का. जब दोनों साथ हों तो आदमी ‘एक तरफ उसका घर एक तरफ मयकदा’ मार्का द्वंद्व समेटे हुआ जीवन के हर क्षण को हाहाकारी टाइप से जीता है. अपन का भी कुछ कुछ ऐसा रहा है. 🙂

ऐसा लग रहा है कि राहु-केतु मेरा पिंड छोड़ रहे हैं. ज्योतिष के विद्वान लोग बताएं कि क्या मेरे इस बर्थडे पर राहु और केतु की अनंत प्यास बुझ जाएगी और वो मेरा पिंड छोड़कर मेरे किसी ‘चाहने’ वाले के कपार पर सवार हो उसे सदा के लिए बेचैन आत्मा बनाकर छोड़ेंगे 🙂

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मौज लेते रहना चाहिए.

इस जन्मदिन पर मैं क्या सोच-गुन रहा हूं?

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बस दो चीजें.

एक तो सोचने-दिमाग लड़ाने का काम लगभग बंद कर रहा हूं. ‘जाहे विधि राखे प्रभु, ताहे विधि रहिए’ वाला मेरा हाल हो गया है. इस रास्ते पर चलते हुए लग रहा है कि चलते रहो, जब जीवन का अंतत: कोई मकसद ही नहीं होता तो फिर काहें को टेंशन लेने का, हर साल का चार्ट काहें को तैयार करने का. तत्काल में यानि तुरंत में जीते रहो, न अतीत को लेकर परेशान होओ और न भविष्य को लेकर चिंतित. तत्क्षण को उदात्त तरीके से जीते रहो. जीवन यापन के लिए जो करो, इतने कलात्मक ढंग से, इतने मन से और इतने डूब कर करो कि वही तपस्या और ध्यान बन जाए.

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बीते दो दशकों के दौरान समझ, संघर्ष, समय, चेतना और नियति आदि के मेलजोल के चलते अब एक जाग्रत भाव-सा निर्मित हुआ है. यह भाव महसूस किया जा सकता है, बताया नहीं जा सकता, क्योंकि जो इससे वंचित है, वह सारा का सारा शब्दजाल मानेगा. एक नया जीवन चर्या डेवलप होने लगा है. पुराने संस्कारों की ज़िद खत्म होती जा रही है. नई लाइफस्टाइल ने खुद ब खुद जगह बनाना शुरू किया है. एक ट्रांजीशन फेज चल रहा था पिछले चार पांच साल से, वह पूरा होने की ओर है. सहजता और शांति, ये ऐसी चीजें हैं जो बीते एक साल के दौरान शिद्दद से खुद के भीतर महसूस किया, कर रहा हूं. इन्हें खदेड़ने के वास्ते बाहरी तौर पर बेहद अशांत और असहज माहौल क्रिएट करता रहा, जान बूझ कर, पर जीतता रहा अंदर वाला ही. अपने आप.

किसी भी चीज की परवाह न करना, तत्क्षण में जीना, किसी भी तर्क-वितर्क या घटनाक्रम की निर्रथकता महसूस करना, ‘ये हो जाएगा तो क्या हो जाएगा और वो नहीं हो रहा तो क्या बिगड़ रहा’ टाइप फीलिंग का घर करते जाना… ये सब मिलाकर एक अ-सामाजिक सा व्यक्तित्व निर्मित होता रहा. एक शब्द आता है हाइबरनेशन. शायद मेरे मामले में उसी की बारी है. अतिशय उर्जा खर्च कर अब तक का भड़ भड़ टाइप जिया हुआ करियरवादी / क्रांतिकारी / अराजकतावादी (जिसे जो मानना हो माने, अपन तो जीवन को समग्रता में देखते हैं) जीवन फिलहाल इनके इतर या इन्हीं चीजों के दूसरे कांट्रास्ट / छोर की तरफ शिफ्ट हो गया है. सबका भला हो, सबको प्रेम मिले, सब सहज हों, सब भयमुक्त हों. ऐसा फील आने लगा है. ऐसा करने-कराने का मन करने लगा है. पहले भी थी, लेकिन तब दूसरे रास्ते तलाशे जाते थे. दूसरे हथियार अख्तियार किए जाते थे. अब तो अलग बात है. अब तो सहज बात है.

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इस आंतरिक मन:स्थिति के इस लेवल की ज्यादा व्याख्या यहां संभव नहीं है. शब्द शायद सटीक न मिलें और इसके अभाव में व्याख्या कहीं सतही न हो जाए. वैसे भी, आंतरिक यात्राएं अधिकांशत: निजी हुआ करती हैं. बाहरी यात्राएं अक्सर सामूहिकता और परंपरा का स्वभाव लिए होती हैं. अध्यात्म आंतरिक यात्रा से जुड़ा मामला है. इसमें बाहरी मदद ज्यादा नहीं मिल सकती. इसमें सामूहिकता का कोई ज्यादा मतलब नहीं है. अप्प दीपो भव: वाली स्थिति होती है यहां. विज्ञान और व्यवस्था आदि चीजें परंपरा दर परंपरा निर्मित होती रहती है. इसमें हर पीढ़ी कुछ न कुछ जोड़ती रहती है. और, हर आदमी के जाग्रत होने के खुद के रास्ते तरीके होते हैं. फिलहाल इस विषय को यहीं छोड़ते हैं. यह इतना बड़ा टापिक है, इतने डायमेंशन हैं कि इसे लिखा नहीं जा सकता. दूसरे, अगर सब लिख दिया तो उसे सब महसूस नहीं कर सकते.

अब दूसरी बात. भड़ास को 26 अगस्त को बंद करने को लेकर जो मेरा ऐलान था, उसके बाद से लगातार मंथन, चर्चा और विमर्श अलग-अलग लोगों से होता रहा. तय फिलहाल ये हुआ कि भड़ास को बंद न किया जाए. और, इसमें बहुत ज्यादा उर्जा भी न खर्च की जाए. इसके संचालन के लिए आय के स्रोत क्रिएट करने को लेकर कई किस्म की चर्चाएं हुईं. मेरा निजी मन भड़ास से इतर कुछ नये आंतरिक प्रयोगों को लेकर है, सो भड़ास मेरी प्रियारिटी में न रहेगा. हां, बड़ा प्रकरण / मामला आएगा तो छोड़ेंगे नहीं, छोटे-मोटे मामलों का लोड लेंगे नहीं.

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आखिरी बात. जो कुछ विजिबल है, उतना ही गहरा, उतना ही मजबूत इनविजिबल चीजें हैं. उर्जानांतरण इधर से उधर होता रहता है. इसे आप विजिबल मोड में फील कर सकते हैं, उस पाले, यानि इनविजिबल हिस्से को महसूस कर सकते हैं. इसके लिए दिन के उजाले से बचिए, रातों की दिनचर्या शुरू करिए. रात में बगल के पेड़ से आ रही चिट चिट वाली गिलहरी की आवाज के जरिए गिलहरी की रातचर्या को महसूस करिए. अगल-बगल दिखने वाले कुछ चुनिंदा अंधेरों से बतियाइए, उनसे दोस्ती करिए. ये सब एक डोर हैं जिनके जरिए आगे बढ़ा जा सकता है.

फिलहाल जैजै वरना कमरेडवा सब कहेंगे कि गड़बड़ा गया है 🙂

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पर ये भी सच है कि ‘सबसे बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग.’ इसलिए मस्त होकर अपनी लाइफ खुद चुनिए, जीइए.

फिर से जैजै मित्रों.

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भड़ास के एडिटर यशवंत की एफबी वॉल से.

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0 Comments

  1. Sumit sharma

    August 27, 2017 at 1:39 pm

    Yashwant ji pehle to aapko janmdin ki shubhkamnaye. shubhkamnaye dene me ek din late ho gaya hu. iske liye aapse maafi chahta hu. orcha me vikas samvad ke programme me aapse mulakat huyi thi. ab aage bhi aapse satat sampark me rahunga. ye khabar dekh kar badi nirasha huyi ku aap bhadas4media ko band karne ja rahe hai. mera aapse aagrah hai ki aap is nirnay ko tale or bhadas4media ko band nahi kare.

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