यशवंत सिंह-
‘ब्रह्म माया है और जीव अविद्या!’
उपनिषद के एक श्लोक का ये अंश है। इसकी व्याख्या ओशो ने जो की है, कमाल कर दिया है। सवा घंटे का उनका व्याख्यान उपरोक्त एक लाइन को समझाने के लिए है। इस व्याख्यान में एंटी-मैटर जैसी साइंटिफिक खोज का भी सहारा लिया गया। कृष्ण, महावीर, बुद्ध और राम का भी।
ब्रह्म की छाया है माया। जीव की छाया है अविद्या। ब्रह्म से जीव निकला है। माया से अविद्या।
जैसे हम अपनी परछाईं से मुक्त नहीं हो सकते, उसी तरह ब्रह्म माया से और जीव अविद्या से मुक्त नहीं हो सकता।
मुक्त होने के दो रास्ते हैं। खुद को ख़त्म कर लो। परछाईं ख़त्म। या फिर माया अविद्या परछाईं को पूरा का पूरा जस का तस स्वीकार कर लो। जो जैसा है वैसा क़ुबूल। कोई इफ़ बट नहीं। अपनी कोई अलग से चाहना नहीं। दर्द है तो क़ुबूल है। दर्द न हो.. जैसी कोई चाहना नहीं है। इसलिए दर्द होने पर दुःख भी नहीं है। दुःख हमारी आरोपित चाहना से निर्मित है।
बुद्ध और महावीर ने खुद को ख़त्म किया। अपना अहंकार, अपनी इच्छा, अपनी भूख, अपनी आदतें, अपनी चाहना… सब न्यून पर ले जाते हुए शून्य पर खड़ा कर दिया। वे द्वंद्व से मुक्त हो गए। न रही उनकी परछाईं। अविद्या विलीन हो गई माया में। जैसे बूँद को महासागर मिल गया। जीव ब्रह्म में लीन हो गया।
कृष्ण ने माया को अपना लिया। परछाईं को क़ुबूल किया। अविद्या से कोई दिक़्क़त न रही उन्हें। वे अपनी छवि के लिए परेशान न हुए। उन्हें सब कुछ स्वीकार था। वे जैसा है वैसा से प्रसन्न रहते। उन्हें लोकलाज समाज नियम क़ानून कोई न रोक पाता। उनका द्वंद्व न बचा। वे और उनकी परछाईं एक हो गए। कृष्ण परम ब्रह्म को प्राप्त हुए।
राम के जीवन में द्वंद्व था। चिंता थी। लोकलाज से प्रभावित पीड़ित होते। इसलिए वो मर्यादा में उत्तम पुरुष माने गए। वे ब्रह्म लीन न हुए। वे किसी के ताना मारने पर पत्नी छोड़ देते। वे मुक्त न हो पाए। वे मर्यादा पुरुषोत्तम बन गए।
लेकिन कृष्ण , बुद्ध, महावीर मुक्त हो गए।
बुद्ध और महावीर खुद को मारकर मुक्त हुए, अपने ‘मैं’ को मारकर… कृष्ण सब कुछ को स्वीकार कर अपने में समाहित कर मुक्त हुए.. इस तरह दो रास्ते हुए जीव के लिए अविद्या से मुक्त होने के…. खुद को ‘मारिए’, अविद्या मर जाएगी…. या जो भी है अविद्या माया छाया परछाईं… उसे सम्पूर्णता में एकाकार स्वीकार कर लीजिए। फिर भेद न बचेगा। अविद्या जीव में लीन हो जाएगी।
इसलिए ध्यान रखें सदा… ब्रह्म माया है… जीव अविद्या… जीव ब्रह्म का अंश है… अविद्या माया निर्मित है…
(ओशो के लंबे प्रवचन से निचोड़ देने की कोशिश की है… इसलिए बहुत सी चीजें छूट गई हैं… माफ़ी …. 🙂
Atul Goyal
August 14, 2022 at 10:05 pm
बहुत ही बढ़िया सटीक ज्ञान
Ramchandra Prasad5
August 19, 2022 at 2:55 pm
बहुत अच्छी व्याख्या की है आपने । साधुवाद ।
Munaram Kunwar
August 21, 2022 at 8:44 am
माया और ब्रह्म अलग-अलग हैं माया प्रकृति है दुर्गा है और ब्रह्म माया का स्वामी (पति) है तीनों गुण उनके पुत्र है।
ब्रह्मा विष्णु और महेश चार भुजाओं ओर सोलह कलाओं युक्त है, देवि दुर्गा आठ भुजा और चौंसठ कला युक्त है, काल भगवान ब्रह्म एक हजार भुजा और एक हजार कला युक्त है,अक्षर पुरुष परब्रह्म दस हजार भुजा और दस हजार कला युक्त भगवान है,परम अक्षर ब्रह्म पूर्ण परमात्मा सत्पुरुष कविर्देव अनंत भुजाओं और अनंत कलाओं से युक्त सर्व समर्थ प्रभू है।
Ramchandra Prasad
August 25, 2022 at 12:42 pm
बहुत सुन्दर व्याख्या