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सियासत

भारत युवाओं का देश है या पिटते हुए युवाओं का?

अभी कुछ दिन पूर्व ही जवाहर लाल यूनिवर्सिटी के छात्र पिट रहे थे, सब चुप थे. दिल्ली पुलिस ने एक नेत्रहीन छात्र को लाइट बंद करके मारा था, सब चुप थे. आज जामिया मिलिया के छात्र भी पिटे हैं, सब फिर शांत हैं. ठीक ऐसा ही काम चल रहा है भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC) दिल्ली और कानपुर के कृषि विश्वविद्यालय में, यहाँ पर बस फर्क इतना है की इधर का छात्र पिट नहीं रहा बस…… बाकी सब कुछ जस का तस। ना फीस कम हुई, ना कोई ख़ास एक्शन लिया गया है और ना ही किसी को इन छात्रों की सुध है. क्या आप जानते है वो छात्र क्यूँ पिट रहे थे? क्या आप जानते है इन सभी छात्रों में समानता क्या है?

ये सभी छात्र सस्ती शिक्षा के लिए संघर्ष और प्रदर्शन कर रहे हैं. अभी कुछ दिनों पूर्व मैं देश के महान क्रांतिकारियों और महापुरुषों के बारे में पढ़ रहा था – तो बाबा साहेब का एक कथन पढ़ा जो उन्होंने 1956 में “भारत में लोकतंत्र के भविष्य” विषय पर एक चर्चा के दौरान कहा था- यदि आप भारतीय समाज के केवल उस हिस्से को शिक्षा देंगे जिसका हित जाति व्यवस्था को बरकरार रखने में है तो इससे मिलने वाले लाभ से जाति व्यवस्था को मजबूती मिलेगी.

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दूसरी ओर यदि भारतीय समाज के नीचे के हिस्से को शिक्षा देंगे जिसका हित जाति व्यवस्था को खत्म करने में है तो जाति व्यवस्था खत्म हो जाएगी. जिस तरह अमीर को और अमीर बनाना और गरीब को और गरीब बनाने से गरीबी खत्म नहीं हो जाती वही बात जातीय व्यवस्था को खत्म करने में शिक्षा को माध्यम की तरह इस्तेमाल करने के बारे में भी लागू होती है. जाति व्यवस्था को बरकरार रखने की चाहत रखने वाले लोगों को शिक्षा देना भारत में लोकतंत्र की संभावना में सुधार नहीं लाता बल्कि यह हमारे लोकतंत्र को बड़े खतरे में डालता है.

1927 में परिषद में हुई बॉम्बे यूनिवर्सिटी बिल बहस पर बोलते हुए आंबेडकर ने तर्क दिया था, “बैकवर्ड क्लास को यह समझ में आ गया है कि उनके लिए सबसे लाभकारी चीज शिक्षा है और इसके लिए वह लड़ सकते हैं. हम लोग भौतिक सुविधाओं को तो छोड़ सकते हैं लेकिन हम लोग उच्च शिक्षा से प्राप्त अधिकार और अवसरों से मिलने वाले फायदे को नहीं छोड़ सकते.”

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आंबेडकर को इस बात में कोई शक नहीं था कि शिक्षा राज्य प्रायोजित होनी चाहिए ताकि वह सभी की पहुंच में हो. इसके साथ, उन्होंने इसके व्यवसायीकरण का विरोध भी किया. जिस साल वह परिषद के सदस्य बने उस साल सार्वजनिक शिक्षा के लिए अनुदान पर हुई बहस के दौरान उन्होंने कहा था,

“मुझे पता चला है कि कला महाविद्यालयों में होने वाले कुल व्यय का 36 प्रतिशत फीस के माध्यम से आता है, उच्च स्कूलों के खर्च का 31 प्रतिशत फीस से प्राप्त होता है, माध्यमिक स्कूलों के व्यय का 26 प्रतिशत फीस के माध्यम से प्राप्त होता है. सर, मैं यह कहना चाहता हूं कि यह शिक्षा का व्यवसायीकरण है. शिक्षा ऐसी चीज है जो सभी की पहुंच में होनी चाहिए. शिक्षा विभाग ऐसा विभाग नहीं है जो लेन-देन से चलना चाहिए. शिक्षा को सभी संभावित तरीकों से सस्ता किया जाना चाहिए और ज्यादा से ज्यादा सस्ता किया जाना चाहिए”.

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आंबेडकर के लिए संविधान और राज्य ऐसे दस्तावेज और संस्थान थे जो जनहित में हैं. उनका विश्वास था कि शिक्षा संवैधानिक अधिकार होनी चाहिए और यह राज्य की जिम्मेदारी है कि वह निशुल्क शिक्षा उपलब्ध कराएं. “राज्य और अल्पसंख्यक” के अनुसूचित जातियों की स्थिति में सुधार के लिए विशेष दायित्व वाले भाग में आंबेडकर ने लिखा है, “सरकारें- केंद्र और राज्य- को अनुसूचित जातियों की उच्च शिक्षा की वित्तीय जिम्मेदारी लेनी होगी और बजट में इसके लिए उचित प्रावधान करने होंगे. केंद्रीय और राज्य सरकार के बजट में शिक्षा बजट सबसे ऊपर होगा.”

लेकिन वास्तव में सच्चाई तो यह है कि अब शायद संविधान को फिर से पढ़ने की जरूरत आ गई है.

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“जिस प्रकार हॉलीवुड की पिक्चरों में जब देश में तनाव, वाद-विवाद, संघर्ष बहुत ज्यादा बढ़ जाता है तो कोई बैटमैन या सुपरमैन आकर सबसे खतरनाक खलनायकों को आकर सबक सिखाता है, तब जाकर देश में तनाव कम होता है, उसी तरह से आज के युवा भारत में भी किसी चंद्रशेखर, भीमराव आंबेडकर, और ज्योतिबा फूले जैसे वीर संघर्षकारी विचारकों की जरूरत है, जो आएं और समाज के सबसे क्रूर लोगों को सबक सिखाये”.

लेकिन वर्तमान में छात्रों के लिए ना तो कोई बैटमैन आ रहा है और ना ही कोई सुपरमैन– जो आये और आकर जेएनयू में दिल्ली पुलिस की लाठी खाये और जामिया मेंआंसू गैस के गोले में जी भरके रोये.

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ऐसे में छात्र भी बेबस हैं. खुद ही चल पड़े हैं अपनी लड़ाई लड़ने. और फिर क्या —-

कोई रोड पर पिट रहा है, किसी को detain किया जा रहा है, किसी को हड़काया जा रहा है तो किसी को धमकियां मिल रहीं हैं.

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और हमारे देश के प्यारे गोलु-मोलु नेता लोग , जो बेचारे इसी जुगाड़ में लगे हैं की कब ये छात्र आंदोलन बड़ा होकर जेपी आंदोलन की तरह राह पकडे जिसमे वो अपनी देसी घी की रोटी को दाल और चटनी के साथ खा सके.

और इसी कश्मकश में ना तो किसी आईटी सेल का कोई ख़ास ट्वीट आ रहा है और ना कोई नेता छात्रों से मिलने में रूचि दिखा रहा है.

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सबसे ज्यादा आश्चर्य तो तब होता है जब इसी भारत के कुछ तथाकथित लोग (ब्लू टिक वाले और ट्रोलर्स) JNU को बंद करने की मांग करते हैं, वो भी तब जब यूनिवर्सिटी का छात्र फीस वृद्धि के खिलाफ आंदोलन कर रहा है, और कुछ लोग जामिया को इसलिए बंद करने की मांग करते हैं, क्यूंकि वहां के विद्यार्थी CAB और NRC के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं.

अब समझ में नहीं आता, कि भारत युवाओं का देश है या पिटते हुए युवाओं का?

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लेकिन इन सब में वही एक घिसा-पिटा पुराना सा सवाल प्रश्नवाचक चिन्ह के साथ और गहराता जा रहा है. आखिर कब तक?

निवेदक

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इंजीनियर अभिषेक लोहिया
B.TECH, MJMC, PGDMC(IIMC)
[email protected]

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