कृष्ण कांत-
पकौड़ा रोजगार की अपार सफलता के बाद पेश है कंडा पाथो योजना। दिलचस्प तो ये है कि काम मुझे पांच छह साल की उम्र से आता है, उसे कोई प्रोफेसर सिखाएगा? मतलब क्या? उसमें क्या सिखाएगा? और वे कौन लोग हैं जो कंडा पाथना सीखेंगे?
कंडा या उपला हमारी पहली स्मृतियों में दर्ज है। हमने होश संभाला तो कंडे की छवि हमारे दिमाग में पहले से मौजूद थी। दादी कंडा पाथती थीं तो हम बच्चे वहीं पर, कभी कभी उनके गोबर के ढेर से खेला करते थे। कभी कभार हम भी हाथ आजमा लेते थे। गोल वाली पोपरी तो आराम से बना लेते थे जो दीवार में चिपका दी जाती है।
भारत की आम जनता जो काम बिना किसी प्रशिक्षण के सदियों से कर रही है, उसके नाम पर बीएचयू जैसे बड़े विश्वविद्यालय में करोड़ों रुपये क्यों फूंके जा रहे हैं?
भारत में गोबर गैस इसलिए लोकप्रिय नहीं हो पाया क्योंकि गोबर गैस की तकनीक काफी महंगी है। हमारी दादी के बाद कंडा पाथना बंद कर दिया गया क्योंकि कंडा जलता नहीं, सिर्फ सुलगता है। घर की दीवारें काली पड़ जाती हैं और बरसात में छतों से टार टपकता है। कंडे से ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले किसी ईंधन के बारे में मुझे नहीं मालूम है।
आज पूरी दुनिया प्रदूषण मुक्त ईंधन पर काम कर रही है, तब भारत के टॉप विश्वविद्यालय गाय पालना और कंडा पाथना सिखा रहे हैं जो हम मध्ययुग में भी करते थे। क्या हम सबसे प्रदूषक ईंधनों में शुमार कंडे को वापस लाना चाहते हैं? यह कोर्स शुरू करने का मकसद क्या है? जो सरकार उज्ज्वला योजना का फटा ढोल पीट रही है, वह युवाओं को कंडा पाथना सिखा रही है? यह जिस गधे का आइडिया है, वह विशुद्ध पागल है। उसका तत्काल प्रभाव से सरकार इलाज कराए। वह युवा भारत के लिए खतरा है।
वे कौन गदहे प्रोफेसर और छात्र हैं जो सिखा रहे हैं और सीख रहे हैं? मैं जानता हूं कि मैं अपमानजनक और कड़े शब्दों का इस्तेमाल कर रहा हूं, लेकिन मैं सायास ऐसा कर रहा हूं। किसी दिन कोई और बड़ा गदहा कहेगा कि आओ गोबर और माटी लीपना सिखाएं।
जानवर खड़ा दाना खाते हैं तो वह पचता नहीं, गोबर के साथ खड़ा खड़ी ही बाहर आ जाता है। किसी दिन कोई चूतिया कहेगा कि आओ गोबर से दाना बीनकर रोटी बनाना सिखाएं! ये हमारे टॉप के संस्थानों में हो क्या रहा है? कौन इन्हें बर्बाद करने का अभियान चला रहा है?
विश्वविद्यालय में कंडा पाथने का कोर्स चलाना जिस महापुरुष का आइडिया है, वह भारतीय युवाओं को अक्ल का अंधा बनाकर तीन चार सदी पीछे ले जाने की देशद्रोही परियोजना पर काम कर रहा है। उसे सतर्क रहें।
वायरल वीडियो में योगी जी के कथनानुसार, ‘ये क्या चूतियापना है?’
दीपांकर-
2 लाख सैलरी पाने वाले प्रोफेसर कंडी बनाना सिखा रहे हैं,
क्या हमने मेक इन इंडिया के नाम पर भविष्य में कंडी/उपला बनाने की नीति पर काम करने की योजना बना ली है? क्या हम दुनिया को कंडी बेचेंगे?
जब मामला इतना एकेडमिक है-तो अवश्य ही कंडी/उपला बनाने की विधि समझाने के लिए PPT का भी सहारा लिया गया होगा.
उपले जलने के बाद भारी धुआं पैदा करते हैं और किसी भी रूप में ये एक बेहतर ईधन का विकल्प नहीं हैं.
जिसने कक्षा -6 में भी विज्ञान पढ़ा होगा उसे मालूम होगा कि गोबर को सुखा कर जलाने पर इसका ऊष्मीय मान सबसे कम होता है,
और ये सिर्फ सहज उपलब्धता के कारण जलाया जाता रहा है,
कंडे/उपले ने ईधन के रूप में देश की करोड़ों महिलाओं को श्वसन सम्बंधी गंभीर बीमारियां दी है.
ये ग्रामीण परिवेश में सहज उपलब्ध ईंधन का एक विकल्प था क्योंकि मैदानी इलाकों में लकड़ी की उपलब्धता सीमित थी.
लेकिन ये एक खतरनाक प्रदूषक है.
बीएचयू जैसे संस्थानों में जिस पृष्ठभूमि के बच्चे अध्ययन के लिए आते हैं उनमें से अधिकांश के परिवारों में एक पीढ़ी पीछे तक उपले से ही खाना बनता रहा होगा, ज्यादातर के यहां अब भी बनता होगा.
हम अपने छात्रों को कंडी बनाना सिखा रहे हैं और कंडोम जैसी बेसिक चीज इम्पोर्ट करनी पड़ती है.
एक तरफ गोबर के कंडे/उपले जहां खतरनाक प्रदूषक हैं वहीं दूसरी ओर अगर इससे गोबर गैस बना ली जाय तो ये एक ठीक-ठाक ईंधन बन जाता है, जिससे प्रदूषण कम होता है, खाना बनाने वाले को श्वसन तंत्र की गंभीर बीमारियां नहीं होती.
जब हमारे विश्वविद्यालयों को गोबर गैस बनाने के सस्ते और टिकाऊ मॉडल पर काम करना चाहिए, हमारे प्रोफेसर 100 साल पीछे जाकर कंडे पाथ रहे हैं और हमें लगता है ये तो कूल है.
इनको कंडी पाथना भी नहीं आता, प्रोफेसरी तो क्या ही करते होंगे स्टुडेंट्स बताएं…
इस तरह का घटिया साइज शेप का उपला बनाने से बेहतर है कि गाय- भैंस जो गोबर करें उसको डायरेक्ट सुखा कर ही जला लिया जाय.
बनारस में गोबर से उपले/कंडे बनाने की वर्कशॉप हुई है. हाथ में गोबर लेकर किसी भी साइज में गोलिया दिए और इनको लगता है कि कंडे ऐसे ही बन जाते हैं.
गोबर को लड्डू और रसगुल्ले की शेप में बनाने से उपला नहीं बनता.
इस साइज के उपलों का भिटहुर कैसे बनाएंगे ये…
वीरेंद्र यादव-
बीएचयू के जिस प्रोफेसर को विश्वविद्यालय में पोलिटिकल साइंस पढ़ाने के लिए नियुक्त किया गया था और जो सोशल साइंस फैकल्टी का डीन है, वह विश्वविद्यालय परिसर में छात्रों को गोबर पाथने का हुनर और गोबर का माहात्म्य समझा रहा है.
यह वर्तमान शिक्षा व्यवस्था का विद्रूप और रुपक मात्र न होकर समूची समाज व्यवस्था पर टिप्पणी है.
एक प्रोफेसर गोबर पाथना सिखा रहा है और छात्र गोबर पाथ रहे हैं. बनारस के प्रबुद्ध जन और नागरिक समाज यह सब देख रहा है.
यह यूँ ही नहीं है कि जेएनयू के जिस कुलपति ने विश्वविद्यालय को बर्बाद करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी, अब उसे यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन का अध्यक्ष नियुक्त किया गया है.
निश्चित रुप से बीएचयू के इस प्रोफेसर को भी गाय-गोबर माहात्म्य में अपना उज्जवल भविष्य दिख रहा है.
इस भारत दुर्दशा पर आप एक साथ हंस और रो सकते हैं.
Prashant
February 8, 2022 at 2:35 pm
Aap log bhi kamal hai. Har cheej ka virodh karne lagte hai….Sorry…
Jab Upale Amazon par bik rahe hain.. (average price is Rs. 160 for 04 Kande) “COW DUG CAKE ke naam se”. Kaeeyo me to unka size bhi diya rahta hai, yakeen na ho to Amazon pe dekh liziye.
to fir university me ise banana sikhaya ja raha hai to kya galat hai.
Aap logo ki pata hona chahiye ki Bharat ab vishya guru hai. Hamne duniya bhar ki sabhi cheej seekh li hai ab kuch bacha nahi hai. so Kande banana seekh rahe hai.
Fir ispar seminar honge. Exhibition lagange. fir kando ki insudustires laga karangi.
Had hai.. Sahi Kaha “Gadahe.”