प्रकाश के रे-
बिजली वाला यह क़ानून अगर अस्तित्व में आ जाता है (देर-सबेर आना ही है), तो सस्ती बिजली का मामला ख़त्म हो जाएगा, जैसे पेट्रोल-डीज़ल में डिकंट्रोल से हुआ.
जो महँगी बिजली ख़रीद सकेंगे, वे प्राइवेट ऑपरेटरों से ले लेंगे तथा सरकारी कंपनियों के पास वे ग्राहक होंगे, जिन्हें सस्ती बिजली और सब्सिडी की ज़रूरत होगी.
लागत के हिसाब से दाम तय करने का मतलब हुआ है कि लंबे समय तक दाम बढ़ते रहेंगे क्योंकि भारत समेत दुनियाभर में बिजली के लिए पेट्रोलियम और कोयला ज़रूरी है, वे लगातार महँगे होते जायेंगे. राज्य सरकारों, विशेषकर उत्तर और पूर्वी भारत के ग़रीब/पिछड़े राज्यों के, को बहुत सोच-समझ कर इस नयी व्यवस्था को अपनाना होगा.
बिजली की दरें पहले से ही ठीक-ठाक महँगी हैं और बकाया भी है, तो बाद में जब इन्हें किसानों, छोटे कारोबारियों व उद्यमियों, निम्न आय वर्ग और निर्धनों को सस्ती/मुफ़्त बिजली देनी होगी, तो बजट पर भार बढ़ेगा.
बहरहाल, निजीकरण की सबसे बड़ी समस्या यह है कि इसमें लागत के आधार पर दाम लेने और अच्छी सेवा देने का वादा तो होता है, पर असल में यह किसी तरह भारी मुनाफ़ा कमाने का मामला बन जाता है.
उदाहरण के लिए, तेल, बैंकिंग और बीमा की निजी कंपनियों का मुनाफ़ा देखा जाए. इतना ज़्यादा कैसे हो जा रहा है? और, क्या उसका कोई फ़ायदा ग्राहकों को दिया जा रहा है या केवल इलेक्टोरल बॉंड में चंदा देकर ही काम चल रहा है?