Anil Kumar Yadav : बनारस, शनिवार ३ अगस्त २००२. (नामवर के निमित्त) : आलोचना गांव के ठाकुर नामवर सिंह बोलने (ऑरेटरी) के लिए जाने जाते हैं। यह हुनर उन्हें कुछ इस तरह प्राप्त है कि टिकट लगा दिया जाए तो भी लोग उन्हें सुनने आएंगे। जो जिस हुनर के लिए जाना जाने लगता है उसके प्रति खासतौर से सचेत हो जाता है। अगर मूंछे किसी की पहचान बन जाएं तो वह मोछू कहलाने के लिए उन्हें तेल-पानी से चिकना कर रखता है। लिहाजा नामवर भी यूं ही कुछ नहीं बोल देते। बोलने से पहले पान घुलाते हुए लहरें गिनते हैं।
कुछ लिखते क्यों नहीं, पूछने वालों को उनकी भक्त मंडली बताने लगी है- लिखने का क्या है, वह हद से हद कुछ दशकों की यात्रा है लेकिन वाचिक परंपरा की पगडंडी सदियों लंबी है। सुदूर भविष्य में जाती सूनी पगडंडी के यात्री नामवर ने उस शाम यूपी के कालेज के राजर्षि सभागार में वह वृत्तांत क्यों सुनाया?
स्मृति चिन्ह, अभिनंदन पत्र, शाल-नारियल और अपनी मूर्ति। मालाएं इतनी कि कई दिनों तक गरदन दुखती रही होगी। प्रशंसा इतनी कि कई दिनों तक खीझ होती रही होगी। हिंदी पत्रकारिता के शलाका पुरूष प्रभाष जोशी ने कई प्रधानमंत्रियों से अपनी निकटता का यूं ही रेखांकन करने के बाद कहा, हिंदी पट्टी में पुनर्जागरण के नायक नामवर सिंह ही हो सकते हैं। बघनख और बम लेकर गली-गली घूमते सांप्रदायिकों और भारत पर जाल फेंकती मल्टीनेशल कंपनियों के इस हत्यारे समय में इस पिछड़े, भुच्च और दीन इलाके की मूर्छित विचार परंपरा को सिर्फ वही जगा सकते हैं। भारतीय मनीषा को रचने और ब्रिटिश साम्राज्यवाद का ध्वंस करने वाले इस हिंदी महादेश के बीमार, कंकाल प्राय ढांचे को बस वही चला सकते हैं। ……तो वहां बैठे तुंदियल-तृप्त तेल और तेल की धार देखकर जीवन पथ पर निष्कंटक संचरण करने वाले मास्टरों, लिपिको, लेखकों और समधियों ने मालवा के प्रभाष जी के बाइस्कोप से हिंदी पट्टी में पुनर्जागरण के महास्वप्न के रशेज और फुटेज देखे।
थकान, यदा-कदा सायास उत्तेजना से तनने वाली, मधुमेह के पाउचों से घिरी ढेरों आंखे उन पर टिकी थीं तभी नामवर सिंह ने वह वृत्तांत सुनाया………। अठारह सौ सत्तावन के आसपास चंदौली के महाइच परगना के खड़ान गांव में मेरे पूर्वज थे शिवरतन सिंह (काशी नाथ सिंह के संस्मरणों में झूरी सिंह) जो अंग्रेजी पलटन में सिपाही थे। जाड़े की एक सुबह कंबल लपेटे, लोटा लेकर निपटान के लिए गए, वहां इलाके में आतंक मचाए एक बाघ ने अचानक हमला कर दिया। बाघ पर कंबल फेंका और लगे लोटे से मारने। आदमखोर से जूझ कर लोटे-लोटे मार ही डाला। पिचके लोटे, चिथड़े कंबल और बाघ की खाल से वीरता के सत्यापन के बाद अंग्रेजों ने उन्हें चंदौली के चार गांव दिए। फिर उन्होंने वह श्लोक सुनाया जिसमें एक गाभिन सिंघनी, आसमान में गरजते बादलों को बरजती हुई कहती है- बादलों मत गरजो, मत गरजो… कहीं ऐसा न हो कि तुम्हे मतवाला हाथी समझ कर मेरा शावक मेरा पेट फाड़कर बाहर निकल आए।
यह हिंदी पट्टी में पुनर्जागरण का महास्वपन देखते शावक की गुजरात के रक्त सरोवर में क्रीड़ा करते मदमस्त सांप्रदायिक हाथियों को चुनौती थी। गर्व और शौर्य के उत्ताप से रोंये खड़े हो गए। रोएं खड़े होने के बाद, सभागार में कुर्सियों के चरमराने जैसी एक और जैविक प्रतिक्रिया हुई लेकिन फिर सन्नाटा….। जैसे किसी उबाऊ फिल्म में कोई छू लेने वाला अबोध सा दृश्य आ गया था फिर वही उबासियां।
शायद वहां बैठे दुनियादार लोग जानते थे कि सांप्रदायिक फासीवाद ने मध्यवर्ग को आहत हिंदुत्व की जड़ी सुंघाकर सम्मोहित कर लिया है और मल्टीनेशनलों ने उन सभी को पटा लिया है जो कभी विरोध में बांहे भांजते थे। बच्चे अब मैकडोनाल्ड का बर्गर खाते हुए कटुओं की क्रिकेट मैच में पराजय पर देशी कट्टा दाग रहे हैं। ऐसे में आलोचना के कंबल और सिर्फ लफ्जो के लोटे से यह दानवाकार बाघ कैसे मारा जाएगा?
नामवर जी आप ही बताइए!
वरिष्ठ पत्रकार और लेखक अनिल यादव की एफबी वॉल से.
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