Connect with us

Hi, what are you looking for?

साहित्य

मन लागो मेरो यार फकीरी में : क्रांतिकारी पिता की स्मृति में बिटिया द्वारा रचित जिंदा दस्तावेज

फकीराना अंदाज में जीने वाले सुरेश भट्ट को जिंदा रखना बहुत जरूरी है। भविष्य उन्हें भुलाये नहीं, इसलिए उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाना हर उस शख्स के लिए निहायत जरूरी है,जो आज भी मनुष्यता की गरिमा के मर्म को जानते-समझते हैं। असीम भट्ट ने जो दमखम दिखायी, वो दमखम विरले के बूते की बात ही है। अच्छे-अच्छों के लिए ‘वो’ नजीर बन गयीं हैं। एक बिटिया अपने बाप के लिए क्या नहीं कर सकती हैं, यह जिंदा दस्तावेज है ‘मन लागो मेरो यार फकीरी में।

सुरेश भट्ट को जानना है, समझना है, तो ‘मन लागो मेरो यार फकीरी में’का अध्ययन जरूरी है। 44 लेखों के माध्यम से सुरेशभट्ट को वर्तमान पीढ़ी जान सकती हैं, समझ सकती हैं। निश्चित, सुरेश भट्ट को भूलाना इतना आसान नहीं हैं। लेखों के माध्यम से उनको जानने और समझने वालों ने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को रेखांकित किया है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

विद्यानंद सहाय जी ने ठीक ही लिखा-‘पता नहीं, भट्ट जी किस रूप में याद किये जायेंगे। किये भी जायेंगे या नहीं, इसकी कोई गारंटी नहीं है, पर आज भी बहुतों को उनकी अनुपस्थिति महसूस होती है कि एक सर्वांग सर्वहारा मानसिकता का व्यक्ति,एक भावुक क्रांतिकारी, एक बोहेमियम औघड़-फक्कड़ क्रांतिकारी-हमारे बीच से चला गया। किसी और दुनिया में आज भी क्रांति की मसाल जलाये होंगे।’

वहीं मेधा पाटेकर ने लिखा-‘सुरेश भट्ट तन से,मन से, धन से और अंत तक क्रांतिवीर थे। जिसने कितनी विषमबाजारी,स्वार्थी प्रवृतियों के बीच भी खुद को बचाया, मूल्यों को चौखट में बाँधकर रखा और देश के प्रति प्यार, तो मेहनतकश के प्रति सम्मान के साथ ही पूरा जीवन बिताया।’

कैलाश सत्यार्थी ने सुरेश भट्ट को क्रांतिकारी कबीर कहा और लिखा-‘बेतरतीब दाढ़ी, सिर पर थोड़े-बहुत बिखरे हुए बाल, अक्सर फटे-पुराने कपड़े और टूटी-फूटी चप्पलें, बेहद गहरी और तीखी आँखें,अधिकारपूर्ण और कड़कदार आवाज, हर विषय की जानकारी, बेहद अच्छी याददाश्त,अनगिनत लोगों के बारे में सूचनाएं, देश के हर आंदोलन पर पैनी नजर व सूक्ष्म विश्लेषण, अत्यंत ऊर्जा से भरे रहने वाले सुरेश जी के अजूबे व्यक्तित्व के आयाम थे।’

Advertisement. Scroll to continue reading.

जार्ज, जाबिर हुसैन, मधु लिमये, नानाजी देशमुख, स्वामी अग्निवेश, आचार्य राममूर्त्ति, जेपी आदि अनगिनत सामाजिक आंदोलनों के पहरूए तक सीधी पहुँच रखने वाले सुरेश भट्ट जी की कभी कोई चाह नहीं रही। चाह का सीधा मतलब राजनीति है। अगर उनकी कोई राजनीतिक चाह रहती, तो आज वो सांसद महोदय होते, विधायक जी कहलाते!

डा. उज्ज्वल कुमार ने लिखा है-‘उनकी पहुँच जेपी तक थी, परंतु जेपी के पास चाटुकारों का ही जमघट लगा रहता था और ऐसे में एक ऐसे आदमी को राजनीतिक रूप में अवसर नहीं मिल सकता, जिसे मिलना चाहिए।’

Advertisement. Scroll to continue reading.

निश्चित, तौर पर सुरेश भट्ट जी, जनता के ऐसे नेता थे, जो तमाम ‘वादों’से ऊपर थे। नवेन्दु जी ने लिखा-‘भट्ट जी के भीतर एक बेचैनी थी-शोषित,पीड़ित जनता की मुक्ति के लिए लड़ना, एक ही विचारधारा-आजाद देश में कोई गुलामी में न खटे, कोई बंधुआ न बने। शायद इसीलिए कई आंदोलनों के अगुआ और सहयात्री रहे सुरेश भट्ट।’

डॉ महेन्द्र नारायण कर्ण ने लिखा-‘छवि, वस्त्र, संपूर्ण आकृति में कोई विशिष्टता भले न हो, किंतु एक अजीब किस्म का आकर्षण हुआ करता था।’

सुरेश भट्ट गुमनामी में जीते रहे, तभी तो आनंद स्वरूप वर्मा ने लिखा-‘मुझे नहीं लगता कि उनके निधन का समाचार उन सारे लोगों तक भी पहुँच पाया होगा, जिनसे वह लगभग 50 वर्षों के अपने तूफानी सक्रिय राजनीतिक जीवन में मिलते रहे थे और बहस करते रहे थे।’

Advertisement. Scroll to continue reading.

शशिभूषण ने भी लिखा-‘जिस व्यक्ति ने 60 साल बिहार के सामाजिक-राजनीतिक जीवन को दिए, अनगिनत जन-संगठनों और आंदोलनों को खड़ा किया,सक्रीय रखा, क्या उसे ऐसे ही गुमनाम चले जाना था?’

सुरेश भट्ट खूब घूमते थे। जहाँ सांझ, वहीं बिहान कर देते थे। अच्छा वक्ता थे ‘वो’। प्रकाश चन्द्रायन ने लिखा-‘चलती-फिरती किताब की तरह थे सुरेश भट्ट। भांति-भांति के आंदोलनों की कथाएं होतीं उनके पास। बेशक! इस बात में सच्चाई थी! आज के नेताओं की तरह सुरेश जी को छपास की बीमारी नहीं थी। बड़े पत्रकारों के साथ ऊठना-बैठना था,लेकिन कभी नहीं बोले-मेरी खबर छाप दीजिए। अपनी बिटिया की भी सिफारिश से बचते रहे।

Advertisement. Scroll to continue reading.

सत्य प्रकाश असीम ने लिखा-महीने में 20 दिन दुरूह गाँव और बीहड़ों में रहने वाले इस शख्स को छपास की बीमारी नहीं थी। हकीकत है कि कई आंदोलनों को सुरेश भट्ट ने आगवानी की है। बावजूद अखबारों में नाम छपाने से बचते रहे हैं। रामरतन प्रसाद सिंह ‘रतनाकार’ ने लिखा भी है-‘सरकारी तंत्र की मनमानी, महाजनी तंत्र की मनमानी, सामंतों की मनमानी अर्थात जहाँ भी शोषण हो रहा है, उसके खिलाफ प्रथम पंक्ति में सुरेश भट्ट सदा खड़े रहे।’

गोपाल सिंह ‘नेपाली’ की कविता ‘तुमसा लहरों में बह लेता, तो मैं भी सत्ता राह लेता, ईमान बेचता चलता तो, मैं भी महलों में रह लेता’ की पंक्ति को उद्धृत करते हुए डॉ शांति ओझा ने लिखा-‘भूदान,नदी बांध परियोजना,साहूकारी प्रथा मुक्ति आंदोलन, पूँजीवादी व्यवस्था, विस्थापन, भूमि आंदोलन, जल कर मुक्ति आंदोलन, मछुआरा आंदोलन, भंगी प्रथा आंदोलन, बाल मजदूरी प्रथा और कई अन्य राष्ट्रीय और प्रांतीय संगठनों का सक्रीय नेतृत्व सुरेश भट्ट जी करते रहे, उनका जीवन समष्टि के लिए समर्पित था।’

‘सिंहभूमि एकता’ के कभी संपादक रहे प्रबल महतो ने लिखा-‘दरअसल, सुरेश जी उस पीढ़ी के राजनैतिक कार्यकर्ता थे,जो समाज को बेहतर और खुशहाल बनाने के लिए राजनीति में आये थे, इसलिए उनके लिए ओहदा और अपने नफा-नुकसान से ज्यादा विचारधारा महत्वपूर्ण थीं।’

Advertisement. Scroll to continue reading.

डॉ ओंकार निराला ने लिखा- ‘सुरेश भैया ने समाज को, देश को, आम जनता को अपनी कर्तव्यपारायणता और संघर्षशीलता से अमृत दिया और खुद विपत्तियों और कठिनाइयों को झेलकर जहर पिया।

डॉ. इसरारूल हक मानते है-‘पत्नी पीड़ित रहती थीं, बेटा नाराज रहता था, बेटियां दुखी रहती थीं, लेकिन सुरेश भट्ट जी समाज में ही तल्लीन रहे।’

Advertisement. Scroll to continue reading.

आलोका लिखती हैं- ‘सुरेश जी अपने वेश-भूषा से ही एक पूर्णकालिक सामाजिक कार्यकर्ता और शोषित-पीड़ितों के प्रखर प्रवक्ता लगते थे। उनकी काया, सफेद कुर्त्ता-पाजामा, कांधे से लटकता खादी का झोला और बेतरतीब ढंग से बढ़ी हुई दाढ़ी-मूँछे उनके प्रभाव तेवर के होने का एहसास करा देती थी।’

सुरेश जी का जन्म नवादा के संभ्रांत परिवार में हुआ था, लेकिन उनके जानने वाले प्रो भारती एस कुमार के शब्दों में ‘कामरेड सुरेश भट्ट पूँजीवाद के विकृत चेहरों को बेनकाब करने वाली जंग के एक बहादुर सिपाही थे।’

Advertisement. Scroll to continue reading.

मधु मिश्रा ने बड़ी बेबाकी से लिखा-‘इनका इस्तेमाल तो सभी नेताओं ने किया,लेकिन किसी ने उन्हें सही जगह या सम्मान नहीं दिया, क्योंकि सुरेश भट्ट जी ने हमेशा सच्चाई और ईमानदारी का साथ दिया और यही इनकी पूँजी थी। बाकी सारे नेता अपने बच्चे के लिए क्या-क्या नहीं करते, लेकिन इनकी आदर्शवादिता का खामियाजा आज तक इनका परिवार भुगत रहा है।’

पूनम रानी लिखती हैं-‘उनका पूरा जीवन त्याग, बलिदान और संघर्ष में रहा। कोई दिखावा नही,कोई बनावटीपन नहीं। सादा जीवन और उच्च विचार की युक्ति उनके जीवन में सौ प्रतिशत लागू होती हैं। खादी का झोला कंधे पर जिसमें एक डायरी, एक कलम, कुछ किताबें, एक-दो जोड़ी कपड़े, यही था उनका व्यक्तित्व।’ आगे लिखती हैं-‘बड़े भैया पूँजीपतियों के सख्त खिलाफ थे। वह कहा करते थे-अमीरों की खाल से गरीबों का जूता बनाऊँगा।

देवकुमार सिंह ने लिखा- ‘सुरेश भट्ट ने जीवनकाल में न तो अपने लिए कुछ किया और न उन्हें किसी पद की लालसा थी। भट्ट कहा करते थे कि‘हम सरकार बनाते हैं, सरकार में शामिल नहीं होते।’

Advertisement. Scroll to continue reading.

सुरेश भट्ट की पत्नी मिसाल हैं। सरस्वती भट्ट ने ईमानदारीपूर्वक वृतांत को लिखा। लिखती हैं कि भट्ट जी अपने बाबूजी से कुछ बोलने की हिम्मत नहीं जुटाते थे। पुराने सिनेमा के पोस्टरों के सहारे छह माह तक जिंदगी बिताने वाली सरस्वती भट्ट के जज्बे को सलाम है। सिलाई कर परिवार की गाड़ी खींचने वाली सरस्वती बराबर सौतेली सास की नजरों में गड़तीं थीं। सच पूछिए,सरस्वती जी की लेखनी कई बार रुला गयीं। उन्होंने लिखा कि भट्ट जी से कुछ पूछने पर सीधा जवाब मिलता- ”हाँ ठीक है, मेरा तो पूरा हिन्दुस्तान ही बच्चा है। जिस दिन दुनिया के तमाम बच्चे पढ़-लिख जायेंगे, पेट भर खायेंगे,उस दिन मेरे बच्चे का भी भविष्य सुधर जायेगा। इनको कायर मत बनाओ, सीखने दो, दुनिया की तीन तिहाई आबादी कैसे जीती हैं। आलीशान महलों की तरफ मत देखो। जो लोग झोपड़े में रहते हैं, उनको देखो। उनके झोपड़े में न चूल्हा जलाने के लिए किरासन तेल हैं, न लालटेन जलाने के लिए।”

सरस्वती जी वर्तमान व्यवस्था से नाराज हैं। स्वतंत्रता सेनानी पेंशन की बात छोड़ दी जाये, तो यह परिवार जेपी आंदोलनकारी पेंशन से भी महरूम है!

Advertisement. Scroll to continue reading.

निश्चित, सुरेश भट्ट जी ने फकीराना अंदाज में जिंदगी को जिया। बिटिया असीमा ने ठीक ही लिखा-‘जो मन में, वही मुँह पर और जो मुँह में वही मन में…खुदमुख्तार और खुद्दार इंसान। न छल, न धोखा, न चालाकी न होशियारी। मन बिल्कुल बच्चे की तरह।’

बिटिया ने आशावादी लहजे में लिखा- ‘आजकल आसमान में एक तारा बहुत चमकीला है और जानती हूँ इतना चमकीला तारा मेरे पिता ही हो सकते हैं, जो मुझे वहाँ से भी देखते हैं…मुझसे बातें करते हैं…और मुझे मेरी बाकी बची हुई जिंदगी की राह दिखला रहे हैं…दिखाते रहेंगे…वह हमेशा मेरे साथ थे और साथ रहेंगे…मेरी हिम्मत बनकर…मेरी ताकत बनकर…मेरा आत्मविश्वास बनकर…मेरा अभिमान बनकर…।’

असीमा भट्ट द्वारा संपादित ‘मन लागो मेरो यार फकीरी में’ में सुरेश भट्ट को जानने वाले डा हशमत परवीन, राजेन्द्र प्रसाद यादव, स्वामी अग्निवेश, पुष्प राज, गीताश्री, गिरिजा सतीश,रामशरण जोशी, उर्मिलेश, शेखर, मोहन मुकुल, वीरभारत तलवार, अरुण कुमार, रजी अहमद, विश्वजीत सेन, अंजलि देशपांडे, डा उषा किरण खान, डा विजय कुमार,ओजनाम ओल्ड एज होम सोसाइटी के अध्यक्ष एम सी चाको ने भी संस्मरण लिखा। हर किसी ने अपने संस्मरण में सुरेश भट्ट जी को क्रांतिकारी माना है और लिखा कि वो फकीरी में ही जिंदगी गुजार दिए। आजादी से पूर्व 1930 में संभ्रांत परिवार में जन्म लेने वाले सुरेश जी की भूमिका छात्र आंदोलन से लेकर जेपी आंदोलन तक रही। छात्र आंदोलन में उनके ऐसे तीखे स्वर थे कि लोगों के मुख से अनायास निकल पड़ता अगल-बगल हट, आ रहे हैं सुरेश भट्ट।

Advertisement. Scroll to continue reading.

मुकेश कुमार सिन्हा की कलम से.

”मन लागो मेरो यार फ़कीरी में’ किताब को प्राप्त करने के लिए [email protected] पर मेल या 9910343376 पर फोन कर सकते हैं. इस किताब से प्राप्त राशि ओज़ानम ओल्ड ऐज होम, दिल्ली को दान स्वरूप दी जायेगी.

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement