Connect with us

Hi, what are you looking for?

साहित्य

अनिल यादव की किताब ‘यह भी कोई देस है महराज’ का अंग्रेजी संस्करण छपा

Dinesh Shrinet : “पुरानी दिल्ली के भयानक गंदगी, बदबू और भीड़ से भरे प्लेटफार्म नंबर नौ पर खड़ी मटमैली ब्रह्मपुत्र मेल को देखकर एकबारगी लगा कि यह ट्रेन एक जमाने से इसी तरह खड़ी है। अब यह कभी नहीं चलेगी। अंधेरे डिब्बों की टूटी खिड़कियों पर पर उल्टी से बनी धारियां झिलमिला रही थीं जो सूखकर पपड़ी हो गई थीं। रेलवे ट्रैक पर नेवले और बिल्ली के बीच के आकार के चूहे बेख़ौफ घूम रहे थे। 29 नवंबर, 2000 की उस रात भी शरीर के खुले हिस्से मच्छरों के डंक से चुनचुना रहे थे। इस ट्रेन को देखकर सहज निष्कर्ष चला आता था – चुंकि वह देश के सबसे रहस्यमय और उपेक्षित हिस्से की ओर जा रही थी इसलिए अंधेरे में उदास खड़ी थी।”

<script async src="//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script> <script> (adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({ google_ad_client: "ca-pub-7095147807319647", enable_page_level_ads: true }); </script> <script async src="//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script> <!-- bhadasi style responsive ad unit --> <ins class="adsbygoogle" style="display:block" data-ad-client="ca-pub-7095147807319647" data-ad-slot="8609198217" data-ad-format="auto"></ins> <script> (adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({}); </script><p>Dinesh Shrinet : "पुरानी दिल्ली के भयानक गंदगी, बदबू और भीड़ से भरे प्लेटफार्म नंबर नौ पर खड़ी मटमैली ब्रह्मपुत्र मेल को देखकर एकबारगी लगा कि यह ट्रेन एक जमाने से इसी तरह खड़ी है। अब यह कभी नहीं चलेगी। अंधेरे डिब्बों की टूटी खिड़कियों पर पर उल्टी से बनी धारियां झिलमिला रही थीं जो सूखकर पपड़ी हो गई थीं। रेलवे ट्रैक पर नेवले और बिल्ली के बीच के आकार के चूहे बेख़ौफ घूम रहे थे। 29 नवंबर, 2000 की उस रात भी शरीर के खुले हिस्से मच्छरों के डंक से चुनचुना रहे थे। इस ट्रेन को देखकर सहज निष्कर्ष चला आता था - चुंकि वह देश के सबसे रहस्यमय और उपेक्षित हिस्से की ओर जा रही थी इसलिए अंधेरे में उदास खड़ी थी।"</p>

Dinesh Shrinet : “पुरानी दिल्ली के भयानक गंदगी, बदबू और भीड़ से भरे प्लेटफार्म नंबर नौ पर खड़ी मटमैली ब्रह्मपुत्र मेल को देखकर एकबारगी लगा कि यह ट्रेन एक जमाने से इसी तरह खड़ी है। अब यह कभी नहीं चलेगी। अंधेरे डिब्बों की टूटी खिड़कियों पर पर उल्टी से बनी धारियां झिलमिला रही थीं जो सूखकर पपड़ी हो गई थीं। रेलवे ट्रैक पर नेवले और बिल्ली के बीच के आकार के चूहे बेख़ौफ घूम रहे थे। 29 नवंबर, 2000 की उस रात भी शरीर के खुले हिस्से मच्छरों के डंक से चुनचुना रहे थे। इस ट्रेन को देखकर सहज निष्कर्ष चला आता था – चुंकि वह देश के सबसे रहस्यमय और उपेक्षित हिस्से की ओर जा रही थी इसलिए अंधेरे में उदास खड़ी थी।”

Advertisement. Scroll to continue reading.

जब मैंने लखनऊ से निकलने वाली किसी छोटी सी पत्रिका में संभवतः उसके संपादक के अनुरोध पर लिखे जा रहे अनिल यादव के यात्रा संस्मरण की ये शुरुआती पंक्तियां पढ़ीं तो हतप्रभ सा हो गया। ऐसी तटस्थ मगर भीतर तक बेध जाने वाली भाषा, ऐसा गद्य हिन्दी में दुर्लभ था। यह 2007 की बात रही होगी। उन दिनों मैं लखनऊ में ही था। मैंने पढ़कर जब अनिल को फोन किया तो उन्होंने चिरपरिचित अलसाये अंदाज में पूछा- क्या तुम्हें वो अच्छा लगा? मैं कहा- हां, और ये तो यात्रा संस्मरण की पूरी एक किताब बन सकती है! यह सुझाव देने की वजह यह थी कि मैंने उनके और अनेहस शाश्वत की नार्थ ईस्ट की यायावरी के किस्से सुन रखे थे। दरअसल, लखनऊ में मेरे आने के पांच-छह साल पहले वे मेरे मित्र न थे न ही लेखक अऩिल यादव थे। वे अमर उजाला में मुझसे सीनियर थे। वे लखनऊ ब्यूरो में रहे लंबे समय तक। उनकी शार्प आब्जर्वेशन और तटस्थ मगर परतदार भाषा वाली रिपोर्ट्स अक्सर पहले पेज का एंकर बनती थीं। इनमें से ज्यादातर रिपोर्ट्स न सिर्फ पत्रकारिता के लिए बल्कि हमारी हिन्दी के लिए भी लाजवाब उदाहरण हैं, मगर अधिकतर को अनिल अपनी बेपरवाही के चलते गुम कर चुके हैं।

कुछ रिपोर्ट्स आज भी याद हैं। ‘भागवत के मौत के दिन की राजधानी’- जिसमें अनशन पर बैठे एक किसान की मौत के दिन का ब्योरा है। ‘कंपनी बाग में देसी फूल’- जिसमेंं छोटे शहरों से इलाहाबाद आए युवाओं की बेचैन करने वाली तस्वीर है (जिसे बाद में मैंने इग्नू के पाठ्यक्रम में बतौर कोर्स कोआर्टिनेटर काम करने के दौरान शामिल कर लिया)। या फिर सड़क किनारे पसीने में डूबे जल्दी-जल्दी कुछ खाकर अपना टारगेट पूरा करने निकल पड़ने वाले युवा सेल्स रिप्रेंजेंटेटिव्स की रिपोर्ट। अनिल ने धीरे-धीरे एक ऐसी भाषा को साधा जो हिन्दी का स्वभाव तो है मगर हिन्दी के लेखकों का नहीं। एक ऐसी निर्मम तटस्थता जिसमें अभिव्यंजना है और भाषा की कई लेयर्स हैं और उससे बढ़कर वह निगाह, जो अपने आसपास के यथार्थ उस तरह देख पाती है, जिस तरह हम कभी नहीं देख पाते। निःसंदेह उनका लेखन हमारी दृष्टि-संपन्नता को बढ़ाता है। अनुराग कश्यप अपनी समग्रता में मुझे पसंद नहीं आते मगर उनके काम के सर्वश्रेष्ठ हिस्से मुझे अऩिल के लेखन की याद दिला देते हैं।

Advertisement. Scroll to continue reading.

तो अनिल का यात्रा संस्मरण बमुश्किल दो-तीन अंकों में छपा। उसके बाद या तो पत्रिका ही बंद हो गई या अनिल ने अपनी उकताहट में लिखना छोड़ दिया। तब तक मैं और अनिल सहज रूप से मित्र हो चुके थे। मेरी अब तक प्रकाशित दो कहानियों का स्वरूप तय करने में उनसे हुई लंबी बातचीत का बड़ा योगदान रहा है। मैं बैंगलोर और कानपुर से उन्हें नार्थ ईस्ट का यात्रा वृतांत पूरा करने के लिए खटखटाता रहा है। मेरे अलावा बहुत से लोग रहे होंगे जिन्हो्ंने अनिल को प्रेरित किया होगा, और उसी का नतीजा था जब 2012 में ‘यह भी कोई देस है महराज’ सामने आया। मैंने यात्रा वृतांत बहुत कम पढ़े हैं, बिना अतिशियोक्ति के यह कहना चाहूंगा कि ‘चीड़ों पर चांदनी’ के बाद यह दूसरा यात्रा संस्मरण है जो आपको पहले वाक्य से ग्रिप में ले लेता है। इसका कुछ कुछ अंदाजा तो शुरुआती पंक्तियों को पढ़कर ही लग गया होगा।

बहरहाल; स्पीकिंग टाइगर बुक्स से इसका अंग्रेजी संस्करण ‘Is That Even a Country, Sir!’ के नाम से आ गया है। यह एक उम्मीद जताता है कि हिन्दी में परिश्रम, शोध और जिद से भरा एक ऐसा मौलिक लेखन संभव है जो उसे भाषाओं की सरहदों के पार ले जा सके। अनिल को बधाई। स्क्रॉल ने इसका एक अंश प्रकाशित किया है। उसका लिंक यूं है :

Advertisement. Scroll to continue reading.

www.scroll.in/anilYadavBook

पत्रकार दिनेश श्रीनेत की एफबी वॉल से.

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement