वरिष्ठ पत्रकार बच्चन सिंह जी का अवसान हिंदी पत्रकारिता के एक युग का अंत है. बच्चन जी दरअसल पुरानी से लेकर अति आधुनिक पत्रकारिता तक के सफर के युग का प्रतिनिधित्व करते थे. उन्होंने जो मानक स्थापित किये, वह भाषायी पत्रकारिता के 80 के दशक के बाद के एक सौ संपादक भी मिलकर नहीं कर सकते. पत्रकारिता में जो बदलाव को लेकर जो समझ और अनुमान उन्होंने तीन दशक पहले लगा लिए था, वह आज सामने है.
बच्चन जी ने जिस भी अख़बार में काम किया वहां अपनी दूरदर्शिता की जो छाप छोड़ी वह भूली नहीं जा सकती. वह जिस भी अख़बार में जाते थे, उसका तेवर ही बदल जाता था. भाषा से लेकर हैडिंग तक में वह अख़बार अलग ही पहचान बना लेता था. मेरा उनके साथ काम करने का लंबा अनुभव रहा है. पत्रकारिता में वह मेरे मार्गदर्शक थे. मैंने उनके जैसा संपादक अपने तीन दशक के पत्रकारिता करियर में कभी नहीं पाया. न गुस्सा और न किसी बात पर खीज. न ईर्ष्या और न किसी के बारे में नुक्ता-चीनी. उनके अधीन काम करने वाले बड़ी से बड़ी गलतियां कर बैठते थे लेकिन अगले दिन जब उनके चैम्बर में सम्बंधित सहयोगी जाता था तो अपने गुस्से को प्रकट नहीं करते थे. शालीन और कम शब्दों में वह उसे अख़बार में की गयी गलती बता देते थे. सहयोगी इतना शर्मिंदा हो जाता था क़ि उसके मुंह से कोई शब्द नहीं निकल पाता था. काम लेने और करने का अदभुत तरीका था उनका.
मैं 1986 में उनके निर्देश पर जब दैनिक जागरण इलाहाबाद छोड़ कर स्वतंत्र भारत वाराणसी ज्वाइन करने गया तो उन्होंने मुझे खेल से साथ ही फीचर, सेंट्रल डेस्क की जिम्मेदारी दी. लिखने के लिए खूब प्रोत्साहित किया. स्वतंत्र भारत नया नया लांच हुआ था. उन्ही के नेतृत्व में. बहुत मेहनत की थे लांच होने के बाद से एक साल तक. 18 घंटे तक हम लोग काम करते थे. और, नतीजा यह निकला क़ि इस अख़बार ने वाराणसी में आज को पीछे कर नंबर 2 में स्थान बना लिया. उस समय वाराणसी में आज और दैनिक जागरण ही बराबर के अख़बार थे और दोनों का सर्कुलेशन लगभग समान था, कभी कोई बढ़त ले लेता था तो कभी कोई, ऐसी हालात में तीसरे अख़बार के लिए गुंजाइश कम ही बचती है, तब बच्चन जी ने अनूठा प्रयोग किया. उन्होंने तय किया क़ि ऐसा अख़बार निकल जाये जो भाषा से लेकर मेकअप तक में एकदम अलग हो. यह एक बड़ा रिस्क भी था. लोग पसंद कर लें, इसकी कोई गारंटी नहीं थी, फिर नए नए प्रयोगों के पक्षधर बच्चन जी ने इस रिस्क को स्वीकार किया.
ले आउट छह कालम का और भाषा एकदम सरल और उसमे अंग्रेजी के भी शब्द. जैसे दौड़ की जगह रेस, दरवाजे की जगह डोर, होनहार की जगह टैलेंट. कुर्सी-मेज की जगह चेयर-टेबल, प्रबंधक की जगह मैनेजर आदि दिए जाने लगे. जब अख़बार में इस तरह के शब्दों को शहर क़े पत्रकारों ने पढ़ा तो उन्होंने आपत्ति जताई और इस हिंदी पत्रकारिता के साथ खिलवाड़ माना. बच्चन जी का तर्क था क़ि आने वाले समय में लोग क्लिष्ट हिंदी नहीं पढ़ेंगे. वह वही पढ़ना पसंद करेंगे जो बोलते हैं और जो शब्द बोलने में प्रयुक्त होता है, वही अख़बार में भी लिखना चाहिए. उनका यह फैसला सही साबित हुआ और स्वतंत्र भारत ने पाठकों के बीच मजबूती से अपना स्थान बना लिया. इस तरह शब्दों के मामले में वाराणसी की पारंपरिक हिंदी पत्रकारिता से कुछ हटकर थी बच्चन जी की पत्रकारिता.
ताकतवर लोगों ने की खूब साजिश
स्वतंत्र भारत वाराणसी ने जितने कम समय में जिस तेजी से सफलता हासिल की थी उसी तेजी से उसका दुर्भाग्य पीछे-पीछे दौड़ रहा था. दो साल होते-होते यूनियन ने बोनस की मांग को लेकर हड़ताल कर दी. लेबर ऑफिस ने अख़बार में लॉक आउट घोषित कर दिया. 26 दिन बाद लॉक आउट हटा तो अख़बार को फिर से नयी ऊर्जा के साथ मार्किट में लाने की चुनौती थी. इस बार अख़बार फिर आगे बढ़ा लेकिन दूसरे स्थान से काफी दूर ही रहा. दरअसल, बच्चन जी की सफलता ही उनकी दुश्मन बनती जा रही थी.
लखनऊ में उच्च पदों पर बैठे अख़बार के अधिकारी बच्चन जी के खिलाफ मैनेजिंग डायरेक्टर शिशिर जैपुरिया के कान भरने लगे. उन्हें खतरा इस बात का था क़ि बच्चन जी को कही वाराणसी के साथ ही लखनऊ का भी संपादक न बना दिया जाये. बात-बात पर अख़बार में बिना वजह नुक्स निकाले जाने लगे. बच्चन जी को आभास हो गया था क़ि साजिश करने वाले काफी ताकतवर हैं, इसलिए उन्होंने सितम्बर 1988 में इस्तीफा दे दिया है. कुछ दिन बाद ही बोनस की मांग को लेकर फिर हड़ताल हो गयी.. इस बार 16 दिन चली. जब हड़ताल ख़त्म हुई और अख़बार छपने लगा तो मार्किट में हम बहुत पीछे हो चुके थे.
पाठकों ने इस अख़बार से नाता तोड़ लिया था. हॉकर्स ने अख़बार उठाने से इनकार कर दिया. वर्क्स मेनेजर के सी इन्दोरिया को लखनऊ बुलवाया गया और उनसे पूछा गया कि अख़बार को फिर से पटरी पर लाने के लिए क्या किया जा सकता है? इन्दोरिया जी ने सुझाव दिया कि किसी नामी चेहरे को संपादक बनाकर भेजा जाये तो हो सकता है कुछ लाभ मिल जाये. जाने-माने साहित्यकर ठाकुर प्रसाद सिंह को संपादक बनाया गया. कुछ असर तो दिखा लेकिन तब तक अख़बार में अनुशासनहीनता बढ़ गयी थी. यूनियन के नाम पर कामचोरी और मनमानी होने लगी थी. ठाकुर प्रसाद उत्तर प्रदेश के सुचना निदेशक पद से कुछ समय पहले ही रिटायर्ड हुए थे. स्वाभाव से सरल होने के कारण संपादकीय टीम पर वह नियंत्रण नहीं कर सके. और 1987 समाप्त होते-होते जैपुरिया खानदान ने इस अख़बार को बेच दिया
क्यों थे अन्य संपादकों से अलग?
बच्चन जी को बरेली से दैनिक जागरण लांच करने की जिम्मेदारी सौंपी गयी.. अख़बार अक्टूबर 1986 में शुरू होना था. सितम्बर में उन्होंने मुझे स्वतंत्र भारत छोड़कर बरेली पहुँचने को कहा. मैं पहुँच गया. सुबह ऑफिस गया और बच्चन जी मुझे देख बहुत खुश हुए. लेकिन अगले दिन ही कुछ ऐसी स्थिति आ गयी कि मैं जागरण न ज्वाइन करके अमर उजाला ज्वाइन कर लिया. जागरण में प्रस्तावित वेतन से 800 रूपये ज्यादा में. बच्चन जी की महानता देखिए, उन्होंने मुझे न रोका और न बुरा माना. वह तो इस बात पर खुश थे कि मुझे 800 ज्यादा मिल रहे हैं. यही सब गुण बच्चन जी को अन्य संपादकों से अलग करता था.
दंगे की ख़बरों में मृतकों का नाम छपने की परंपरा डाली
अमर उजाला की बरेली मंडल और कुमाऊं (उत्तराखंड) में भरी साख थी. उसके मुकाबले जागरण को जगह बनाना चुनौतीपूर्ण काम था. जागरण लांच होने के 10 दिन बाद (november 1986) में किसी मामूली बात पर बदायूं (बरेली से 40 km दूर) में दंगा फैल गया. इतना भीषण दंगा कि कण्ट्रोल नहीं हो पा रहा था. सेना बुलानी पड़ी थी. बच्चन जी ने कवरेज की वह परंपरा तोड़ी जो कोई भी संपादक हिम्मत नहीं जुटा सकता. उन्होंने दंगे में मारे गए लोगों के नाम छापे. अमर उजाला ऐसा नहीं कर रहा था. नाम छापने से जागरण को फायदा यह हुआ कि लोग उसे खरीदने लगे.
बरेली के तत्कालीन कमिश्नर डी पी सिंह और आई जी जोन अजय राज शर्मा ने बच्चन जी को फ़ोन करके सलाह दी कि नाम छापने से दंगा नहीं कण्ट्रोल होगा..बच्चन जी ने जवाब दिया कि नाम नहीं छापने से अटकलें और अगवाहें फैलती हैं, इसलिए लोगों को पता होना चाहिए कि कौन ज्यादा ज्यादती कर रहा है, उसी इलाके में पुलिस को प्रभावी एक्शन लेना चाहिये. कमिश्नर ने दूसरे दिन फिर फ़ोन किया और चेतावनी दी कि अगर मृतकों का नाम छपा होगा तो वह अख़बार को नहीं बंटने देंगे. बच्चन जी ने कहा, करके देख लीजिये लेकिन आप इसमें सफल नहीं होंगे. कमिश्नर ने बदायूं में अख़बार की गाड़ी रोककर बंडलों को जब्त करवा दिया. इसका भी जागरण को लाभ मिला. लोगों को लगा कि प्रशासन जान बूझ कर ऐसा कर रहा है.लोगों तक सही बात पहुँचने से रोक रहा है. हलाकि अगले ही दिन प्रशासन को अपनी कार्रवाई वापस लेनी पड़ी.
देश के सभी भाषायी अख़बारों के संपादकों में बच्चन सिंह पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने दंगो में मृतकों के नाम देने की शुरुवात की. और अब तो बड़े-बड़े अंग्रेजी के भी अख़बार नाम देते हैं.जागरण बरेली मंडल में ठीक-ठाक स्थान बनाने में सफल रहा. दुर्भाग्य से बरेली में भी वह अपनों के ही छल- कपट की राजनीति का शिकार हुए और जागरण छोड़ना पड़ा यहाँ कुछ समय संवाद केसरी पत्रिका के साथ जुड़े फिर वाराणसी लौट गए अपने घर. घर में वह किताब लिखने में खुद को व्यस्त रखते थे.
मूल्यांकन नहीं हुआ
बच्चन सिंह जी प्रचार और झूठी वाहवाही से दूर रहते थे. चापलूसी उनके खून में नहीं थी. अख़बार को बढ़ाने क़े मामले में उनसे बेहतर सोच वाला संपादक मैंने कभी नहीं देखा. उनमे एक मरे हुए अख़बार में प्राण डालने का सामर्थ्य था. वह जितना योग्य थे उतना सौ संपादक मिलकर भी उनके जैसी योग्यता हासिल नहीं कर सकते हैं. वह तर्क नहीं करते थे. कोई खुद को ज्यादा समझदार बनने की कोशिश करता था तो उसे भी सम्मान देते थे. उनका फार्मूला था कि युवा ही संपादकीय टीम के ऑक्सीजन होते हैं इसलिए युवा रिपोर्टरों को रिस्क वाले काम सौंपते थे.
उनकी कमजोरी यह थी कि एक बार जिस किसी भी सहयोगी पर विश्वास कर लेते थे तो फिर उससे सम्बन्ध नहीं तोड़ते थे, भले ही वह उन्हें धोखा क्यों न दे दे? अखबारी दुनिया में बच्चन जी का मूल्यांकन नहीं हुआ. पत्रकारिता का दुर्भाग्य देखिये, संपादकीय सहयोगियों को हंटर के जरिये हांकने की कला में कुख्यात लोग ग्रुप एडिटर, प्रधान संपादक, एडिटोरियल प्रेसीडेन्ट जैसे पद पाकर खुद को सुपर जर्नलिस्ट तो मान बैठे. लेकिन अपना दिमागी संतुलन कायम नहीं रख सके. इन बड़े पद वाले कथित पत्रकारों में न मर्यादा दिखती है और न शालीनता. दिखता है तो सिर्फ ढोंग और बनावटी व्यक्तित्व. पत्रकारिता में नए और जोखिम प्रयोग के लिए बच्चन जी हमेशा याद किये जायेंगे. उनके साथ और सानिध्य में काम करने वाले उन्हें कभी नहीं भूल सकेंगे.
सम्मान की योजना बनी थी
कुछ दिन पहले ही मैं इलाहाबाद में अपने कुछ पुराने दोस्तों के साथ मिलकर बच्चन जी का जोरदार सम्मान करने की योजना बना रहा था. बच्चन जी की मौत के दो दिन पहले ही मेरी दूरदर्शन के पूर्व संपादक और बच्चन जी क़े मित्र डॉ अशोक त्रिपाठी से इस सम्बन्ध में बात हुयी थी. उन्होंने बच्चन जी के जीवन और कृतित्व पर एक फोल्डर छपाने का सुझाव दिया. 31 जनवरी को सुबह मेरे 35 साल पुराने मित्र डॉ प्रदीप भटनागर (पूर्व संपादक दैनिक भास्कर झालावाड़) ने मुझे फ़ोन कर बताया कि बच्चन जी नहीं रहे. उन्होंने दोपहर में कंपनी बाग़ में शोक सभा बुलाई. प्रदीप भी बच्चन जी के सानिध्य में काम कर चुके हैं.
इंद्र कांत मिश्र
वरिष्ठ पत्रकार
9827434787
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