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साहित्य

उन्मादी भीड़तंत्र और बेबस काशीनाथ सिंह

विष्णु राजगढ़िया

सोशल मीडिया ने एक नए किस्म का उन्माद पैदा किया है। फोटोशॉप, फर्जी ऑडियो-वीडियो और फेक न्यूज़ के सामने सत्य और विवेक की जगह नहीं रही। इसका ताजा शिकार बने हैं चर्चित वयोवृद्ध हिंदी लेखक काशीनाथ सिंह। उनके नाम से जारी एक फर्जी पत्र सोशल मीडिया में घूम रहा है। प्रधानमंत्री के नाम इस कथित पत्र में पनामा दस्तावेज संबंधी मामला उठाया गया है। काशीनाथ जी ने जब स्पष्ट किया कि यह उनका लिखा पत्र नहीं है, तब उन पर संघर्ष से भागने का आरोप लगाकर अपमानित किया जा रहा है। उन्माद का यह दौर हतप्रभ करने वाला है।

विष्णु राजगढ़िया

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सोशल मीडिया ने एक नए किस्म का उन्माद पैदा किया है। फोटोशॉप, फर्जी ऑडियो-वीडियो और फेक न्यूज़ के सामने सत्य और विवेक की जगह नहीं रही। इसका ताजा शिकार बने हैं चर्चित वयोवृद्ध हिंदी लेखक काशीनाथ सिंह। उनके नाम से जारी एक फर्जी पत्र सोशल मीडिया में घूम रहा है। प्रधानमंत्री के नाम इस कथित पत्र में पनामा दस्तावेज संबंधी मामला उठाया गया है। काशीनाथ जी ने जब स्पष्ट किया कि यह उनका लिखा पत्र नहीं है, तब उन पर संघर्ष से भागने का आरोप लगाकर अपमानित किया जा रहा है। उन्माद का यह दौर हतप्रभ करने वाला है।

गिरिजेश वशिष्ठ ने वह पत्र लिखा था। उन्हें भी पीड़ा है कि उनकी रचना की क्रेडिट किसी अन्य को दी जा रही है। आखिर कौन लोग हैं जो किसी दूसरे के पत्र को तीसरे के नाम फैलाकर भ्रम उत्पन्न कर रहे हैं? काशीनाथ जी के नाम से वह पत्र वायरल होने के बाद गिरिजेश वशिष्ठ ने फेसबुक में लिखा- “समझ में नहीं आ रहा गुस्सा दिखाऊँ या ठहाके लगाऊँ। मेरी पोस्ट काशीनाथ जी के नाम से शेयर की जा रही है। पता नहीं किस मूर्ख ने यह हरकत की है। कई ब्लॉग औऱ वेबसाइट पर यह है।”

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दूसरी ओर, काशीनाथ जी के लिए भी इस पत्र का उनके नाम से जारी होने विस्मयकारी था। इलाहाबाद के सीपीएम नेता सुधीर सिंह ने इस पर कई जानकारी दी।

सुधीर जी के शब्दों में- “सोशल मीडिया में पत्र पढ़कर मैंने काशीनाथ जी को फ़ोन करके बधाई दी। तो वो बोले कि अरे, मैंने थोड़े ही लिखा है जो मुझे बधाई दे रहे हो। मुझे तो कहीं से आया था तो मैंने किसी किसी को भेज दिया। मुझे वो पत्र अच्छा जरूर लगा, लेकिन मैंने वो लिखा नहीं। क्या वो मेरे नाम से छपा है? अब तुम ही लिख दो कि वह मेरा लिखा पत्र नहीं है।”

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काशीनाथ जी के आग्रह के अनुरूप सुधीर सिंह ने कई लोगों के फेसबुक में फर्जी पत्र पर कमेंट किया- “मेरी उनसे बात हुई। उन्होंने उन बातों से खुद को सम्बद्ध तो किया, लेकिन यह स्पष्ट किया कि वह पत्र किसी ने व्हाटसअप पर भेजा था, अच्छा लगा तो कई जगह फॉरवर्ड कर दिया।”

इसके दूसरे दिन काशीनाथ जी ने सुधीर सिंह को फोन करके पूछा- “तुमने लिखा नहीं क्या? मीडिया वाले बार-बार मुझे फोन करके पूछ रहे हैं।”

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सुधीर सिंह भी इस प्रकरण से हतप्रभ हैं। कहते हैं- “लोग किसी पर हमला करने के लिए उतावले रहते हैं, लेकिन सही बात कहने कोई सामने नहीं आता।”

सुधीर जी बताते हैं कि इस प्रकरण से काशीनाथ जी काफी दुखी हैं। कह रहे थे कि मैं तो अब इस फोन को छुउँगा भी नहीं। बेटा दे गया था, पोता कुछ कुछ सिखाता रहता है। उसे ने मेसेज फारवर्ड करना सिखाया था। मैं तो टाइप करना भी नहीं जानता।

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सोशल मीडिया के क्रांतिकारी उन्मादी इस तथ्य पर बात ही नहीं कर रहे कि दूसरे की लिखी चीज तीसरे के नाम कैसे जारी की जा सकती है। इस बुनियादी प्रश्न के बजाय वे लोकसभा चुनाव के वक्त के किसी अप्रिय प्रसंग का उल्लेख करते हुए काशीनाथ जी के कथित मोदीप्रेम अथवा कायरता की खिल्ली उड़ा रहे हैं। कुछ उत्साही वीरबालक कह रहे हैं कि अगर यह पत्र उनका नहीं है, तब भी उन्हें यह बात बताने की क्या जरूरत थी।

कल्पना करें, अगर उन्होंने पत्र अपना न होने की बात खुद न कही होती तो मूल पत्रलेखक अथवा अन्य लोग उनपर चोरी का आरोप लगा रहे होते।

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कुछ मतिमंद लोग यह भी कह रहे हैं कि जब उन्होंने उसे फारवर्ड किया तो उनका ही मान लेने में क्या हर्ज है। ऐसे तर्क कोई अल्पज्ञानी ही दे सकता है।

कई लोग कह रहे हैं कि अगर सही मकसद से किसी ने आपके नाम से कोई पत्र जारी कर दिया, तो उसे स्वीकार कर लेना चाहिये। यह भी बचकाना बात है। कुछ लोग कह रहे हैं कि पत्र का खंडन करते हुए उन्हें उसके मुद्दे पर अपनी सहमति देनी चाहिए थी। जबकि पत्र को फारवर्ड करके वह उस पर अपनी राय दे ही चुके थे।

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प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े बनारस निवासी संजय श्रीवास्तव ने भी बताया कि यह प्रकरण काशीनाथ जी पर अन्याय है क्योंकि सोशल मीडिया में उनकी वैसी कोई दखल नहीं।

उन लोगों की तलाश अवश्य करनी चाहिए जिन्होंने शरारत में इसे काशीनाथ जी के पत्र के तौर पर प्रचारित किया। जो लोग अब भी इसे सुधार नहीं रहे, उनसे भी पूछना चाहिए।

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जो लोग सच जानने के बावजूद काशीनाथ जी के खिलाफ अपमानजनक अभियान चला रहे हैं, कायर और भगोड़ा बता रहे हैं, उनसे भी इंसानियत की गुहार लगाना जरूरी है। आखिर ऐसा कौम से उन्माद है, जिसमें सच और विवेक की कोई गुंजाइश नहीं थी। यह भी मॉब लिंचिंग का सोशल मीडिया संस्करण है।

सोशल मीडिया के दुरुपयोग का यह एक दुखद प्रसंग है। हैरान करने वाली बात है कि हम हिंदी के अपने वयोवृद्ध लेखकों के साथ कैसा सलूक करते हैं। सामाजिक जीवन में पुत्र अपने वृद्ध माता-पिता को वृद्धाश्रम छोड़ आता है। वह क्या इस सलूक से भी ज्यादा बुरा होता होगा?

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….

पुनश्च – उन्माद के इस दौर में ‘छत्तीसगढ़ बास्केट” ने एक अच्छा उदाहरण पेश किया। इस वेबसाइट ने भी काशीनाथ जी का फर्जी पत्र पोस्ट किया था। लेकिन सच का पता चलते ही इसके लिए खेद प्रकट किया। जबकि कई वेबसाइट तथा विद्वानों ने अपनी गलती मानना तो दूर, उल्टे काशीनाथ जी के ही खिलाफ अभियान छेड़ रखा है।

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लेखक विष्णु राजगढ़िया झारखंड के जाने माने जन सरोकारी पत्रकार हैं. उनसे संपर्क 9431120500 के जरिए किया जा सकता है.

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0 Comments

  1. कमल

    August 6, 2017 at 10:10 am

    पत्र को दूसरे के नाम से मीडिया में फैलाने की दोहरी साजिश है। पहली गिरिजेश वरिष्ठ के पत्र की धार कुंद करना और दूसरी पुरस्कार लौटने के कारण काशीनाथ सिंह से बदला लेना।
    ये कायर, कपुरूष धोखा ही कर सकते हैं, वही उन्होंने किया। लेख के लिए विष्णु राजगढ़िया को बधाई।

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