Prabhat Ranjan : सीतामढ़ी में मैं जब पढता था तब आरम्भ में मुझे लेखन के लिए सबसे अधिक प्रेरित किया प्रोफ़ेसर मदन मोहन झा ने. वैसे तो वे राजनीतिविज्ञान के प्राध्यापक थे और महज 44 साल की उम्र में अत्यधिक शराबनोसी के कारण उनका देहांत हो गया. लेकिन मेरी आरंभिक साहित्यिक रुचियों पर उनका बहुत असर रहा. उन्होंने ही मुझे और मेरे दोस्त श्रीप्रकाश की साहित्य में गहरी रूचि को देखते हुए यह सलाह दी कि भाषा में भावप्रवणता लाने के लिए प्रेम पत्र लिखा करो.
सलाह तो बहुत सरल थी लेकिन इसका जवाब ढूँढना उतना सरल नहीं था. हम दोनों के जीवन में प्रेम का घोर अभाव था. श्रीप्रकाश को इसका उपाय जल्दी ही मिल गया. वह अपने मोहल्ले के सबसे ऊंचे घर में रहता था और मोहल्ले भर के लड़कों में उसकी ख्याति इस रूप में थी कि वह कुछ कुछ लिखता रहता है. मोहल्ले के एक दो प्रेमियों ने उससे सेवाएँ मांगी तो वह सहर्ष तैयार हो गया क्योंकि मदन मोहन झा सर ने कहा था कि प्रेमपत्र लिखने से लेखन की धार चमकती है.
एक बार शाम के समय चूड़ा के चिखना के साथ मृत संजीवनी सुरा का पान करते हुए उसने बताया कि उसके मोहल्ले में एक लड़के गुलटेन की प्रेमिका को उसके पत्रों से प्यार हो गया था. गुलटेन उससे अपनी प्रेमिका के जवाब का जवाब लिखवाने के लिए आया था. उसकी प्रेमिका ने यह लिखा था कि आपको देख कर लगता ही नहीं है कि आप इतना अच्छा लिखते हैं. कल वाली चिट्ठी पढ़कर आपको सब प्यार देने का मन कर रहा था. श्रीप्रकाश ने कहा कि मन करता है कि गुलटेनवा की प्रेमिका को बता दूँ कि चिट्ठी हम लिखते हैं.
मैं श्रीप्रकाश की तरह भाग्यशाली नहीं था. मुझे काल्पनिक प्रेमपत्र लिखकर ही काम चलाना पड़ता था. एक बार जरूर मैंने अपने कॉलेज के नामी माने जाने वाले बदमाश सदरुल के लिए एक चिट्ठी लिखी थी. उसने एक दिन अपने कमरे पर बुलाया और बोला- सुना है पंडित तुम बहुत अच्छा लिखते हो. जरा एक चिठ्ठी लिख दो। गाँव में उसकी प्रेमिका थी जिसकी शादी होने वाली थी. उसके लिए आखिरी चिट्ठी लिखनी थी.
मैंने काफी शेरो शायरी वाली चिट्ठी लिखी थी. सदरुल को बहुत पसंद आई थी. वह जब मिलता था तो पूरी पूरी चिट्ठी सुना देता था. वह बहुत जुनरबी(साहसी) कहा जाता था. मुझे ईनाम देने के लिए उसने शहर के थाने की दीवार से लगे पुस्तकालय की खिड़की तोड़ दी थी और मुझे अन्दर ले जाकर कहा कि पंडित जो किताब चाहिए ले लो. मैंने ‘अपराध और सजा’ किताब उठा ली. उसने भी कई किताबें उठाई और मेरी साइकिल पर लाद दी थी. मेरे पहले घरेलू पुस्तकालय में वही किताबें थी, जिसमें एक किताब धर्मवीर भारती की ‘ठंढा लोहा’ थी और एक साहिर लुधियानवी की ‘तल्खियाँ’..
बाद में श्रीप्रकाश एक दिन साधू बनने के लिए निकल गया. बीस साल हो गए आजतक नहीं लौटा. दिल्ली में हिन्दू कॉलेज के हॉस्टल में था तो एक दिन यह खबर आई कि शहर के एक नामी डॉक्टर के घर में रात के वक्त एक एक बदमाश घर में घुसने की कोशिश करते समय मारा गया. वह सदरुल था. डॉक्टर की बेटी से उसे मोहब्बत थी और मैंने पहले ही लिखा कि वह साहसी था.
वैसे आज यह सब लिखने का एक कारण यह है कि आज श्रीप्रकाश का जन्मदिन है. उसकी बेहद याद आ रही है. साधू बनने के लिए निकलने से पहले उसने मुझे कहा था- एक दिन तुम बहुत बड़े लेखक बनोगे! वह बहुत अच्छा ज्योतिषी भी था!
पत्रकार और साहित्यकार प्रभात रंजन की एफबी वॉल से.