Shailesh Bharatwasi : हालाँकि मैं कोई नई बात नहीं बता रहा हूँ, फिर भी अनुभव शेयर करने से वस्तुस्थिति से दूसरे भी अवगत होते हैं की आशा में लिख रहा हूँ। फ़र्रूख़ाबाद के रेलवे रोड पर शिवा बुक स्टॉल के नाम से सामान्य किताबों (जिसमें साहित्यिक, पॉपुलर, धार्मिक और सेक्सोपयोगी पुस्तकें शामिल हैं) और पत्रिकाओं की एक दुकान है। विक्रेता शिवा से बातचीत से बहुत सारी बातें समझ में आई। देश के दूसरे हिंदीभाषी इलाक़ों की ही तरह फ़र्रूख़ाबाद में भी सबसे अधिक बिकने वाली पत्रिका ‘सरल सलिल’ है। पूरे शहर के 4-5 दुकानों से 400 से अधिक प्रतियाँ बिकती हैं। इसके बाद महिलाओं की पत्रिका ‘वनिता’ की बिक्री ख़ूब है।
शिवा की तो दुकान ही महिला-पाठकों से चलती है। ‘वनिता’ की लगभग 90 और ‘मेरी सहेली’ की 55 प्रतियाँ बिकती हैं। ‘जागरण सखी’ और ‘गृहलक्ष्मी’ की हालत ठीक है लेकिन आश्चर्यजनक रूप से ‘गृहशोभा’ की बिक्री न के बराबर है। मेरे जैसे व्यक्ति के लिए जो ये जानता था कि सबसे अधिक बिकने वाली पत्रिका ‘गृहशोभा’ है, उसके लिए यह सूचना शॉकिंग थी। दुकानदार ने बताया कि ‘गृहशोभा’ जब से पाक्षिक हुई और एक अंक की क़ीमत 40 रुपये हो गई, तब से बिक्री एकदम कम हो गई। दिल्ली प्रेस की कई पत्रिकाओं की यही दशा है। ‘सरिता’ की बिक्री भी फ़र्रूख़ाबाद में न के बराबर है। ‘निरोगधाम’, ‘निरोगसुख’, ‘आरोग्यधाम’, ‘सत्यकथा’, ‘महकते पल’, ‘मनोहर कहानियाँ’ जैसी पत्रिकाएँ अब भी बिकती हैं। साहित्यिक पत्रिकाओं की बात करें तो पूरे फ़र्रूख़ाबाद में ‘हंस’, ‘कथादेश’, ‘वागर्थ’ और ‘नया ज्ञानोदय’ के कुल 7 पाठक हैं और वे सब शहर के लेखक-समुदाय से आते हैं। शिवा ने बताया कि 7 में से 5 पाठक अब ‘अहा! ज़िंदगी’ भी लेने लगे हैं। ‘कादम्बिनी’ के पाठक अब भी सबसे अधिक हैं। लगभग पच्चीस। 3-4 साल पहले तक शिवा एक साल में ‘गुनाहों का देवता’ की 30-35 कॉपी बेच लेते थे, अब 15-18 प्रतियाँ निकल पाती हैं।
शिवा के अनुसार यह घटोत्तरी धर्मवीर भारती के इस उपन्यास की क़ीमत बढ़ने के कारण हुई है। सुरेंद्र मोहन पाठक फ़र्रूख़ाबादियों की पहली पसंद हैं। पाठक जी का हर उपन्यास बड़े आराम से साल भर में 55-60 प्रतियों में खप जाता है। इसके बाद यहाँ के पाठकों की पसंद वेद प्रकाश शर्मा हैं, फिर केशव पंडित। मैंने पूछा कि हार्पर से छपने के बाद भी सुरेंद्र मोहन पाठक बिक रहे हैं? क्योंकि क़ीमत बढ़ी है! शिवा ने बताया कि 5-10 प्रतियाँ कम हुई हैं, लेकिन बिकता है। सुरेंद्र मोहन पाठक के कुछ फैन तो ऐसे हैं जो उनका हर उपन्यास अपनी आलमारी में रखते हैं। उनके पास उनके 2 रुपये के उपन्यास से लेकर ‘गोवा गलाटा’ तक है। हार्पर वाला उपन्यास लोग इसलिए भी ख़रीद लेते हैं कि पढ़ लेने के बाद उसे आप आधे दाम में बेच सकते हैं। रवि बुले भी बिकते दिखे। टोना-टोटका की किताबें भी ख़ूब बिकती हैं, लेकिन अब उनके ट्रेंड में थोड़ा फ़र्क़ आया है। लोग ‘लक्ष्मी कैसे प्राप्त करें’, ‘मोटापा कैसे घटाएँ’, ‘क्या खाएँ, क्या न खाएँ’ जैसी किताबें भी पढ़ने लगे हैं। वात्सयायन के कामसूत्र के कई संस्करण अभी भी लोगों की पहली पसंद हैं। महिलाएँ भी उन्हें ख़रीदने से नहीं हिचकतीं।
चेतन भगत की किताबें अपने पहले महीने में जितनी बिक जाती है, बिक जाती है, फिर नहीं बिकती। चेतन की किताबें पढ़कर लोग उसी तरह का उपन्यास तलाशते हैं, उस चक्कर में दुरजॉय दत्ता और रवीन्दर सिंह की किताबें भी बिक जाती हैं। चेतन वैसे मूल अंग्रेज़ी में ज़्यादा बिकते हैं, पर उनके उपन्यास के हिंदी अनुवाद की माँग भी ख़ूब है। साल में 50-60 प्रतियाँ अंग्रेज़ी में और 10 प्रतियाँ हिंदी में। अमीष की नई किताब बिलकुल नहीं बिकी, पर शिवा ट्राइलॉज़ी की डिमांड ये छोटा सी दुकान पूरी नहीं कर पा रही थी। हिंद युग्म की किताबों में सबसे अधिक लोकप्रियता ‘कुल्फ़ी एंड कैपुचिनो’ की है। फिर ‘मसाला चाय’ और ‘बनारस टॉकीज़’। शिवा ने ये भी बताया कि बीच में एक समय ऐसा भी आया था कि लगने लगा था कि शायद अब मैगजीन्स न बिकें, क्योंकि बहुत सारे बच्चों ने मोबाइल पर डाउनलोड करके पढ़ना शुरू कर दिया था। ‘पीडी’ (प्रतियोगिता दर्पण) के साथ ऐसा हुआ था, लेकिन मुश्किल से दो महीने में सब फिर से ख़रीदने लगे। उनका कहना था कि जो मज़ा छपे हुए को पढ़ने में है, वो मज़ा मोबाइल या कंप्युटर पर पढ़ने में नहीं है। हालाँकि बिक्री धीरे-धीरे घट रही है, लेकिन फिर भी उम्मीद क़ायम है।
हिंदयुग्म प्रकाशन के कर्ताधर्ता शैलेष भारतवासी के फेसबुक वॉल से.